मैं नन्ही सी जान थी, मेरी आँखों मे दुनिया अजूबा थी, हर एक बात मेरे लिए कई सवाल बन जाती। जिन्हें मैं समझना चाहती थी। सब उस सवालों की मासूमियत में हंसते। कई जवाब आते ,जो अक्सर मिले जुले होते। कुल मिलाकर इतना तो मैं समझ ही गई थी ,अभी बहुत कुछ है जिसके लिए मुझे इस अवस्था से परे जाना होगा। कई सवाल जिनके लिए जवाब मैं खुद होऊंगी। तब मैं तारा थी, सबकी आंखों का ,मुझसे ही उनकी आंखों की चमक थी।
मैं बड़ी हो चली ...... सितारे की शरारत कई बार किरकिरी भी लगने लगी थी। जो हांथों में पलती थी, उस पर हाँथ भी उठने लगे थे। क्या बोलना है, कैसे बोलना है ... हिदायतें मिलनी लगी। बचपन #बिछुड़ने लगा था।
मैं किशोरावस्था में थी। बचपन के बाद उम्र का वो पड़ाव जो आपको खुद ही सन्देह में डाल देता है कि आप बच्चे हो या बड़े। किसी भी एक वर्गीकरण में आप फिट नही बैठते । और लड़की होना ....जैसे कोई सामाजिक पाप हो। आप अपने साथ मे पढ़ने वाले लड़के -दोस्तों को रास्ते मे देखकर मुस्कुरा नही सकते। उन्हें घर बुलाने ,उनके घर जाने में परहेज से सामने आने लगते। कल तक जिनके साथ हम बेझिझक स्कूल बेंच शेयर करते या टिफिन भी ,अचानक वो हमारे लिए अस्पर्श हो जाते। उसमे भी स्वयं में होने वाले शारीरिक परिवर्तन और उसके लिए कई तरह की सावधानियां......सच मे लगता था ,लड़की होना पाप से कम नहीं। कई बार रोते उस दर्द और विशेष तकलीफों से गुजरने पर। पर वो बताने नही,शर्म की बात थी (जैसे सिखाया गया ) ....किसी को पता ना चले कि हम मातृत्व धरण करने के पहले चरण में आ चुके हैं। कितना अंतर है एक मानवीय मादा और पशु- पक्षियों की मादा में। जो बात औरत को प्रकृति के रूप में पूर्णता दिलाती उसी बात को शर्म साबित कर दिया जाता।
मैं अब सहज होती जा रही थी। मान बैठी थी ये नियति की हर औरत को तकलीफ झेलकर ही औरत साबित होने की शर्त पूरी करनी होती।
घर से ना सही पर सामाजिक तौर पर मुझ पर प्रतिबंध लगने लगे थे। हंसना ,बोलना ,चलना ,उठना ,बैठना- बोलना सबके निर्धारित मापदंड के अनुसार ही खुद को ढालकर आप सामाजिक स्वीकार्य हो सकते हो।
मैं विद्रोही थी। कुछ बातों का स्वभाविक विकास हो गया ,पर कई मैं कभी ना अपना सकी।
किशोरावस्था भी #बिछुड़ गई। कीमत मेरे बचपन की बलि। कहने के लिए जवानी सतरंगी होती है। पर एक आम लड़की के लिए जिस पर मर्यादाओं का पूर्वाग्रह हो ,उसके लिए किसी दंश से कम नहीं। कई जोड़े आंखें आपका पीछा ही करती रहती। बिन छुए भी शरीर का माप बताने को आतुर लोलुप आंखें। आपका हर कदम ,हर वक्तव्य ,हर बिखरती हंसी , आपके चरित्र प्रमाण पत्र तैयार करने वालों के लिए आंसर सीट सी होती ।।जिसपे सही गलत वो अपने नज़रिये से तय करते।
परिवार आपके भविष्य के लिए आपके भावी साथी के चुनाव पर ही केंद्रित हो जाता। आप कोई भी हो,कुछ भी कर लो ,कहीं भी पहुंच जाओ, पर शायद सिर्फ विवाह ही ऐसा प्रमाण पत्र बन जाता जो आपके जीवन को सफल साबित कर सकता। भले उसमे आप अपनी बलि ही क्यों ना दे रहे हो।
मासूमियत बिछड़ी, दोस्त बिछड़े , नैसर्गिकता बिछड़ी , सपने भी हांथों से छूट गए , और अब अपनो से बिछड़ने की बारी भी आ जाती। अपना घर जहाँ हर बात पर आपका हक था, हर चीज आपकी अपनी थी, जहाँ आपने अपने जन्म से जवानी तक का हर चरण ,हर अच्छा बुरा वक्त काटा, वो छोड़कर किसी अन्य के घर को अपना बनाने के लिए जाना होता। नियम यही है। घर पर नाजों से पलने वाली #गुड़िया ,हर काम मे थक जाने के डर से माफ कर दी जाने वाली बेटी एक ही दिन में किसी अन्य घर की सबसे जिम्मेदार इंसान बना दी जाती। ऐसे लगता जैसे उसके आने से पहले उस घर मे काम ही नही होता था। वो आई और अब हर बात सिर्फ उसके सर पर मढ़ दी जाती। बहू शब्द कितना भारी हो जाता। बेटी से बहु होने का सफर सिर्फ रस्म नही होती अपने अस्तित्व से बिछुड़ने सा जान पड़ता।
एक बहु से पत्नी,फिर माँ होने का सफर ना जाने हम खुद से कितने बिछड़ जाते ,पर दूसरों की खुशी में खोकर ही खुश। हम कौन......उसकी बेटी,उसकी बहु,उसकी पत्नी और इसकी माँ। सारी पहचानों में खुद को बांटकर अपने अस्तित्व को भूलकर बस कर्तव्य में खुश।
याद है मुझे मेरी नानी मुझे अपनी बेटी (मेरी माँ) के नाम पर डिठौना बोलती थी। क्योंकि मेरी माँ ,हर काम मे बहुत तेज़ थी। और मैं सिर्फ पढ़ाई और एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटी में उस्ताद। और जब पहली बार शादी के बाद मेरी नानी को खबर मिली कि उनकी नवासी अकेले पूरे घर का काम करती, तेज़ तर्राट गुड़िया अपने सारे सपने भूलकर गृहिणी बनकर हर किसी का गुस्सा और झिड़की चुप होकर सुनती तो वो खुद को रोने से ना रोक पाई। खुद को ही कोसने लगी कि क्यों अपनी गुड़िया को डिठौना बोली,काश उनकी गुड़िया की किस्मत सदा डिठौना बन कर ही रहती। राजकुमारी सी गुड़िया ,राजकुमारी ही रहती।
एक बच्ची से औरत होने तक के सफर में कितना कुछ सहती एक औरत। 40 -50 की उम्र में आते तक ;उसके सपने बिछड़ते ,उसके अपने बिछड़ते,उसका मूल बिछड़ता, उसके संगी साथी बिछड़ते । और अंत मे उसके पास क्या बचता। कर्तव्यों की बेदी पर बिसूरति उसकी अपनी पहचान, सबसे घिरी होने पर भी अंदर सालता एकाकीपन का घाव ,आत्मनिरीक्षण के क्षणों में खुद को असफल पाने का दंश । या एक बलिदानी सफल गृहिणी का तमगा.... वक़्त बीतते उसका कोई अपना नही होता। एक घर होता था ,जो मायका हो जाता, एक और घर जो ससुराल होता..... आगे जो होगा बच्चों का घर होगा। उसके सपनो से सज़ा उसका अपना घर कहाँ होता। उसके एकाकीपन को भरने वाला ......उसका अपना कोना जो कहीं उसी में संरक्षित रखती, जिसमें दरीचों से छनकर ताज़ी हवा भी आती, जिसके सुराखों में से नीला आकाश अपनी एक झलक देता, जहाँ से थिरती धूप दिन का एहसास देती........सब कुछ बिछुड़ जाता एक औरत के औरत होने के सफर में ........हर उम्र अपनी कीमत उसके एक हिस्से को उससे काटकर वसूल कर ही लेती..... मैं अब वो सितारा हूँ जो दूसरों की खुशियों के लिए,उनकी चाह्ते पूरी करने के लिए कई बार फलक से टूट जाती हूँ। और मेरे अस्तित्व में बस बिखर जाती है राख ,मेरे अपने अरमानो की।
अब जाकर कई सवालों के जवाब मिले , बेहतर होता बचपन मे ही रही आती,न दिमाग बढ़ता ना अवस्था। अब समझ आया कि
#जो_बिछड़ती_जा_रही_वो_अवस्था_थी,#जो_अंत_में_साथ_होगी_वो_उम्र_होगी... और वही वफ़ागर होगी,खुद के साथ मुझे ले जाने के लिए। उम्र मुझसे बिछड़ेगी नहीं, क्योंकि जब ये संज्ञा मुझ पर लागू होगी तब मैं ही मुझसे बिछड़ चुकी होऊंगी। कई बारी बिछड़ने के बाद एक अंतिम बिछोह।
#डॉ_मधूलिका
#ब्रह्मनाद