#लेखन_प्रकृति_है
लेखन एक ऐसा सृजन है ,जो विशुद्ध रूप से प्रकृति होता है। इसे मूल प्रवृत्ति भी मान सकते और रूपक भी। जो वास्तविक लेखक होता उसे सिर्फ लिखने की भावना होती।जब भावना अपने प्रमाद में हों। जब कलम खुद ब खुद थिरकने लगे, तब शब्द जेहन से सीधे कागज़ में उतरने को मचलने लगते। लेखन का मूल भावना होती। जो लोगों के कहने पर ,लोकप्रियता के लिए ,पसन्द किये जाने के लिए ,लाइक या कमेंट की भूख के लिए लिखते वो वास्तव में लेखक नहीं होते..... वो तो व्यापारी होते। जो डिमांड ,सप्लाई और प्रॉफिट के सिद्धांत पर कलम का व्यापार करते।
इस व्यापार से हटकर कुछ लिखते स्वान्त्य सुखाय। जब तक उनके अंदर का ज्वार उन्हें मजबूर न करे ,तब तक वो कमल नहीं उठाते। उठाते भी तो जरूरी नहीं व्व अपना लेखन दूसरों के सामने रखें। वो तो अपने लेखन को वैसे ही पोषते जैसे किसी नवजात शिशु को काला टीका लगा कर खुद निहारकर मुस्कुराना। उस शिशु को हम लोगों को दिखाने का प्रयास नहीं करते। पर उस पर कैसी नजर पड़ रही उसका प्रभाव हमारे मन पर भी पड़ता।
लेखन एक चांद की तरह भी है, जो आकाश में अपनी ज्योत्स्ना के लिए उगता। क्या फर्क पड़ता कोई उसे पूरे वक़्त निहार रहा ,या कोई उसकी पूजा कर रहा ,या कोई उसे रात्रि का संकेत मानकर सोने चला जाता। कोई उसे प्रेमिका या प्रेमी के रूपक में निहारता। किसी के लिए विरह ,किसी के लिए मिलन का साक्षी बनाया जाता। कुछ गुनाह भी उसी के तले होते।
चांद तो बस चांद है।कोई उसे क्या समझे, क्या माने,कोई देखे न देखे , इससे चांद फर्क नहीं पड़ता। इस चांद के उजले और स्याह पक्ष भी होते। उजले में जहां लोग उसे देखते ,पूजते,वहीं स्याह पक्ष में उससे पूरे बेखबर हो जाते। जैसे एक लेखक की ऐसी भावना जो वो लोगों के सामने कभी नहीं लाना चाहता।तब अपने ही एक सुरक्षित दायरे में बस खुद के प्रमाद को अभिव्यक्ति देता। उसके दुख ,तकलीफ बस अपने तक सीमित रख।
ठीक वैसे जैसे चांद की रोशनी में दुनिया खिल जाती,पर अंधेरा सिर्फ व्व अपने पास रखता। उसकी रोशनी सर किसे क्या महसूस हो रहा ,क्या उपयोग हो रहा ,इससे भी चांद निर्लिप्त रहता है।।
लेखन को मिट्टी भी समझ सकते।जिसमें भावनाओं की फसलें बोई जाती हैं। हर मौसम की अलग फसल ,वैसे ही मनोस्थिति अनुसार भाव अनुरूप लेखन भी भिन्न।
किसी अन्य उदाहरण की बात करें तो लेखन फूल की खुश्बू की तरह भी है। हर एक फूल की एक अलग खुश्बू.... किसी को मादक अच्छी लगती,किसी को सात्विक ,किसी को तीखी ,किसी को हल्की। पर पसन्द करने वाले के लिए फूल अपनी ख़ुशबू नहीं बदल देते।लेखन का कलेवर भी वही होता। असली लेखक पसन्द करने वालों के हिसाब से नहीं बल्कि अपनी नैसर्गिकता से खुश्बू लिए लिखता। किसी को क्या पसंद इससे उसे फर्क नहीं।
लेखक अपने आप में एक स्वतंत्रता को जीता। जैसे प्रकृति स्वयं में पूर्ण और स्वतंत्र होती। उसके संसाधन को कौन किस तरफ से उपभोग करता इससे उसे फर्क नहीं पड़ता। उसका तो उद्देश्य परिपूर्ण रहना है।
लेखन अपनी सहज स्थिति में उत्कृष्ट सृजन होता है। जैसे स्वयं में एक ब्रम्हांड रच देना। जिसमे जीवन भी होता,मृत्यु भी, भय भी, भूख भी ,खुशी भी। अपेक्षा के बोझ तले हुए लेखन की यही सम्पूर्णता खत्म हो जाती ,क्योंकि उसे विशिष्ट भाव मे ढाला जाता। ऐसे में उसका विस्तार सिमट जाता ,सृजन तब व्यापार बन अपनी मूल प्रकृति को ही खो देता।और इस स्थिति में लेखक का लेखन -लेखन न होकर मजदूरी और मजबूरी बन जाता।
और प्रकृति कभी मजबूर नहीं होती।उसकी ताकत उसकी नैसर्गिकता ही होती। और जो नैसर्गिक नहीं वो बदलाव के साथ धीरे धीरे खत्म हो जाती।