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बुधवार, 2 अप्रैल 2025

ऑटिज्म: समझ और स्वीकार्यता



 



 माइक्रोसॉफ्ट नामक कम्पनी के सह संस्थापक तथा अध्यक्ष बिल गेट्स ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि यदि वे आज बच्चे होते, तो संभवतः उनमें ऑटिज्म का निदान किया जाता। उन्होंने अपने सामाजिक अजीब व्यवहार ,आंखों के संपर्क में कठिनाई और किसी विषय पर गहरे ध्यान केंद्रित करने जैसी विशेषताओं का उल्लेख किया, जो ऑटिज्म के लक्षणों से मेल खाती हैं। गेट्स ने यह भी बताया कि उनकी गहरी एकाग्रता की क्षमता ने उनकी सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती कि वे ऑटिस्टिक हैं या नहीं, लेकिन उनके अनुभव साझा करने से न्यूरोडाइवर्सिटी के प्रति जागरूकता और समझ बढ़ी है।

हम 21वीं सदी में जी रहे हैं । नित नए वैज्ञानिक अनुसंधानों के साथ स्वयं को अपडेट करते हुए सुपर ह्यूमन बनने की राह में अग्रसर हैं । इस दौड़ में अग्रणी रहते हुए भी कुछ मानवीय पहलू में हम  बहुत पीछे रह गए हैं। एक तरफ कुछ मशहूर लोग खुद में विशेष आवश्यकता वाले लक्षणों को स्वीकार कर रहे हैं तो दूसरी ओर अब भी न्यूरोडवर्सिटी व अन्य अक्षमताओं के प्रति जागरूकता और स्वीकार्यता ऐसा ही एक क्षेत्र है, जहां अभी भी बहुत प्रयास करने की आवश्यकता है।इनसे प्रभावित कई व्यक्ति  व्यक्ति अभी भी समाज की स्वीकार्यता प्राप्त कर मुख्य धारा में आने  के लिए प्रयासरत हैं।


दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 (RPWD Act 2016) विकलांग लोगों के अधिकारों को सुरक्षित करने और बढ़ाने के लिए बनाया गया कानून है। इसमें 21 अक्षमताएं शामिल की गई है, जिसमें से एक ऑटिज्म है। कई लोगों के लिए यह शब्द बिल्कुल नया होगा , क्योंकि इससे पहले ऑटिज्म प्रभावित लोगों को मानसिक मंद श्रेणी में रखा जाता था । 2 अप्रैल " ऑटिज्म जागरूकता दिवस" और अप्रैल का महीना ऑटिज्म जागरूकता माह के रूप में मनाया जाता है। इसलिए इस लेख के माध्यम से यह प्रयास किया है कि इसके बारे में जानकारी दे सकें।


ऑटिज्म (Autism Spectrum Disorder - ASD) एक न्यूरोडेवलपमेंटल (मस्तिष्क के विकास से जुड़ा) विकार है, जो व्यक्ति के सामाजिक संपर्क, संचार कौशल और व्यवहार को प्रभावित करता है। इसे "स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर" कहा जाता है क्योंकि इसके लक्षण अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग स्तरों पर हो सकते हैं। कुछ लोग हल्के लक्षणों के साथ सामान्य जीवन जी सकते हैं, जबकि कुछ को विशेष सहायता की आवश्यकता होती है।

ऑटिज्म वाले व्यक्तियों की सोचने, महसूस करने और दुनिया को समझने की प्रक्रिया आम लोगों से अलग हो सकती है। हालांकि, सही सहयोग और समर्थन से वे समाज में प्रभावी रूप से योगदान कर सकते हैं।


ऑटिज्म के लक्षण बचपन में ही दिखाई देने लगते हैं, लेकिन हर व्यक्ति में ये अलग-अलग हो सकते हैं। सामान्यतः यदि अभिभावक जागरूक हों तो बच्चे की डेढ़ साल की उम्र तक इसके लक्षणों को पहचान सकते हैं। कुछ केसेज में बच्चों में रिग्रेशन भी पाया जाता है। उम्र के प्रारंभिक माइलस्टोन समय से पूर्ण करने के बाद अचानक उन्हीं माइलस्टोन में पिछड़ने लग जाते हैं। कई बार ग्रॉस मोटर एक्टिविटीज ( दौड़ना, चलना,कूदना आदि) में बच्चे अच्छे होते हैं पर फाइन मोटर एक्टिविटीज ( लिखना ,होल्डिंग , बटन लगाना आदि) में पीछे रह जाते हैं । हालांकि आवश्यक नहीं कि ऑटिज्म से जूझ रहे हर बच्चे में ये समस्या हो।

इसमें कुछ मुख्य लक्षणों या कठिनाई को हम खतरे के संकेत मान सकते हैं।


ऑटिज्म से प्रभावित बच्चा सामान्यतः 12 महीने की उम्र तक प्रतिक्रिया नहीं देता ।अपना नाम पुकारने पर भी प्रतिक्रिया नहीं देता या बेहद कम देता है।18 महीने तक इशारों या बोलचाल की शुरुआत न होती या दो साल की उम्र तक छोटे-छोटे वाक्य भी नहीं बोल पाता।कई बार अपने ही उम्र के बच्चों को तरह सामान्य कौशल भी नहीं कर पाता।


ऑटिज्म प्रभावित को सामाजिक संचार और बातचीत में कठिनाई होती है। वो आंख मिलाकर बात करने से बचते हैं और उन्हें दूसरों के हाव भाव समझने में भी समस्या होती है। उनके पास शब्द भंडार भी सीमित हो सकता है या शब्द होने पर भी स्थिति अनुसार शब्द / वाक्य चयन में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। जिसके कारण समूह वार्तालाप ,मित्रता करना , या बनाए रखने में तथा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में कठिनाई का सामान करते हैं।कुछ लोग बार-बार एक ही शब्द या वाक्य दोहराते हैं।दूसरों की बातों को समझने और प्रतिक्रिया देने में कठिनाई होती है।भाषा विकास में देरी ऑटिज्म का लक्षण हो सकता है।


इसके अलावा  व्यवहार और रुचियों में विशेषता भी ऑटिज्म का मुख्य लक्षण हो सकता है।

एक ही चीज़ को बार-बार करना जैसे हाथ हिलाना,  किसी शब्द को दोहराना, लगातार ताली बजाना , कूदना , हिलना, आंखों के कोने से लोगों को देखना ,दिनचर्या में बदलाव नापसंद होना , निश्चित दिनचर्या का पालन । नई जगहों और व्यक्तियों से डर,किसी एक विषय या गतिविधि में गहन रुचि ,किसी विशेष पैटर्न के खेल ,गाड़ियों के पहियों , पंखे या किसी घूमती वस्तुओं के तरह ध्यान से और लगातार देखना, किसी भी किस्म की वस्तुओं /खेल सामग्री को सीधी रेखा में जमाना , अपने हाथों या उंगलियों से खेलते रहना ,विशेष ध्वनियों, रोशनी , स्पर्श ,गंध ,स्वाद के प्रति सामान्य से बहुत अधिक या बहुत कम संवेदनशीलता दर्शाना । अकेले रहना या खेलना। संवेदी एकीकरण में समस्या ऑटिज्म का संकेत है। 


कुछ लोग शारीरिक संपर्क  जैसे गले लगाना, छूना, यहां तक कि अलग अलग प्रकार के कपड़े ,टेक्चर या सतहों को छूना भी पसंद नहीं करते या कभी कभी सिर्फ एक खास तरह टच या गंध ही चाहते हैं। इन लक्षणों के अंतर पर हाइपो या हाइपर सेंसिटिव में बांटे जाते हैं।


लक्षणों के बाद  कारण के बारे में जिज्ञासा स्वाभाविक है। हालांकि अब तक कई रिसर्च के बाद भी ऑटिज्म के  ठोस कारण ज्ञात नहीं किए जा सके हैं। बल्कि यह कई कारकों के संयोजन का परिणाम हो सकता है।

इन कारणों में आनुवंशिक कारक, पर्यावरणीय कारक एवं अन्य अप्रत्यक्ष कारक हो सकते हैं।

परिवार में ऑटिज्म के मामले होने पर इसकी संभावना बढ़ जाती है। कुछ जीन और आनुवंशिक परिवर्तन जिसे म्यूटेशन कहा जाता है, ऑटिज्म से जुड़े हो सकते हैं। रिसर्च के परिणामों से यह भी ज्ञात हुआ है कि यदि पहली संतान ऑटिज्म से प्रभावित है तो दूसरी संतान में इसका जोखिम 10% तक बढ़ जाता है।इसी कारण पहली संतान के ऑटिज्म प्रभावित होने पर दूसरी संतान के जन्म के प्लानिंग से पहले जेनेटिक काउंसिलिंग की भी सलाह दी जाती है।


पर्यावरणीय कारण में गर्भावस्था के पूर्व ,दौरान और बाद वाले कारणों को इसके लक्षणों से जोड़कर देखा गया है। गर्भावस्था के दौरान कुछ दवाइयों का प्रभाव, भावनात्मक या शारीरिक अस्वस्थता, नशीले पदार्थों का सेवन , किसी किस्म का संक्रमण ( रुबेला ,हर्पीज आदि), बच्चे के जन्म के समय कम वजन , बच्चे का तुरंत ना रोना ,ब्रेन में ऑक्सीजन सप्लाई बाधित होना या अपगार स्कोर का कम होना ऑटिज्म के जोखिम को बढ़ा सकता है। कुछ लोगों में यह भ्रांति है कि टीकाकरण भी इसका कारण है ,लेकिन यह स्पष्ट किया जा चुका है कि टीकाकरण (Vaccination) का ऑटिज्म से कोई संबंध नहीं है।


कारणों के बाद अगर निदान की बात की जाए तो अन्य बीमारियों से अलग ऑटिज्म का कोई मेडिकल या लैब टेस्ट (जैसे रक्त परीक्षण या स्कैन) नहीं होता, ।इसके परीक्षण के लिए  डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक और विशेषज्ञों द्वारा व्यवहारिक मूल्यांकन ,संचार और सामाजिक व्यवहार का विश्लेषण एवं  कई प्रकार चेक लिस्ट के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है।


यह बात विशेष रूप से ध्यान रखें कि आवश्यक नहीं है कि ऑटिज्म से प्रभावित बच्चे या व्यक्ति का आई -क्यू कम हो बल्कि कई बार सामान्य या  उच्च आई क्यू पाया जाता है । विश्व के कई महान वैज्ञानिक , संगीतज्ञ,अभिनेता ,चित्रकार जिनका आईक्यू सामान्य से ज्यादा था , ऑटिज्म से प्रभावित पाए गए।


ऑटिज्म का प्रबंधन और उपचार की बात करें तो ऑटिज्म का कोई निश्चित इलाज नहीं है, क्योंकि यह कोई बीमारी नहीं है। लेकिन उचित थेरेपी और सहयोग से व्यक्ति की जीवनशैली को बेहतर बना कर ऑटिज्म से कारण होने वाली समस्याओं को काफी हद तक संयोजित किया जा सकता है।इन थेरेपी में मुख्यत: स्पीच थेरेपी; भाषा और संचार कौशल ,संवाद क्षमता सुधारने में मदद करती है।बिहेवियरल थेरेपी; बच्चों को संचार और सामाजिक कौशल सिखाने में मदद करती है।अवांछित व्यवहारों को नियंत्रित करने और सकारात्मक आदतें विकसित करने में सहायक होती है।व्यवहारिक चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार करती है। इसके अलावा रोजमर्रा की गतिविधियों को करने में सहायता देने के लिए ऑक्यूपेशनल थेरेपी और संवेदनशीलता से जुड़ी समस्या के लिए सेंसरी इंटीग्रेशन थेरेपी मदद करती है।

ऑटिज्म एक अंब्रेला डिसऑर्डर है। इसमें कई बच्चों को नींद और भूख से संबंधित समस्या, अवसाद , चिंता , अति सक्रियता का सामना करना पड़ता है। इससे निपटने के लिए कुशल चिकित्सकों के मार्गदर्शन में दवाओं का उपयोग किया जा सकता है। यह याद रखें कि ऑटिज्म के लिए कोई भी दवा नहीं है ।दवाएं सिर्फ कुछ निश्चित लक्षणों तक ही केंद्रित हैं।

यहां यह जिक्र करना भी जरूरी है कि कुछ लोग अंधविश्वास के चलते झाड़फूंक जैसे अनुष्ठान भी करते हैं। अक्सर यह देखा गया है कि झड़फूंक और तंत्र मंत्र के नाम पर बच्चों की अतिसक्रियता को कम करने के लिए नशीले पदार्थों का सेवन भभूत आदि के रूप में कराया जाता है। जिससे बच्चे में सुधार की बजाय स्थिति और बिगड़ती चली जाती है।


सभी बिंदुओं के साथ शिक्षा के बारे में भी बात करना आवश्यक है ।व्यवहारिक शिक्षा से अलग मुख्य धारा शिक्षा में ऑटिज्म वाले बच्चों के लिए विशेष शिक्षा कार्यक्रम चलाए जाते हैं। जिनके लिए विशेष शिक्षकों और विभेदित निर्देशों की सहायता लेनी पड़ती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 2020 में विशेष बच्चों की शिक्षा को सुगम बनाने के लिए समावेशी शिक्षा के अलावा भी कई प्रावधान दिए गए हैं ।


आधी जानकारी , अज्ञानता से भी ज्यादा घातक होती है और वर्तमान में हमारे समाज की यही स्थिति है। लोगों को ऑटिज्म के बारे में आधा अधूरा ज्ञान  या बिल्कुल नगण्य है । सामान्यतः यह भ्रांति होती है कि ऑटिस्टिक व्यक्ति क्षमतावान या प्रतिभावान नहीं होते, वे सामाजिक रूप से जिम्मेदार या उत्पादक नहीं है। इन्हीं  वजहों से ऑटिज्म प्रभावित लोगों का सामाजिक समावेशन अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।


ऑटिज्म कोई बीमारी नहीं, बल्कि सोचने और महसूस करने का एक अलग तरीका है। लोगों के मन में इसके लिए जो भ्रम व भ्रांतियां हैं,उनको सही जानकारी देकर  निवारण किया जाए। यह आवश्यक है इसके लिए जागरूकता फैलाई जाए।हम सभी को चाहिए कि  ऑटिज्म के प्रभावित व्यक्तियों को  स्वीकार करें, उनकी विशेष क्षमताओं को पहचानें , उन्हें  प्रदर्शित करने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में सहयोग दें। स्कूलों, कार्यस्थलों और समुदायों  में ऑटिज्म के बारे में सही जानकारी दी जानी चाहिए।ऑटिज्म वाले बच्चों के माता-पिता को सही मार्गदर्शन और सामाजिक सहयोग मिलना चाहिए।


ऑटिज्म ; अक्षमता नहीं ,बल्कि यह अलग तरह की क्षमता है। प्रशिक्षण और शिक्षा से ऑटिज्म प्रभावित व्यक्ति स्वतंत्र रूप से जीवन जी सकते हैं और समाज में  उतना ही योगदान दे सकते हैं ,जितना कि एक आम नागरिक । समाज में जागरूकता और स्वीकृति बढ़ाकर हम उनके लिए एक बेहतर और समावेशी वातावरण बना सकते हैं।  प्रकृति ने बिना किसी भेदभाव के हमें मानव बनाकर भेजा है , अपने प्राकृतिक संसाधनों पर सभी को समान अधिकार दिया है ,तो हम किस वजह से भेदभाव कर स्वयं की उत्कृष्टता पर प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं। एक मानव होने का ,समाज में स्थान पाने का अधिकार जितना हमें है, उतना ही किसी ऑटिज्म या अन्य अक्षमता से प्रभावित व्यक्तियों का। और उन्हें मुक्त मन से अपनाना , उनका साथ देना ही हमें प्रकृति के  सर्वोत्कृष्ट सृजन साबित करेगा।

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*ऑटिज्म से जुड़े रोचक तथ्य*


1. ऑटिज्म और विशेष क्षमताएँ कुछ ऑटिस्टिक लोग सावंत सिंड्रोम के तहत गणित, संगीत, कला या स्मरण शक्ति में असाधारण प्रतिभा दिखाते हैं। वे डिटेल्स पर ज्यादा ध्यान देते हैं और पैटर्न जल्दी पहचान सकते हैं। किसी पैटर्न या किताबों को शब्दशः याद कर सकते हैं।


2. ऑटिस्टिक लोगों का दिमाग औसत से बड़ा होता है, खासकर बचपन में। न्यूरॉन्स के अलग कनेक्शन के कारण वे चीजों को अलग तरह से प्रोसेस करते हैं। एमिग्डाला और सेरेबेलम की कार्यप्रणाली अलग होने से उनकी सामाजिक और संवेदी प्रतिक्रियाएँ प्रभावित होती हैं।


3.ऑटिस्टिक लोग जानवरों से बेहतर जुड़ाव महसूस कर सकते हैं।प्रसिद्ध वैज्ञानिक टेम्पल ग्रैंडिन ( ऑटिज्म प्रभावित ) ने पशु विज्ञान में नए संचार तरीके विकसित किए।


4. सिलिकॉन वैली में ऑटिस्टिक व्यक्तियों की संख्या अधिक है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, न्यूटन और आइंस्टीन में भी ऑटिज्म के लक्षण थे। Microsoft, SAP और Google जैसी कंपनियाँ ऑटिस्टिक लोगों के लिए विशेष भर्ती कार्यक्रम चलाती हैं क्योंकि वे कोडिंग और डाटा एनालिसिस में माहिर हो सकते हैं।


5. कुछ ऑटिस्टिक लोग हाइपरफोकस कर सकते हैं अतः घंटों एक कम में तल्लीन रह सकते हैं और समय को तेज़ या धीमा महसूस कर सकते हैं।

ऑटिस्म से ग्रस्त लोग किसी विषय में गहरी रुचि लेते हैं, जिसे "स्पेशल इंटरेस्ट" कहते हैं, इन क्षेत्रों में शोध कर उसमें विशेषज्ञ बन सकते हैं।


6. ऑटिस्टिक लोग झूठ बोलने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं, आमतौर पर ईमानदार और सीधा बोलने वाले होते हैं। वे सामाजिक झूठ को समझने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं, जिससे वे कभी-कभी "रूखे" लग सकते हैं।


7. ऑटिस्टिक लोग संगीत के प्रति संवेदनशील होते हैं और परफेक्ट पिच जैसी प्रतिभा रख सकते हैं।


8. नासा के कई वैज्ञानिकों में ऑटिज्म के लक्षण पाए गए हैं, जिससे वे जटिल समस्याएँ हल करने में माहिर होते हैं।


9. ऑटिज्म दिवस और जागरूकता

2 अप्रैल को "विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस" मनाया जाता है।

ऑटिज्म को दर्शाने वाला रंग नीला (Blue) होता है।



✍️ डॉ. मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी

            

गुरुवार, 16 जनवरी 2025

यात्राएं हमें बदल देती हैं।


 (चित्र:- साभार गूगल)


काफ्का और छोटी लड़की कहानी में एक प्रसंग है :- 


*काफ्का ने उसे एक और पत्र दिया जिसमें गुड़िया ने लिखा था: "मेरी यात्राओं ने मुझे बदल दिया है।" छोटी लड़की ने नई गुड़िया को गले लगाया और उसे खुश घर ले आई।*

इन पंक्तियों को पढ़कर लगा कि काफ्का ने गुड़िया के जरिए जीवन की वास्तविकता कही है। यात्राएं हमें बदल देती हैं। यहां यात्रा का अर्थ सिर्फ स्थान विशेष के मध्य भौतिक गति से नहीं ले सकते। जीवन के बढ़ते चरण भी तो एक यात्रा है। एक क्षण से दूर क्षण में जाना, समय का परिवर्तन हमें एक irreversible  यात्रा कराता है। इस दौरान मिले लोग, अनुभव , घटनाएं सच में हमें बदल देती हैं। हम वो कतई नहीं रह जाते जो हम पहले थे। हम प्रतिपल स्वयं में यात्रा कर रहे होते,और प्रतिपल बदल रहे होते। हां कभी ये बदलाव सुख होते कभी दुखद । 

और काफ्का के अनुसार ""हर वह चीज़ जिससे तुम प्यार करती हो, कभी न कभी तुमसे खो जाएगी, पर अन्त में जो लौट कर आएगी और जो तुम्हारे पास होगी, वही तुम्हारे लिए सच्चे रूप में बनी होगी। रूप भले ही भिन्न होगा, पर प्यार एकदम ख़ालिस होगा।"

हममें अंत में क्या बचता ,कई अपेक्षाएं टूट जाती, कभी कुछ नए विश्वास के बंधन जुड़ जाते। हम जो चाहते वो पा नहीं पाते ,जो मिलता वो हमें अपेक्षित भी नहीं होता।जीवन के अंत से बिल्कुल पहले लाख बदलावों के बाद भी जो हमारे लिए अनअन्तिम होता,वही खालिस रूप से हमारा होता... और जीवन की शुरुआत से अंत तक की स्थिति........ हां जमीन - आसमान का अंतर लिए हुए होता। हां सच है यात्राएं हमें बदल देती हैं।


#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका_मिश्रा_त्रिपाठी 

मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

#चरैवेति

 



#चरैवेति 


लीजिये ,ये भी चला ही जा रहा। रोके कब रुकता है.....ये पल,ये जीवन,और ये आवगमन चक्र ही संसार की निरंतरता का पर्याय। आज हम जिसका इंतज़ार कर रहे,वो पल आएगा और पलक झपकते ही वो #गत भी घोषित हो जाएगा। और इन्हीं में हम उत्सवों के अवसर तलाशते। किसी का जाना भी उत्सव का कारण!!!!!!! जैसे मृत्यु आत्मा का अवसान नहीं ,बल्कि जीवन का सतत अंग है। ये निशानी है ,ना ठहरने की.....चलते जाने की..... गुजरते हर पल में गुज़र जाने की......।


अगले पल या पीढ़ी को अपना स्थान देने के लिए खुद से रिताने की प्रक्रिया का माध्यम ......उत्सवों के आह्वान । 

विगत को याद रखने ,आगत के स्वागत के लिए, निरन्तरता के औदार्य प्रश्रय की प्रक्रिया ........ उत्सवों का भान। 


जो जा रहा वो दीर्घ जीवनाक्रान्त #महीनों के बंधनों का अंत है। बिना किसी भूमिकाओं के जिज्ञासाओं का अंत है। कई प्रतीक्षाओं के अधूरे होने पर भी एक निश्चित अवधि का अंत है। किंतु जो समाप्त हो रही वो सिर्फ अवधि ,समय निरन्तर है। नवीनीकृत पुरातनता का मापक - समय ।


ये आपके लिए नवीन हो सकता, किन्तु ये सर्वमान्य नवीन नहीं। कोई अभी इसे रुका मान रहा,तो किसी की चेतना में इसकी अनुभूति नवीन नहीं। कोई व्यवहारिक दृष्टि से अपने संस्करण में इसे नवीन नहीं पाता तो कोई इसे सिर्फ काल  गणना समझता .....। 


जो बीत रहा ,वो सिर्फ एक दृश्य है, दृश्य की सत्यता स्थायी नहीं। स्वयं को दृष्टा के रूप में विलय कर सिर्फ उसकी अनुभूति ही सत्य है और वही जीवन की वास्तविकता और विशेषता। तो प्रतिपल के पुनर्जन्म के साक्षी होकर स्वयं में प्रतिपल नवीन अनुभूति को पुनर्जीवित करते रहिये। आलोकित रखिये जीवन के अनंतपथ को स्वयंप्रभा से। भले ही वो  तिमिर पथ पर आपके चरणों के आगे ही एक मद्धम से प्रकाश से पथ का आभाष प्रस्तुत करे... पर निरन्तर रखिये  ,तरल रखिये ,सरल रखिये। जीवन को बढ़ने दीजिये ....उस पथ पर जो अनंत है। 

शिव ,शिवकारी हों। 

गत  से उत्तरोत्तर आगत की ओर कदम बढ़ाने की शुभकामनाएं 🙏🙏🙏🌹


#ब्रम्हनाद

#डॉ_मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी 

शनिवार, 30 नवंबर 2024

#सन_1824_की_लक्ष्मीबाई - #रानी_चेन्नम्मा


 #महिला_सशक्तिकरण_विशेष 



#देश के इतिहास में जब -जब क्रांति की शुरुआत की बात हुई ,हमने रानी लक्ष्मी बाई को ही अग्रणी माना। पर आप सबको जानकर गौरव मिश्रित आश्चर्य होगा कि ब्रिटिश हुकूमत की #डॉक्ट्रिन_ऑफ_लैप्स (हड़प नीति) के खिलाफ जाकर आज़ादी के लिए ;युद्ध का बिगुल फूंकने के लिए एक ज्वाला सन 1857 से काफी पहले ही #कर्नाटक में धधक उठी थी। इस क्रांति की शुरुआत करने वाली थीं #रानी_चेन्नम्मा । जिन्हें कित्तूर की रानी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है। हालांकि ये सिर्फ हमारे इतिहासकारों का गैरजिम्मेदाराना रवैय्या ही कहा जा सकता कि जो रणक्षेत्र में रानी लक्ष्मीबाई से भी पहले अपना हुनर और गौरव दिखाने वाली रानी चेन्नम्मा को कित्तूर रानी लक्ष्मीबाई की उपाधि दी जा रही,क्योंकि वो तो सन57 से काफी पहले आजादी की लड़ाई की शुरुआत कर चुकी थीं । 


#इस वीरांगना का जन्म काकती जनपद,बेलगांव -मैसूर में लिंगायत परिवार में हुआ था। पिता का नाम - धूलप्पा और माता -पद्मावती थी। राजघराने में जन्म और अपनी विशेष रुचियों के कारण बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारवाजी, तीरंदाजी में विशेष प्रशिक्षण के चलते अत्यंत दक्ष हो गईं थीं। उन्हें संस्कृत, कन्नड़,मराठी और उर्दू भाषा का भी विशेष ज्ञान था। 

#इनका_विवाह_देसाई_वंश के #राजा_मल्लासर्ज से हुआ । ऐसा ज्ञात हुआ कि एक बार राजा मल्लासर्ज को कित्तूर कर आस-पास नरभक्षी बाघ के आतंक की सूचना मिली। जिसे खत्म करने के लिए उसकी खोज के बाद जब राजा ने उसे अपने तीर से निशाना बनाया ,तो उसकी मृत्यु के बाद जब बाघ के नजदीक गए,तब उन्हें बाघ में 2 तीर धंसे मिले। तभी उन्हें सैनिक वेशभूषा में एक लड़की दिखी; जो कि चेन्नम्मा ही थीं। उनके कौशल और वीरता से प्रभावित होकर राजा ने उनके पिता के समक्ष चेन्नम्मा से विवाह हेतु प्रस्ताव रखा।जिसके बाद चेन्नम्मा कित्तूर की रानी बन गई। 

15 वर्ष की उम्र में इन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई ,जिसका नाम - #रुद्रसर्ज रखा। 


#भाग्य ने ज्यादा दिन तक रानी पर मेहरबानी नहीं दिखाई और 1816 में राजा की मृत्यु हो गई। और अगले कुछ ही सालों में उनके पुत्र की भी असमय मृत्यु हो गई। कित्तूर का भविष्य अंधेरे में दिखने लगा। इसके बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी 'हड़प नीति' के तहत उसको स्वीकार नहीं किया और शिवलिंगप्पा को पद से हटाने का का आदेश दिया। यहीं से उनका अंग्रेजों से टकराव शुरू हुआ और उन्होंने अंग्रेजों का आदेश स्वीकार करने से इनकार कर दिया।उन्होंने बॉम्बे के गवर्नर #लॉर्ड_एल्फिंस्टोन को पत्र लिख कर शिवलिंगप्पा को उत्तराधिकारी मानने का अनुग्रह किया। पर उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई। 


#अंग्रेजों की नीति 'डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स' के तहत दत्तक पुत्रों को राज करने का अधिकार नहीं था। ऐसी स्थिति आने पर अंग्रेज उस राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लेते थे। रानी चेन्नम्मा और अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध में इस नीति की अहम भूमिका थी। १८५७ के आंदोलन में भी इस नीति की प्रमुख भूमिका थी और अंग्रेजों की इस नीति सहित विभिन्न नीतियों का विरोध करते हुए कई रजवाड़ों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। रानी चेन्नम्मा पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने अनावश्यक हस्तक्षेप और हड़प प्रणाली को लेकर अंग्रेजों का मुखर विरोध किया था।

#अक्टूबर 1824 को ब्रिटिश सेना के 400 बंदूकधारी और 20,000 सैनिक ने कित्तूर की घेराबंदी की। पर रानी चेन्नम्मा इस हमले के लिए पहले से तैयार थीं। 

अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में रानी चेन्नम्मा ने अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया फलस्वरूप ब्रिटिश सेना की करारी हार हुई और उन्हें युद्ध छोड़कर भागना पड़ा। इसमें 2 अंग्रेज अधिकारियों को रानी ने बंदी बना लिया था। बाद में अंग्रेजी हुकूमत को इस शर्त पर दोनों अधिकारी सौंपे गए कि वो अब कित्तूर पर आक्रमण नहीं करेंगे और न ही अधिकार में लेने की चेष्टा। 


#हालांकि ब्रिटिश हुकूमत ने वादाखिलाफी करते हुए कुछ समय बाद दोबारा आधुनिक हथियारों और सैंकड़ों तोपों के साथ कित्तूर पर दोबारा चढ़ाई की। ये युद्ध कुछ महीनों तक खिंचा। किले के अंदर हर तरह के साधनों की आपूर्ति खत्म होने लगी थी। इस बार रानी लंबे समय तक अंग्रेजी सेना का मुकाबला नहीं कर सकी। और रानी युद्ध हार गईं। उन्हें कैद कर 5 वर्ष तक #बेलहोंगल किले में रखा गया जहां उनकी 21फरवरी 1829 को उनकी मृत्यु हो गई।

इस तरह भारत के गौरवशाली इतिहास की एक महान सेनानी के जीवन का अंत हुआ। 

 

#रानी चेन्नम्मा के जीवन का अंत भले ही हो गया पर उनके आदर्श और इतिहास को जीवंत रखने के लिए #कर्नाटक के #कित्तूर तालुका में प्रतिवर्ष #कित्तूर_उत्सव मनाया जाता है। जो कि ब्रिटिश सेना से हुए पहली युद्ध में जीत प्राप्त करने के बाद से ही मनाने की परंपरा थी। ★11सितम्बर 2007 को तत्कालीन राष्ट्रपति माननीय प्रतिभा पाटिल जी ने संसद परिसर में इनकी मूर्ति का अनावरण भी किया था। इस पर भारतीय डाक विभाग ने एक डाकटिकट भी जारी किया था। बैंगलोर से कोल्हापुर जाने वाली एक ट्रेन का नाम भी #चेन्नम्मा एक्सप्रेस रखा गया। इसके अलावा इनकी जीवनी पर बी. आर. पुन्ठुलू द्वारा निर्देशित एक #मूवी #कित्तूर_चेन्नमा भी आ चुकी है। 


#अफ़सोस होता है कि हमारे इतिहासकारों अपने पूर्वाग्रहों के चलते हम तक इन महान क्रान्ति वीरों /वीरांगनाओं के नाम तक भी न पहुंचने दिए। कुछ गलती हमारी भी कि हमने अपने इतिहास को सिर्फ पास होने के लिए एक विषय तक ही सीमित कर दिया। कभी खोज की होती तो शायद पहले जान जाते कि सिर्फ रानी लक्ष्मीबाई नहीं ,बल्कि उनसे पहले,और कई सामयिक वीरांगनाओं ने आजादी की लड़ाई में खुद को समर्पित कर हमारे लिए नींव बनाई।

#ब्रह्मनाद 

#डॉ मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी 

शनिवार, 16 नवंबर 2024

सुबह -ए - अवध और शाम -ए - बनारस



 


जानती हूं ये पंक्ति उलट पलट की गई लग रही हैं।पर मै इसी क्रम में थी इन जगहों पर। इस दीवाली के पहले के कुछ दिन हमारे धर्म और आस्था में अग्रणी स्थान रखने वाले दो शहरों में बीते। बुजुर्ग कहते हैं कि अवध ( अयोध्या ) की शाम और बनारस की सुबह कभी नहीं भूली जा सकती..... आखिर क्या है इस सुबह और शाम में.... ? हालांकि मैं यहां उल्टे क्रम में थी,तो मैं अपना अनुभव लिखूंगी। 


सरयू से लेकर गंगा तक सूर्य की यात्रा ..... सरयू के घाट असीम शांति से पूर्ण होते हैं यहां आप खुद में कोई प्रश्न नहीं करते । शांत ,स्थिर और ठहरी सी प्रतीत होती जलधारा, आस पास विचरती वानर सेना जैसे राम का चरित्र उन लहरों में समा गया हो ,जिसने जन्म से समाधि तक राम को खुद में पाया.....। अयोध्या आपको विचलित नहीं करता , धीर गंभीर अनुभव होता है यह शहर। हां बिल्कुल राम की तरह, स्थिति चाहे जो भी हो एक सी गति , और स्थिर भाव वाला अवध यानि कि अयोध्या। दीवाली के लाखों दिए और अनगिनत पटाखों की ध्वनि भी शांत ही लग रही थी। क्यों... जरा "राम" बोल कर अनुभव कीजिए....हृदय में गहरे उतरते भाव ,धीर -गंभीर ,हर स्थिति में विचलन से बचती, मर्यादा से परिपूर्ण छवि आपको स्वयं ही महसूस हो जाएगी। संभवतः उत्तर आपको मिल रहे होंगे।


चलते हैं बनारस..... शिव के चरित्र को सोचिए अब दो विपरीत ध्रुवों ,आचरण ,विचार , गुण का मिलन जिस पर हो जाए ,वही शिव हैं। वो भोले हैं तो रुद्र भी।वो संन्यासी हैं तो एक ओर संसारी भी। वो श्मशान में बसे तो दूसरी ओर कैलाश पर परिवार बसाए। जब योगी हुए तो संसार उन्हें ना ढूंढ पाए ,जब लीला में आए तो मोहिनी  (विष्णु) भी उन्हें लुभावनी लगी। वो पत्नी के लिए संसार भुला सकते, तो वो उसके बिना ब्रह्मचारी भी हुए। प्रसन्न तो औघड़ दानी, क्रोध में तांडव भी करते..... वो आदि भी हैं और अंत भी । यही छवि बनारस शहर के चरित्र में दिखती। शहर एक है पर उसमें दो आत्माएं वास करती ।नया बनारस और पुराना काशी.... शिव के दो रूपों सा। पतली तंग कुलिया.... फ्लाई ओवर से फैलाव लेता बनारस.. ।अल्हड़ ,आह्लादित बोली और खाना तो दूसरी ओर आधुनिकता की ओर बढ़ता बनारस। 

कहते हैं बनारस में रस है..... सत्य है आपको व्याकरण के माध्यम से ज्ञात और अनुभव होने वाले हर रस अनुभव होते हैं।मैने माता गंगा में सफर शुरू किया नमो घाट की ओर से ....आधुनिक , सुविधासंपन्न घाट से शुरू हुआ सफर.... गंगा के पानी की धारा के विरुद्ध हुई यात्रा आगे बढ़ते हुए कई घाटों के दर्शन कराते हुए जा रही थी। जिसमें खुशी भी थी ,उत्सुकता भी, रोमांच भी। कुछ सुना हुआ था, कुछ अनदेखा भी...। पर वास्तविकता सदा छवि या सुने अनुसार नहीं होती, बनारस में महसूस हुआ। रोमांच की जगह एक स्तब्धता ने ले ली जब शव जलवाहन दिखा.... ,उसके बाद एक सफेद कपड़े में लिपटी मृत देह जो मोक्ष की प्राप्ति की ललक में गंगा के सानिध्य में तैरती दिखी। 

कई अलग अलग घाट जो देश के अलग अलग क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे...जिसमें मध्यप्रदेश का बहुत ज्यादा प्रतिनिधित्व दिखा। इन सब कोलाहल में आगे बढ़ते मन में वही तैरती हुई मृत देह ही भारी पड़ रही थी। और उसी समय सामने आया : #मणिकर्णिका। 


एक ऐसा सत्य जिसका सामना हर मनुष्य से होगा,कई बार उसके जीवन में ,और अंतिम बार जीवन के बाद । मणिकर्णिका वास्तव में बस घाट नहीं है, यह एक संदेश है कि जीवन एक पथ है,जिसका गंतव्य मृत्यु है। इस पथ में जीवन के सारे रस आते हैं, जिनको सत्य मान कर हम गंतव्य से डरने लगते। इस घाट को देखकर समझ आया कि मृत्यु भी एक कर्म है जो अनिवार्य है। चंडाल के भावहीन चेहरे और तेजी से चलते हाथों और क्रियाकलापों ने समझा दिया कि काया बिना जीव के किसी अर्थ की नहीं, जब तक हममें जीवन है तभी तक हम सार्थक । पथ के अनुभव ,कार्य ही महत्वपूर्ण होते। गंतव्य पर पहुंचने के बाद जो शेष होता वो यह कि हमने किनको खुद से जुड़ी ऐसी स्मृतियां देने के कारण दिए कि हमारे बाद सदभाव और सुख से हमें स्मरण करे। हम क्या थे,क्यों थे, सारे भाव ,सारे रस इस मणिकर्णिका में आकर समाप्त हो जाते हैं।

हां बनारस में रस है..... जो मोह से मसान तक के सत्य के बीच का पथ है। जीवन मोह और माया के बीच झूलता है,पर अगर इसमें कर्तव्य भी सम्मिलित हो तो मसान हमें डराता नहीं, बल्कि संतुष्टि देता की हां इस देह में जीव के रूप में हमारी यात्रा सार्थक रही है। मैं भी बनारस के इस रूप से विशेष रूप में सम्मोहित हुई, जहां एक घाट में जीवन के उत्सव सजे हुए थे और दूसरे घाट में मुक्ति के साधन। 

मैं अपनी बिटिया का चेहरे के नेपथ्य में देख रही थी,जलती हुई चिताओं की अग्नि की लाल ,पीली और नारंगी आभा को। मोह के पीछे मसान दिख रहा था। 

समझ आ रहा था कि क्यों हम मानवों के लिए विश्वनाथ ने मोक्ष के लिए यह स्थान दिया । यहां एक कदम पर मोह से मसान तक हम माप सकते हैं। 


मणिकर्णिका मृत्यु का पर्याय नहीं है। यह पर्याय है जीवन की संतुष्टि की, देह की मृत्यु होती है ,आत्मा की नहीं। आत्मा अगर संतुष्ट तो काल चक्र के जीवन मृत्यु के क्रम से बाहर निकल जाती। अगर अपने जीवन में हर रस ,हर कर्त्तव्य को हमने अगर पूर्ण निष्ठा और सत्यता से जिया तो मोक्ष मिलना अनिवार्य है। गंतव्य तक पहुंचने पर यदि हम संतुष्ट हो जाते तो देह का मोह वापस हमें इस चक्र में नहीं लाता। यही पूर्णता ; काशी / वाराणसी / बनारस का मूल है। 


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते,

 पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते,

 ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।


#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका 

बुधवार, 13 नवंबर 2024

स्वाधीनता: एक दृष्टिकोण


 

स्वाधीनता केवल सामाजिक गुण नहीं है। यह एक दृष्टिकोण है,व्यक्ति के मानस की एक दशा। हम कहते हैं कि समाज हमें स्वतंत्रता नहीं देता; पर समाज कैसे दे??? हमीं तो अपने दृष्टिकोण से समाज बनाते हैं। मैं अपने आप को किसी विशेष नियम से बद्ध नहीं मानती। मेरा  मन स्वाधीनता पर कायम है। वो कहाँ मानता है ,हमारे ही बनाए ; छद्म आवरण से ढके ,मौखिक किन्तु मान्य नियम ,जो समाज के रूप में हम भी दूसरों पर आरोपित करते हैं। 

तो क्यों ना मैं अपने प्रयासों के लिए सजग होऊं। सफलता......??? मिलेगी या नहीं!!!! क्यों नही जब स्वाधीन मन से ईमानदार प्रयास होंगे तो क्या जग में कुछ ऐसा है, जो नही साबित किया जा सकता, जो अप्राप्त रह जाए। 

बस उस वक़्त याद रखना होगा कि कहीं स्वाधीनता सिर्फ दिखावा ना बन जाए। मन से उस स्थिति को उतनी ही दृढ़ता से महसूस करना अनिवार्य होगा,जितना कि जीवन और उसके बाद मृत्यु का क्रम। उसके लिए समाज के नियमों की ओर नहीं ताकना होता। वो अपरिहार्य है, अनिवार्य भी, अजेय भी  और किसी अन्य चरण द्वारा अनाधिकृत भी ।


 मन को आकाश करना सरल है। पर उस आकाश पर यकीन करना उतना ही दुष्कर। निश्चित तौर पर हम स्वयं की मान्यताओं को नकारेंगे। खुद से लड़ेंगे, खुद के अंदर एक समाज को जन्म देकर स्वाधीनता से डरेंगे। पर स्वाधीनता तो आत्मा है ,आसमान है ,वो भाव जो नियमों से परे भी अस्तित्व में है ,और सत्य भी है। तो गर उस सत्य को महसूस करना है तो तोड़ने होंगे स्व - प्रतिबंध, महसूस करना होगा आत्मा को , विचार को , अनुभूति को एक बन्द दायरे से परे होकर । खत्म करना होगा मैं को "अहम्" में जगाने के लिए। क्योंकि सत्य तो यही है कि #अंत_ही_आरम्भ_है। 


#अहम्_ब्रम्हास्मि 🙏🙏

#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी 


बुधवार, 6 नवंबर 2024

ख्वाहिश का तारा


 


सुनो हर दीवाली जब तुम मुझे करीब पाना चाहते हो। मेरे नाम का एक दिया जला लिया करना। यकीन मानो मैं बुझते बुझते भी तुम्हारे आस पास रोशनी रखूंगी। और एक दिया और जलाना मेरे ही नाम का।उसको आकाशदीप बना कर छोड़ देना दूर गगन की यात्रा में। जीवन की ज्योत खत्म होने के बाद मैं किसी सितारे का रूप लेकर उसमे जगमगाऊंगी। हर रात मैं तुम्हें देखा करूँगी,और कभी किसी रोज जब दुनियावी रोशनी तुम्हें उकताने लगे तो कहीं किसी नदी या तालाब के किनारे चले आना। मैं झिलमिलाती हुई तुमसे खामोशी से बातें करूँगी। और इन अनगिनत तारों की छांव में दूंगी तुम्हें हर रात एक पुरसुकून नींद का वादा और जब वो पूरा होगा तो सुबह तुम्हें सूरज की सुनहरी किरण हल्के से छूकर तुम्हें जगाएँगी।हां तब मैं तुम्हें नजर न आऊंगी, पर मैं इस उजली रोशनी के घूंघट तले तब भी तुम्हें देखती रहूँगी,अनवरत,अनंत तक,मेरे अंत तक।

🌠#मैं_तुम्हारी_ख़्वाहिश_की_तारा

#ब्रह्मनाद

@डॉ मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी 

शुक्रवार, 31 मई 2024

Happy birthday पापा


 

जन्मदिन की शुभकामनाएं पापा,

हम उस पीढ़ी के नहीं थे ,जहां पापा को गले लगाकर , किस्सी देकर ,लव यू बोल कर विश किया जाए। हमने तो अपने बड़ो के जन्मदिन में कभी केक भी नहीं काटे। बचपन में कभी आपको जन्मदिन मनाते देखा या सुना ही नहीं। 

जानती हूं आपने जितने संघर्षों से जीवन शुरू किया और जिया ,हम लोगों के लिए साधन -सुविधाएं जुटाई ,उस बीच में जन्मदिन याद रखके सेलीब्रेट करना आप लोगों के लिए बेमानी था। मेरी स्मृति में जो बातें नहीं थीं वो घर के बाकी लोगों ने बताया कि आपको मेरा 1 सेकंड भी रोना नहीं देखा जाता था,और बचपन में आपसे ज्यादा करीब थी। बड़े होते होते कुछ दूरियां बन गई ,क्योंकि जितना संघर्ष आपने जिया कहीं ना कहीं वो आपके बच्चों की अतिरिक्त सुरक्षा भावना में बदल गया।तब समझ नहीं आता था, वो हमें पीढ़ियों का अंतर लगता था,वो दरअसल अंतर नहीं था ,आपकी वो भावना थी ,जो आपको अपने बचपन में जीने को नहीं मिली। आप एक सुरक्षा आवरण बनाना चाहते थे और हमें लगता आप रोक टोक कर रहे। 



बहुत सी बातें ऐसी है जो आपसे चाह कर भी सामने बैठ कर नहीं बोल पाऊंगी ,पर जब जब जीवन में पीछे मुड़ कर देखती उनका एहसास आंख नम करता। हम आपको नहीं जता पाएंगे कि आपने हमरे लिए कितने त्याग किए,पर यकीन मानिए आपकी नातिन के आने के बाद मुझे ये एहसास तीव्रता से होता की दुनिया में मां बाप जितना त्याग कोई नहीं कर सकता। मां जहां रोकर , गले लगाकर सब जता जाती, पिता चुप रहकर ; बच्चों की इच्छाओं के लिए अपनी चाहते मारकर उन सुविधाओं को जुटा कर पूरा करता। जीवन के लिए मां पृथ्वी की तरह आधार बनती, तो पिता आकाश की तरह छाया रहता।

आज के इस विशेष दिन में ईश्वर से यही मनाऊंगी कि आपके जीवन के बचे हुए सपने पूरे हो और आप एक लंबी स्वस्थ आयु जिएं।मुझे आपके जीवट पर गर्व है।🤗❤️🎂

#आपकी गुड़िया 

#ब्रह्मनाद

#डॉ_मधूलिका 

बुधवार, 22 मई 2024

चाय और तुम


 

#ख्याल

चाय और तुम्हारा साथ .....दुनिया में इससे बेहतर सुकूं शायद ही मुझे दोबारा नसीब हो। किसी गहरी घाटी की किसी अंतिम छोर पर टेंट लगाकर जतन से जुटाकर लाई गई कुछ सूखी लकड़ियों और पत्थर के ढेरों से बनाए गए चूल्हे पर चढ़ी हुई चाय....।


 हल्की ठंडक का एहसास.... मुँह से निकलता धुंआ और आँखों में बरसों से ठहरी नमी रहकर रहकर बाहर निकलने को बेताब..... उन लकड़ियों की आंच से तुम्हारा दिव्य चेहरा लाल सा दिख रहा। जैसे अभी किसी युद्ध से तपकर लौटे हो और शौर्य अब तक उबल रहा हो। पर तुम्हारी आंखे मासूमियत के साथ मुझे और उबलती चाय को तक रही हैं। एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ है। तुम होंठों को हिलाने की नाकाम कोशिश कर ,चुप हो रहा जाते।जैसे बोलना बहुत कुछ हो ,पर छोर न मिल रहा हो। 


मैं तुम्हारी आँखों मे ही खोई हुई हूँ। तुम चेहरे और आँखो के इशारे से मुझसे पूछते.... क्या हुआ ।और मैं सर डुलाकर मना कर फिर चाय को ताकने लगती। अंदर एक शोर से है। इस मुलाकात से पहले क्या क्या नहीं सोचा था। ढेर बात करूँगी ,ढेर सवाल .... कुछ शिकायतें।और अब जैसे उस शोर को अंदर के निर्वात ने ग्रस लिया। 


तुम्हारी आंखें और हाँथ मेरी नजरें रह रह कर इनपर टिक जाती। हां बस इनसे ही तो मेरा परिचय हुआ था। चेहरे से नहीं।वो ही मुझे मेरे लगे... मुझे यूँ ताकते पाकर तुम्हारे होंठों पर मुस्कान खेल जाती और मैं झेंप कर उन जलती लकड़ीयों को खोतने लगती। तुम धीरे से मेरे पास सरकते और मेरे हांथ को अपने हांथों में लेकर दबा लेते।जैसे मुझे यकीन दिला रहे हो...हां ये मैं ही हूँ। उस ठंडक वाले एहसास में तुम्हारे हांथों की नरमी और गर्मी मुझे अंदर तक सिजा रही है।


अचानक चाय खौलती और जलने की मीठी सी खुशबू हम दोनों ने नाक में समाती। हल्के धुएं से आंखें लाल और आंसू भरी हो जाती ,जिनकी आड़ में मैं अपने आंसुओं को भी पोछ लेती।


छान कर चाय की गिलास तुम्हारे हांथों में पकड़ा देती।जिसे तुम जैकेट की आस्तीन पंजों तक खींचकर उसके बीच पकड़ लेते। पहला घूंट लेने के लिए मैं गिलास को थामे तुम्हारे हांथों को तुम्हारे होंठों की ओर करती और एक चुस्की के बाद मैं चुस्की लेती।

वो बड़ी सी गिलास से 2 चुस्कियों के बीच हम दोनों चुप्पी में भी ढेर बातें कर ले रहे। तुम्हारे होंठों को छूने के बाद जब गिलास मेरे होंठों तक आती तो मानो तुम्हारा मन उमड़ कर उस एक चुस्की चाय में पिघल जाता।चाय की खत्म होने वाली अंतिम चुस्की मैं तुम्हें ही पीने को देती,कहते हैं खाने पीने का अंतिम घूंट और कौर ,तृप्ति का होता है। मैं वो तृप्ति तुम्हारे नाम कर देती हूँ। 


मेरे जीवन की क्षुधा तुम हो, मेरे आत्मा की प्यास तुम हो .... और उससे तो मैं कभी तृप्त ही नहीं हो पाऊंगी। मैं घूंट घूंट अपनी आंखों से तुम्हें पी रही हूँ। मेरी आत्मा तृप्त होने की बजाय और क्षुधातुर हो रही है। 

हम दोनों उठ खड़े हुए तुमने अपनी बाहों के सहारे मुझे जमीन से कुछ ऊपर उठा लिया।देखा आज मेरे पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे। तुम्हारे होंठों पर अपने होंठ रख मैं आंखें बंद कर लेती हूँ।और आंसुओं की दो जोड़ा धार उस निर्जन में भागीरथी से भी प्रचंड तरीके से बह निकली। 

उद्वेग काबू करके एक दूसरे के माथे पर बोसा रख तुम वापस मुझे जमीन के हवाले कर देते। तुम्हारे बलिष्ट हांथों से होते हुए मेरा चेहरा तुम्हारी हथेलियों में समा गया। जिन्हें मैं नेमत समझ कर चूम रही हूँ। आंखें आखों में कैद हो गई है। हम दोनों अपने अपने रास्तों के रुख करते । बस इतना हो बोल पाते .....अपना ख्याल रखना।

मैं पहले नहीं मुड़ सकी.... इसलिए तुम एक झटके से मुड़ कर तेज़ कदमों से निकल गए।मैं वहीं खड़ी देखती रही जब तक तुम्हारा अक्स् ओछ्ल न हो गया। 

ये मेरी अंतिम चाय थी....उस वक़्त तक के लिए जब तक तुम दोबारा मुझे नहीं मिल जाते। हर शाम की चाय की चुस्कियों से एक के होंठों से दूसरेके होंठों तक चुप सी बातें करने को।

#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका 

रविवार, 19 मई 2024

ये कैसी आस्था!!!!!


            (   छायाचित्र साभार - गूगल इमेज  )


अखबारों और टीवी चैनल में लगातार खबरें आ रही थी की यमनोत्री, गंगोत्री और केदारनाथ ,बद्रीनाथ धाम पर भूस्खलन और कई किलोमीटर लंबे जाम लगे हुए । बुजुर्गों बच्चों सहित सभी को समस्या हुई। 

लोगों की शिकायत प्रशासन से थी…पर क्या ये शिकायत उचित थी? 


जब मैं छोटी थी, मुझे याद है हमारे गांव से चार धाम यात्रा का जत्था रवाना हुआ था। उसमे सभी बुजुर्ग थे ,उम्र ६० साल से ज्यादा। जब वो रवाना हुए गांव के लोग उन्हें गांव की सीमा तक विदा करने आए । भेंट किए कुछ महिलाएं रो भी रही थी।

मेरा मन बहुत से प्रश्न किए जा रहा था। घर लौट कर अपनी दादी से पहला सवाल दागा ,दादी वो लोग तो चार धाम जा रहे, फिर रो क्यों रहे,ये तो अच्छी बात है ना घूमना फिरना? दादी का जवाब मिला गुड़िया जब हम अपने सारे कर्तव्य पूरे कर लेते जैसे बच्चों की पढ़ाई लिखाई ,शादी , नाती पोते तब चार धाम यात्रा करते । और ये यात्रा इतनी कठिन होती कि इससे वापस लौटना, ना लौटना भी निश्चित नहीं होता।कई तो अपने अंतिम समय तक वहीं रहते। 

मैने दूसरा सवाल की बूढ़े बस क्यों गए?

दादी ने बताया कि जब परिवार से जुड़े सारे काम हो जाते तब इस उम्र में मोह त्याग करके भगवान के दर्शन को जाते। इसलिए जवान लोग नहीं जाते, और यात्रा भी इतनी कठिन की जीवित लौटना कई बार असंभव होता। इसलिए जवान लोग नहीं जाते ।वो कोई घूमने की जगह थोड़े ना हैं, वो तो संसार भोगने के बाद मुक्ति का धाम है।

खैर मेरे मन में भी TV मूवी या तस्वीरें देख कर इन जगहों पर जाने का मन हुआ पर पता नहीं क्यों ये भीड़ मुझे डराती रही।

तो वापस आते हैं की प्रकृति का ये तांडव इन जगहों पर अब कुछ ज्यादा ही हो रहा। 

तो जरा सोचिए ,जहां पहले बहुत सीमित संख्या में लोगों का आना जाना था तो संसाधन पर इतना जोर नहीं पड़ता था जितना आज लाखों की संख्या में पहुंचने पर ।

तब हम पैदल या प्राकृतिक साधनों से ही यात्रा करते थे ,बहुत कम गाडियां चलती थी,आज हम गाडियां तो  गाडियां ,हेलीकॉप्टर लेकर घूमने जाते…. घूमना ही कहूंगी क्योंकि आपने दर्शन को पर्यटन बना दिया और वहां जाकर भी दर्शन कम रील्स और तस्वीर लेने में ज्यादा ध्यान लगा देते। पहले जो चार धाम हमारे कर्तव्यों को पूरा करने के बाद मुक्ति की राह होते थे ,वो अब हमारी छुट्टियों की बकेट लिस्ट का एक हिस्सा बन कर रह गए हैं।

प्रकृति सदैव वही देती जो हम उसे देते। हमने उसे अतिरिक्त अकारण भार दिया ,जो वो अपने तरीके से लौटा रही है। 

तकनीकी ने लोगों की हर जगह पर दखल बढ़ा दी है। पर इसका अर्थ ये नहीं की हम साधन को सुविधा से बढ़कर विलासिता बना लें। हम जाते दर्शन करने पर हमारा कार्बन उत्सर्जन उस धाम के पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचाता क्या इससे बेखबर हैं। 

प्रकृति तो अपना संतुलन कायम करेगी ही। हम बस दोहन कर रहे , लौटाने के मामले में अपना खाता देखेंगे तो नकारात्मक स्तर पर ही जाएगा।

देखा जाए तो हम मानव दुनिया में पैदा हुए जीवों में सबसे स्वार्थी होते हैं। हम ईश्वर को भी अपनी सुविधा अनुसार ही पूजते । अगर हमारी श्रद्धा वास्तविक है तो हमारा सबसे पहला कर्तव्य ये होना चाहिए कि जिस स्थान पर हमारे आराध्य का धाम ,हमारी ओर से उस स्थान को कोई क्षति ना पहुंचे। हम अपने ईश्वर के घर को ही प्रदूषित ( पर्यावरणीय , सांस्कृतिक)  कर कौन सा पुण्य अर्जित कर रहे,ये मेरी समझ से परे है। 

खैर इस बीच मोबाइल रील्स बैन होने की खबर कहीं ना कहीं सोशल मीडिया की दिखावे वाली भेड़ भीड़ से कुछ तो राहत दिलाएगी। 


# ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका 

रविवार, 12 मई 2024

हमारा मदर्स डे


 


सच कहूं तो मुझे अंग्रेजी वाला मदर डे कभी समझ ना आया।जब तक खुद मां नहीं बनी, उसके बाद समझ आया की इस दुनिया में बीज के रूप में आने के बाद से बच्चे का हर दिन मदर्स डे ही होता है। अगर रिश्तों को सैलरी देने का रिवाज होता तो "मां" जितनी सैलरी इस दुनिया में किसी को नहीं मिलती।ना जाने कितनी भूमिकाएं एक साथ निभाती, बिना जताए की वो खुद को ही हमारे लिए भूल सी जाती। 

साहब हम उस जमाने की पौध हैं ,जिन्हें मां ने जी भर के डंडों और झाड़ू से भी कूटा है 🤭 और बिना दिन विशेष सेलिब्रेशन के  मां का महत्व जिया है। खास बात  ये कि मां के द्वारा पीटे जाने पर  हमें चुप नहीं कराया जाता था , बल्कि ना चुप होने पर फिर से कूटा जाता था। उस समय  PTM में टीचर से शिकायत नहीं होती थी, बल्कि टीचर घर आ कर शिकायत करके फिर मां के हांथ तबियत से पिटवाते थे। 


#हम तब ग्रीटिंग, गिफ्ट और केक देकर ,

एक दिन को मां को समर्पित नहीं कर पाते थे, 

पर हां जिस दिन मां उदास हो  उस दिन ,

हम बिन बोले सारे काम समय से निपटाते थे,

अपने कपड़े - किताबें बिना टोके,

सही जगह जमा जाते थे। 


घर पर जिस दिन मां की डांट नहीं खाते थे,

उस दिन की शांति हमें अन्दर से डराती थी।

उस दिन खाना मां बिना कुछ पूछे ही बनाती थी।

दिन भर छोटी बातों पर भिड़ते हम बच्चे भी,

उस दिन कुछ ज्यादा ही अनुशासित बन जाते थे। 

मां गुस्सा है या दुखी है ,

कुछ समझ नहीं पाते थे।

मां से जाकर पूछ पाएं उनकी तकलीफ,

कभी भी वो हिम्मत जुटा नहीं पाते थे,

पर चुपचाप काम में लगी मां की आंखें देख,

हम बच्चे सब समझ ही जाते थे।

दिन भर कई बड़ों के ताने  सुनकर भी, 

पीड़ाएं चुप से आसुओं में बहा जाती थी।


कभी - कभी पापा को वो भी,

साड़ी ना दिलाने का ताना  दे जाती थी, 

पर जब हांथ में पैसे आए तो ,

कई जगह उन्हें छुपाती थी।


लाख हसरतें उसकी भी थी लेकिन,

पर अपने लिए कहां कुछ ले आती थी। 


चुपके से जोड़ के जमा किए पैसों से,

कभी हम बच्चों की यूं ही की फरमाइश , 

कभी राशन, कभी बिजली का बिल ,

कभी मेहमानो के खर्चों की ,

छोटी बड़ी कीमतें चुकाती थी, 

हां पर कभी पड़ोसन की नई साड़ी देख ,

थोड़ी सी ललचाती  भी थी। 

पर बच्ची की नई फ्रॉक या,

 बेटे की वो चमचम साइकिल ,

 वो साड़ी भी ज्यादा सुख पाती थी। 


हां सच है ,

कि जिस दिन हम उससे पीटे जाते थे ,

वो हमसे ज्यादा आंसू बहाती थी।

 रात को फिर हमारी पसंद का कुछ,

 विशेष व्यंजन बना आवाज लगाती थी।


हां ये सच है कि,

मेरी मां  टेक्नोलॉजी में थी थोड़ी अनाड़ी, 

स्मार्ट फोन और कंप्यूटर की नहीं थी उनको जानकारी।


एक छोटी सी मोटे गत्ते वाली डायरी में,

कुछ खास अवसरों की तारीखें लिखी जाती थी, 

फिर उन तारीखों में सुबह सुबह से,

वो बस  रसोई में पाई जाती थी।


तब सेल्फी में मुस्कुराने के जमाने नहीं थे ,

वो सबकी खुशियां ही अपने चेहरे में सजाती थी।

सबको भरपेट खिला और पड़ोस में भिजवा कर ही

मां के मन को एक विशेष तृप्ति आती थी।


हां ये सच है की ,

हमने मदर डे एक दिन में पहले कभी मनाया नहीं था,

क्योंकि मां हमारी हर दिन को त्यौहार बनाया था।


#ब्रह्मनाद

#डॉ_मधूलिका

शुक्रवार, 10 मई 2024

#मैं _कबाड़ी


 


#मैं_कबाड़ी 


मां मुझे कबाड़ी कहती थीं…. वैसे सच कहूं तो हूं ,अब भी 😊। इस शब्द के पीछे मेरी छोटी -छोटी पुरानी चीजें सहेज कर रखने की आदत थी ।पुरानी चिट्ठियां ,किसी सहेली का दिया हुआ बिना ढक्कन का सूखी स्याही वाला पैन, किसी सहपाठी की हैंडमैड ग्रीटिंग , कुछ छोटे छोटे तोहफ़े,जो न तो उपयोग किए गए और न ही अलग किए गए, एक पुरानी स्लैम बुक ,जिसकी लिखावट पेज के पीलेपन के साथ कहीं गाढ़ी और कहीं धुंधली सी होने लगी, किसी कॉपी के पेज की किनार फाड़ कर लिखा हुआ ट्रांसफर होने वाली सहेली का एड्रेस ,डायरी में दबे कुछ सूखे फूल ,कुछ मोर पंख और एक खास पेड़ की सूखी पत्ती;जिसे विद्या कहते, पहला स्क्रेच किया हुआ रिचार्ज कूपन , पहले बोर्ड एग्जाम में लगी पासपोर्ट साइज फोटो, एक पन्ने- पन्ने अलग हो रही पर सहेज कर रखी डायरी, कुछ अदला बदली कर मिले हुए स्टीकर ,हांथ से बनाई गई राखी, रंगोली के बिंदुओं के मिला कर बने कुछ डिजाइन और मेंहदी के भी डिजाइन ,गुड़िया के कपड़े , पीतल की नथ बेंदी जो पहली बार स्कूल एनुअल डे में डांस परफॉर्मेंस में पहनी थी,एक कढ़ाई किया रुमाल ,एक क्लिप जिसकी जोड़ी खोने के बाद भी वो फेंकी ना गई। 

कुल मिलाकर बचपन की मेरी यही जमा पूंजी थी। मेरे लिए खजाना ,मां के लिए कबाड़ । हर बार दिवाली की सफाई में मेरे पुराने नोट्स और खिलौने की पेटी के साथ एक छोटी पेटी इन सामानों से भरी हुई निकलती।मां के निर्देश के साथ की काम की चीज रखो,बाकी बांट दो या फेंक दो। पर मुझे तो सब काम का लगता। भले ही us ट्रांसफर पर गई सहेली ने ना मुझे ना मैने उसे कोई लैटर लिखा पर उसका एड्रेस मुझसे फेंका ना गया। मैं उन्हें धूप दिखाई ,पेटी साफ करती और वो वापस साल भर के लिए अपना स्थान ले लेते। 

दीवाली की सफाई का ये बोझिल थकाने वाला दौर मेरे बड़े होने पर मुझे कहीं न कहीं उत्साहित कर जाता था ,इस सो कॉल्ड कबाड़ के कारण….. मैं एक एक समान छूती,देखती,पढ़ती। और मुस्कराते हुए पिछले कई सालों का सफर उस एक या दो घंटे में कर लेती। 

अरे नहीं टाइम ट्रैवल नहीं ,बल्कि डाउन टू मेमोरी लेन 😊


मैं उस क्षण में पहुंच जाती जब वो जमा की हुई चीजें वर्तमान में किसी प्रसंग के बीच में थीं। कभी उन्हें छू कर ,देख कर मैं मुस्कुरा उठती ,कभी किसी भावुक क्षण में जा पहुंचती और आंखों के कोर भीग जाते। 

वर्तमान में इतिहास को जीना सदा सरल नहीं होता।क्योंकि उसमें ऐसा बहुत कुछ होता जो रेत की तरह मुट्ठी से निकल चुका होता ,जो हम बार बार जीना चाहते और कुछ ऐसा भी जो हम पेंसिल की लिखावट की तरह इरेजर से मिटा देना चाहते।पर इतिहास पाषाण शिला पर दर्ज लेख होता ,आप चाहो ना चाहो वो अपना अस्तित्व दिखाता ,वक्त से साथ धूलिम हो सकता पर अमिट…….। 

खैर मेरा ये कबाड़ मेरे लिए एक पैरलर यूनिवर्स था। जिसमें कई बार मैं अपना बचपन जीती।

खिलौने के पेटी की बात करूं तो कुछ जिद से मिले कुछ रसोई के लिए मेरा इंट्रेस्ट जगाने की पहल के लिए मेरे ननिहाल से मिले रसोई के सामना का छोटा छोटा रेप्लिका….कुछ मिट्टी से मुझे जोड़ने के लिए दादी के द्वारा बनाए गए मिट्टी के खिलौने, पड़ोस की हम उम्र लड़की की मुझे जलाने के लिए खरीदी गई गुड़िया के जवाब में मेरी जिद से खरीदी गई गुड़िया। पूरी पेटी भरी हुई थी कई यादों से , हां इसमें एक कोना उन कॉमिक्स का भी था जो अदला बदली के दौरान उनके असली मालिकों द्वारा भुला दी गई थी। 

मुझे याद है जब मेरे पीजी करने के दौरान मैं दीवाली की सफाई में होस्टल से घर नहीं पहुंच पाई थी ,तब मां ने मेरे खिलौने की पेटी हमारे घर में काम करने वाली बाई जिन्हें हम चाची बोलते थे ;उनकी बेटी को दे दी थीं। जब मैं घर पहुंची और पता चला की मां ने वो खिलौने दे दिए तो लगा अचानक बचपन का एक हिस्सा टूट कर अलग हो गया जीवन से। मेरे शरीर में जो बचपन जी रहा था अचानक वो वयस्कता की ओर बढ़ने लगा। हंसमुख व्यवहार कहीं ना कहीं गंभीरता के आवरण से ढकने लग गया था। जैसे कोहरे ने असली दृश्य मतलब असली मधु को ढंक लिया। जो आज तक खुद को उसी कोहरे में ही ढंकी पा रही। 

हां कुछ स्मृतियां मां के पास भी थीं। एक सितारे वाली पुरानी साड़ी, कुछ ब्लैक एंड व्हाइट फोटोज और कुछ पुराने गहने। पर उनका बचपन उतना कबाड़ नहीं जोड़ पाया था जितना मेरे पास था ,जिसे बिखेर कर वो स्मृतियों की सफर का टिकट कटा सकें। 

मैं बड़ी होने लगी ,मन बचपन में ही जीना चाहता था। पर अफसोस उस सुखद कबाड़ की जगहें हमें सजावटी सामान भरना सिखाया जाने लगता। पुराने एल्बम की तस्वीरें भी धुंधली पड़ने लगती ,पन्ने फटने लगते ,जीवन के नए चरण में नई स्मृतियां जड़ जमाई गई स्मृतियों को उखाड़ कर अलग करने का प्रयास करने लगती। 

कल जो मेरे लिए खजाना था ,वक्त उसे कबाड़ बना देता और फिर कई वर्षो बाद हमारे ही लोगों के लिए वो कबाड़ भी अप्रासंगिक हो जाता। शायद हमने भी ऐसी कई खजानों को कबाड़ बना कर अप्रासंगिक किया होगा। 

जीवन यही है शिला लेख धूमिल होने लगते … हां मिटते नहीं पर कुछ अनजानी नजरों के लिए कोई मायने भी नहीं रखते । अगर इन स्मृतियों को कबाड़ और फिर अप्रासंगिक होने से बचाना चाहते हैं तो कोशिश यही रहना चाहिए की कुछ ऐसा दे जाओ जो एंटीक की भांति सहेज लिया जाए और लोग उसके लिए इतिहास भी खोजें।खैर मैं अपने कबाड़ को सोच का अब भी कभी - कभी खोल लेती…….अपने ख्यालों में। भौतिक रूप से अब मैं अपनी बिटिया की चीजें सहेजने लगी हूं,अच्छी बात ये है वो कबाड़ी है पर बहुत सी स्थितियों में वो वर्तमान को महत्व देती और कबाड़ को खुद से अलग करने में कोई परहेज नहीं करती। मैं संतुष्ट हूं की बहुत से लोगों की कटु स्मृति वो मेरी तरह नहीं सहेजेगी,बल्कि वो आगे बढ़ते रहेगी ,इतिहास से भविष्य की ओर। 


#ब्रह्मनाद 

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