पेज

मंगलवार, 30 मई 2023

कल...... एक मृगतृष्णा

 *मैं तुमसे बाद में बात करूँगी/करूँगी। 

*कल ये काम कर लेंगे।

*कल से पक्का नया रूटीन फॉलो करूंगा /करूँगी।

*कल से जल्दी उठेंगे।

*कल पक्का तय करेंगे कि आगे क्या करना...... 


और हर आज ;वही कल होता है जिस कल की हमने कल बातें की थी। अफ़सोस हम कल में टालते जाते.... कल के आसरे में बैठे रहते ,और वो कल कभी नहीं आता। हां इस कल को पाने की जद्दोजहद में हम आज को जरूर खो देते। आज की निश्चितता को कल की आस में नजरअंदाज करते रहते। 

इस कल के चक्कर में हम बस खोते ही चले जाते....... कई अपनों को ,और सपनों के लिए हकीकत को। 

कल कभी आ ही नहीं पाता। और हम अन्तहीन दौड़ते ही चले जाते।ये कल हमसे हमारे एक कदम आगे ही रहता।जब -जब हाँथ बढते तो लगता हम इसे पकड़ लेंगे।पकड़ में आता तो सपने हकीकत बन जाते..... पर  ये एक छलावा रहता ,एक मृगतृष्णा.... हम आगे देखने के चक्कर मे अपने नीचे की जमीन भी खो देते। और फिर औंधे मुंह गिरते। निगाहें फिर भी उसी कल की ओर लगी रहती, और वो हमसे उतनी ही दूरी पर खड़ा रहता ,जितना हमारे सफर की शुरुआत में था।


जब तक आंख खुलती....... कल खो चुका होता ,बीत चुके कल में। और हम एक पेंडुलम बन चुके होते कल और कल के बीच । तब वर्तमान भी पहुंच से छूट चुका होता और हमारा आधार ......... एक ट्रेडमिल की तरह हमें ऐसी दौड़ में ले जाता ,जहाँ हम दौड़ते तो रहते अनवरत ,पर कहीं पहुंच नहीं पाते। कल ....... कभी नहीं आता ,समझ तब आता ,जब आज कल में बदल जाता और हाँथ और आँखें दोनों खाली ..........

और फिर एक दिन कल की ओर ताकते हुए हम आज से कल में बदल कर इस दुनिया के अस्तित्व में ही आंकड़े से गायब हो जाते।

#डॉ_मधूलिका

#ब्रह्मनाद 

बुधवार, 24 मई 2023

चाय और तुम

 

       (तस्वीर:- साभार गूगल)


चाय और तुम्हारे साथ .....दुनिया में इससे बेहतर सुकूं शायद ही मुझे दोबारा नसीब हो। किसी गहरी घाटी की किसी अंतिम छोर पर टेंट लगाकर जतन से जुटाकर लाई गई कुछ सूखी लकड़ियों और पत्थर के ढेरों  से बनाए गए चूल्हे पर चढ़ी हुई चाय....।


 हल्की ठंडक का एहसास.... मुँह से निकलता धुंआ और आँखों में बरसों से ठहरी नमी रहकर रहकर बाहर निकलने को बेताब..... उन लकड़ियों की आंच से तुम्हारा दिव्य चेहरा लाल सा दिख रहा। जैसे अभी किसी युद्ध से तपकर लौटे हो और शौर्य अब तक उबल रहा हो। पर तुम्हारी आंखे मासूमियत के साथ मुझे और उबलती चाय को तक रही हैं। एक गहरा सन्नाटा पसरा हुआ है। तुम होंठों को हिलाने की नाकाम कोशिश कर ,चुप हो रहा जाते।जैसे बोलना बहुत कुछ हो ,पर छोर न मिल रहा हो। 


मैं तुम्हारी आँखों मे ही खोई हुई हूँ। तुम चेहरे और आँखो के इशारे से मुझसे पूछते.... क्या हुआ ।और मैं सर डुलाकर मना कर फिर चाय को ताकने लगती। अंदर एक शोर से है। इस मुलाकात से पहले क्या क्या नहीं सोचा था। ढेर बात करूँगी ,ढेर सवाल .... कुछ शिकायतें।और अब जैसे उस शोर को अंदर के निर्वात ने ग्रस लिया। 


तुम्हारी आंखें और हाँथ मेरी नजरें रह रह कर इनपर टिक जाती। हां बस इनसे ही तो मेरा परिचय हुआ था। चेहरे से नहीं।वो ही मुझे मेरे लगे... मुझे यूँ ताकते पाकर तुम्हारे होंठों  पर मुस्कान खेल जाती और मैं झेंप कर उन जलती लकड़ीयों को खोतने लगती। तुम धीरे से मेरे पास सरकते और मेरे हांथ को अपने हांथों में लेकर दबा लेते।जैसे मुझे यकीन दिला रहे हो...हां ये मैं ही हूँ। उस ठंडक वाले एहसास में तुम्हारे हांथों की नरमी और गर्मी मुझे अंदर तक सिजा रही है।


अचानक चाय खौलती और जलने की मीठी सी खुशबू हम दोनों ने नाक में समाती। हल्के धुएं से आंखें लाल और आंसू भरी हो जाती ,जिनकी आड़ में मैं अपने आंसुओं को भी पोछ लेती।


छान कर चाय की गिलास तुम्हारे हांथों में पकड़ा देती।जिसे तुम जैकेट की आस्तीन पंजों तक खींचकर उसके बीच पकड़ लेते। पहला घूंट लेने के लिए मैं गिलास को थामे तुम्हारे हांथों को तुम्हारे होंठों की ओर करती और एक चुस्की के बाद मैं चुस्की लेती।

वो बड़ी सी गिलास से 2 चुस्कियों के बीच हम दोनों चुप्पी में भी ढेर बातें कर ले रहे। तुम्हारे होंठों को छूने के बाद जब गिलास मेरे होंठों तक आती तो मानो तुम्हारा मन उमड़ कर उस एक चुस्की चाय में पिघल जाता।चाय की खत्म होने वाली अंतिम चुस्की मैं तुम्हें ही पीने को देती,कहते हैं  खाने पीने का अंतिम घूंट और कौर ,तृप्ति का होता है। मैं वो तृप्ति तुम्हारे नाम कर देती हूँ। 


मेरे जीवन की क्षुधा तुम हो, मेरे आत्मा की प्यास तुम हो .... और उससे तो मैं कभी तृप्त ही नहीं हो पाऊंगी। मैं घूंट घूंट अपनी आंखों से तुम्हें पी रही हूँ। मेरी आत्मा तृप्त होने की बजाय और क्षुधातुर हो रही है। 

हम दोनों उठ खड़े हुए तुमने अपनी बाहों के सहारे मुझे जमीन से कुछ ऊपर उठा लिया।देखा आज मेरे पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे। तुम्हारे होंठों पर अपने होंठ रख मैं आंखें बंद कर लेती हूँ।और आंसुओं की दो जोड़ा धार उस निर्जन में भागीरथी से भी प्रचंड तरीके से बह निकली। 

उद्वेग काबू करके एक दूसरे के माथे पर बोसा रख तुम वापस मुझे जमीन के हवाले कर देते। तुम्हारे बलिष्ट हांथों से होते हुए मेरा चेहरा तुम्हारी हथेलियों में समा गया। जिन्हें मैं नेमत समझ कर चूम रही हूँ। आंखें आखों में कैद हो गई है। हम दोनों अपने अपने रास्तों के रुख करते । बस इतना हो बोल पाते .....अपना ख्याल रखना।

मैं पहले नहीं मुड़ सकी.... इसलिए तुम एक झटके से मुड़ कर तेज़ कदमों से निकल गए।मैं वहीं खड़ी देखती रही जब तक तुम्हारा अक्स् ओछ्ल न हो गया। 

ये मेरी अंतिम चाय थी....उस वक़्त तक के लिए जब तक तुम दोबारा मुझे नहीं मिल जाते। हर शाम की चाय की चुस्कियों से एक  के होंठों  से दूसरे के होंठों तक चुप सी बातें करने को।


#डॉ_मधूलिका

#ब्रह्मनाद 

बुधवार, 3 मई 2023

नानी और अक्षय तृतीया : एक संस्मरण


 मेरे लिए अक्षय तृतीया या अख्ति का बचपन से बस एक अर्थ था.. मिट्टी के बने  गुड्डे -गुड़िया का एक खूबसूरत जोड़ा लेकर आना ,उनकी ख़ूबसूरत सी ड्रेस बनवाना और कुछ पकवान बनाकर मंडप सजाकर उनकी शादी करवाना । बरा बरसात के दिन उनकी गांठ खोली जाती और वो दिन भी मौहल्ले की सखियों या अपनी चचेरी -ममेरी बहनों के साथ उत्सव सा लगने लगता। 

साल भर बाद उन्हें पूजा के साथ विसर्जित कर फिर दूसरे जोड़े को लाकर उनकी पूजा और विवाह। कितना प्यारा बचपन था ,जब माटी के ये खिलौने ,कुछ जरी लगी उनकी पोशाकें, बरा ,पुआ , गुलगुला इतनी खुशी और उत्साह दे जाते थे जो बड़े बड़े होते होते किसी भी उत्सव किसी भी पोशाक,किसी भी खिलौने से नहीं मिल सके। 


इस विशेष दिन से जुड़ी एक खास याद नानी की है,जिन्हें मैं और सारे बच्चे बाई बोलते थे। बचपना जाते हुए इन गुड्डे गुड़ियों के त्यौहार से दूर करता गया ,पर नानी.... मेरे लिए हर साल गुड़िया -गुड्डा का जोड़ा लाकर शादी कराके पूजा करना न भूलती। चूंकि ये दिन गर्मी की छुट्टियों की दौरान आता था इसलिए अक्सर हमें ये नानी के घर मे ही मिलता। 


वक़्त के साथ जब हम अपनी दुनिया में व्यस्त होते गए...हर गर्मी की छुट्टी अब नानी के यहाँ भी नहीं जा पाते थे... पर नानी अब भी मेरे लिए वो रीत निभाती जा रहीं थी। मैं जब नानी के यहाँ जाती वो उस सजे हुए गुड्डा -गुड़िया को मेरे सामने कर देतीं। और मैं नानी से कहती कि अब मैं बड़ी हो गई हूं इससे नही खेलती।और वो हंसती की जब तक जिंदा हूँ मेरे लिए तुम खिलौने से खेलने वाली गुड़िया ही रहोगी। जब नहीं रहूँगी तभी बन्द होगा ये रिवाज। याद है मुझे ,जब छोटी थी तो कई बार साल भर उस गुड्डे -गुड़िया की कभी नाक ,कभी मुकुट, कभी हाँथ का हिस्सा खेलते हुए टूट ही जाता था। पर मन  उस टूटे हुए खिलौने से कभी न उकताता। बड़े होने पर वो एक कोने में पड़े -पड़े मुझे चुपचाप ताकते रहते। 


आज अखबारों में ,बाजारों में ये गुड्डे -गुड़िया के जोड़े देख कर नानी की याद आ रही। उनके जाने के बाद से किसी ने मेरे लिए अख्ति पूजन नहीं किया।किसी ने मेरे लिए मिट्टी के उस जोड़े का पूजन कर मुझे सौंपने के लिए नही सहेजा। एक मिट्टी की बनी  स्नेह से डूबी काया ,आज बहुत याद आ रही है।क्योंकि वो मेरे बचपन से जुड़ा सबसे खूबसूरत रिश्ता और एहसास था।

बाई  आप ,उस मिट्टी के जोड़े से जुड़ी जो खुशी आपने मेरे  लिए अपने जीवन रहने तक सहेजा अब उसके लिए तरसती हूँ। न अब खुश होना इतना आसान है न ही कोई मेरे लिए सहेज कर रखने वाली आप रही। 

 बाई आप ,आपके दहबरा और गुलगुला ,और वो गुड्डे -गुड़िया....मेरे जीवन मे एक बड़ी रिक्तता बन गए हैं।जो अब मेरे जीवन के अंत तक रिक्त ही रहेंगे। आज आप बहुत याद आ रही हो.......😓

#डॉ_मधूलिका

#ब्रह्मनाद