पेज

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

रोज डे





आज दुनिया इस रोज़ डे की खुमारी में डूबी है ,और मैं सिर्फ आपकी यादों में। आज बादल थे यहां ,सूरज कुछ मद्धम सा। ऐसा लग रहा था जैसे मैं आपकी सोच में खोई रहती वैसे ये भी खोया था।
आज पहले सोची आपको "रोज़ डे " विश करके कुछ लिखूं। पर पता नही क्यों ये दुनियावी रस्म उस इंसान के लिए मुझे झूठी लगी जिसका होना ,जिसका एहसास मेरे हर रोज को महकाए रखता। क्या गुलाब आपकी उस भावना का मुकाबला कर पाती जो आपके सहेजे हुए हर रोज के गुलाबों में समाई हुई है। इस दिन के भाव को महज एक गुलाब की भावनाओं में कैसे समेट दूं ???
वो भाव जो सांस के चलने की वजह है, वो वजह जो जिंदगी को जिंदगी होने का एहसास देते। 
पशोपेश में हूँ , की कैसे ये रस्म निभाऊं, निभाऊं भी या नहीं??? 

हो सकता है प्रेम प्रदर्शन के इस तरीके में मैं पीछे हो जाऊं, पर हम ये वादा आज जरूर कर सकती हूँ कि आप जब जब मेरे प्यार को महसूस कर खुद को देखेंगे ,आपकी हर मुस्कान अनगिनत खिले गुलाबों को भी शर्मसार करने की आभा बिखेरेंगे। मैं हर पल ,हर दिन उस खिली मुस्कान को जीवंत रखने के लिए कृतसंकल्पित हूँ।

मैं हर रात आंख बंद करने से पहले और सुबह आंख खुलते ही आपकी गुलाबों सी मुस्कान को सहेज लेना चाहती हूं। आपकी सांसों की ,शरीर की गुलाब इत्र सी महक मेरे सर्वांग में व्याप्त रखना चाहती हूँ तो भला इक रस्म में आपको कैसे पूर्णता महसूस करा सकती।

आपकी एक उपवन की तरह सुरभित सोच और भाव ,रोज़ डे की विश में सार्थकता नही पा सकते। आपके लिए तो शायद संसार के फूल भी कम पड़ेंगे। मैं अपने आराध्य को अपना प्रेम समर्पित कर रही हूँ हर रस्म के लिए ,हर दौर के लिए। क्योंकि सुना है पार्थिव पूजन से कहीं ज्यादा मानस पूजन सफल और सार्थक होता। तो ग्रहण करिये मेरे सदा ही ताज़े और खिले हुए भावों के मानसिक फूल और कृतार्थ करिये मेरी पूजा को।

आपकी आराधिका 

#डॉ_मधूलिका
#ब्रह्मनाद 
 

शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

बिना_चाँद_की_रातें


 


वो मुझे चाँद कहता, मैं कभी उसके हांथों की लकीरों में उभर आती ,कभी आंखों में सज जाती। दिन होते ही उसके आगोश में छुपकर फिर एहसासों के उगने का इंतज़ार करती रहती।जब वो खुशी से मुस्कुराता ,तब मैं चतुर्थी का चन्द्र बनकर उसके होंठों पर उग आती। उसकी खुशी के साथ अनगिनत पुनर्जन्म मिलते मुझे। न जाने कितने बार उसने मुझे जीवन दिया।


       अब वो सारी रात अपनी आंखों के तले गुजरते वक़्त को पलकों की झपक से गिनता है। वो उदास सी उनींदी रातों को बुनता,उनमें नमी की झिलमिलाहट के  सितारे भी सजा लेता, पर चाँद उगाना उसने बन्द कर दिया। उसके जीवन में रातें तो आती पर चांद के बिना। वो उदास हुआ ,और मुझे ग्रहण लग चुका था। मैं डूब चुकी थी। और तब से अब तक जीवन के लिए तरसते हुए उसकी ओर निहार रही हूँ।छटपटा रही हूँ अपने अंधकार से उबरने के लिए। मैं वापस उगने के लिए उसकी मुस्कान की राह तक रही हूँ। शायद कभी मैं वापस एक जीवन पाऊँगी.... शायद वो मुझे कभी फिर जीवित करेगा। मैं आस में हूँ....... ।

✍️ डॉ. मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी 

#ब्रह्मनाद