( चित्र - गूगल से साभार)
प्रतीक्षा... एक ऐसा शब्द जो सुनने में सहज लगता है, पर जो इसे जीता, उसके लिए यह जीवन की सबसे कठिन परीक्षा बन जाता है। यह वह भाव है जो समय की गति को तो नहीं रोकता पर प्रतीक्षारत व्यक्ति वहीं रुका रह जाता जिस क्षण से प्रतीक्षा शुरू हुई थी। समय की गति और हर क्षण उसे भारी लगने लगता है।
वास्तव में प्रतीक्षा ऐसा वृक्ष है, जो ऊपर से हरा-भरा दिखाई देता है। आशा की पत्तियाँ उसे हरा-भरा दिखाते हुए लहराती रहती हैं, सपनों और आशाओं के फूल भी उसमें खिलते हैं, और विश्वास की कोपलें उसे सूखने नहीं देती हैं।देखने वाले को वह सुन्दर और जीवंत दिखता है, पर किसी को क्या पता कि उसका तना ,मन भीतर से कितना खोखला हो चुका है।
नमी तो अब केवल आंखों में बची है, आंसुओं के रूप में। जिसे वो बाहर निकलने देता ,वो अंदर आंसू का हिम खंड बनाते हुए एक विशाल पर्वत बन चुका होता है।किंतु उस पेड़ की जड़ें इस भार को लिए हुए सूख चुकी होती हैं।
हर दिन, हर क्षण प्रतीक्षा उस पेड़ को थोड़ा-थोड़ा भीतर से खा जाती है। बाहर से मुस्कुराता चेहरा भी अंदर से एक लंबी चुप्पी में डूबा होता है। जैसे किसी ने आत्मा को चुपचाप को हटा दिया हो पर वह देह को किसी उम्मीदों की डोर से बंधे होने के कारण ना छोड़ पा रही हो।
कभी किसी अपने के आने की उम्मीद, कभी उसी अपने के उत्तर की आस, और कभी उस एक नई सुबह की चाह जो उस अपने को देखने और मिलने के लिए बची होती , सब उस वृक्ष को थोड़ा और हरा दिखाती हैं, लेकिन खोखलेपन का सच उससे छुपा नहीं रहता।
प्रतीक्षा थका देती है, पर खत्म नहीं होती। वह जीने की वजह भी बन जाती है और मुक्त होने के लिए बंधन भी। कभी - कभी कुछ प्रतीक्षाएँ अंततः पूर्ण होती हैं, और वृक्ष फिर से जड़ें पकड़ लेता है। पर कुछ प्रतीक्षाएँ केवल जेठ की एक सूनी दोपहर की तरह आती हैं, जिसमें विरह की तपन बिना किसी नमी के मन को दग्ध करती हुई ताउम्र बनी रहती है।
कहने को प्रतीक्षा में जीवन है, पर असल में यह जीवन का सबसे मौन और सबसे कठिन रूप है।
कभी प्रतीक्षा को समझना हो तो उस पेड़ को भीतर से भी देखना जो बाहर से हरा भरा हो, वह भीतर से खोखला हो हुआ हो… पर फिर भी खड़ा है, एक अंतहीन प्रतीक्षा के पूर्ण होने की आशा लिए।
#ब्रह्मनाद
#डॉ_मधूलिका
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