#सुरभाषी
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सुरभाषी ,हां यही तो नाम था। घर पर उसे सुरु भी बुलाते थे।मुझे तो इस नाम और इस नाम वाली दोनों ने पहली ही बार मे बांध लिया था।
कई सालों बाद मेरे माँ के ननिहाल(माँ की नानी का घर) जाने का मौका लगा था।
वहां पहुंची तो पूरा गांव ही जैसे मेरे स्वागत में था, मैं सबके लिए "मान " थी।।बेटी की भी नवासी......
राजकुमारी से ठाठ थे मेरे। मैं शहर से गई थी ,तो गांव की हमउम्र और थोड़ा छोटी लड़कियों के आकर्षण और कौतूहल का केंद्र भी। सभी मुझसे मिलने आ रहे थे । प्यार लुटाते, ऐसा लग रहा था जैसे वहां द्वेष नाम की कोई जगह नहीं।
अरे हाँ ये तो मैं बताना ही भूल गई कि "सोनमढ़ी" नाम की जगह सड़क मार्ग से सम्पर्क में नही था। यहां जाने के लिए नदी पार करना होता था ,साधन सिर्फ नाव थी।
लौट कर आपको वापस लाती हूँ,सोनमढी में।
इस जन समूह में एक चेहरा ऐसा था जिसने घर में कदम रखते ही मुझे खुद से बांध लिया था।
एक किशोरी थी वो, अवस्था 17 के आस पास लग रही थी। रंग जैसे दूध में गुलाल मिला कर बनाया गया। आंखें किसी निश्छल पर डरी हुई हिरनी सी। बदन में उम्र की नई तरंग की कसावट और उतार चढ़ाव । कमर के पास उसकी कुर्ती फ़टी हुई थी जिसे छुपाने के वो भरसक प्रयास कर रही थी। उसके चेहरे की आभा ऐसी थी जैसे अलसाई सी चांदनी बिखरी हो। और एक खास बात उसके चेहरे पर गाल के किनारे की ओर एक बर्थ मार्क,जिसे गाँव में लहसुन बोलते हैं। और उस शांत किशोरी के चेहरे पर वो ऐसा लग रहा था जैसे किसी चंद्रमा के किनारे से कोई धूमकेतु निकलते हुए अपने निशान छोड़ गया हो।
एक और बात ने मुझे आकर्षित किया , उसके कमर पर चुनरी से बंधी बांसुरी जिस पर एक मोर पंख सजाया गया था।
किनारे बैठी वो भी नज़रें बचाकर मुझे निहारती ,कुछ संकोच,कुछ डर।
अब धीरे धीरे मुझे इस भीड़ का प्रयोजन समझ आया । ये सब मेरे सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन था। मैं डॉ जो थी। उनके लिए गर्व की बात थी। देशी गुलाब और गेंदे की माला पहनाकर सरपंच जी ने स्वागत किया। फिर बोला गया कि अब सुरु की बांसुरी सुनाई जाएगी। अब उस लड़की के आने का प्रयोजन समझ आया। उसे बुलाया गया.... सुरभाषी....आ, बजा अपनी बांसुरी। सुना अपराजिता बिटिया को। अरे डॉ हैं , सबको मौका नही मिलता इनके सामने आने का।
मैं अपलक उसे निहार रही थी, अचानक उस सहमी सी मुस्कान में उसकी दंत पंक्ति की झलक आकाशीय बिजली की चमक को मात दे गई। मैं सोच में थी क्या यह वाकई इतनी प्यारी या मुझे ही लग रही।
सुरु उठ कर सामने आई और कमर में बंधी बांसुरी निकाल कर स्वर फूंका। उसके होंठो की हरकत, चलायमान मृणाल दंड सी उंगलियां , और आधी खुली सी आंखें मुझे तो लगा ये राधा तो नहीं जो कृष्ण रंग में डूब कर इतनी मोहक हो गई। बांसुरी के स्वर में ऐसा दर्द सा लगा की कोई पाषाण भी बेवजह रोने लगे। स्वर लहरी टूटने से जब तन्द्रा भंग हुई तो सब करुणा में डूबे से नज़र आए। कुछ औरतों की आंखें नम थी।
तभी पीछे से एक तेज़ स्वर उभरा- कलमुँही कभी स्वर तो अपने भाग्य से अलग फूंका कर।
हम सबका ध्यान उसी औरत की ओर चल गया। जो पान खाए मुँह बिचका कर सुरभाषी को घूर रही थी।
लौटते वक्त सुरु की आंखें मुझसे धन्यवाद कह रही थी ।मैं अब भी नहीं समझ पा रही थी ,कि यह लड़की मुझसे बोली क्यों नहीं ।जो बात उसकी आंखें कह रही थी ;वह मुझसे भी बोल भी सकती थी ।
घर पहुंचते ही मुझे मासी-नानी से बहुत सारी बातें पूछने का मन था। सुरू मेरे मन में एक सवाल बन कर रह रही थी ।मासी नानी बरामदे में ही खड़ी हुई थी ,शायद मेरा ही इंतजार कर रही थी ।बरामदे में कदम रखते ही उन्होंने मेरे हाँथ से सारा सामान लिया और 2 मिनट बाद ही मेरे सामने चाय का कप हाजिर था। चाय लेते ही मैं नानी से पूछ पड़ी नानी यह सुरु कौन है? और वह औरत सुरू की क्या लगती है?? उसकी मां जैसी तो एक भी ना लगती।.....यह लड़की इतनी शांत क्यों रहती है ?कुछ बोलती क्यों नहीं?
।नानी ने एक तेज सांस ली और कहा सुरु का नाम वाकई सुरभाषी नहीं अभागी होना चाहिए था । मेरी उत्सुकता बढ़ रही थी .......मैंने नानी से कहा कि मुझे पूरी बात बताइए ,आप क्यों ऐसा बोल रहे हो ?
नानी ने बताना शुरू किया वह औरत चंपा है और वह सुरू की सौतेली मां है ।सुरू का परिवार भी कभी बहुत सुखी हुआ करता था। उसके पिता शहर से सामान लेकर गांव में फेरी लगाकर बेचा करते थे ।मां भी सबके घर मे छोटे-मोटे काम में सहायता करती थी ।लोग बदले में उसकी अनाज या पैसे से मदद कर दिया करते थे ।थोड़ी बहुत जमीन भी थी जिसमें कभी फसल कभी मौसमी सब्जियां उगा लिया करते थे ।सुरू 3 साल की थी जब उसके दुर्भाग्य ने उसकी जिंदगी में कदम रखा ।दुर्गा पूजा के लिए शहर से झांकियां देखकर पूरा गांव वापस लौट रहा था।
सुरु के पिता कुछ खरीददारी के लिए शहर ही रुक गए। दोनों मां बेटी नदी के रास्ते गांव लौटने लगे ।सुरू को उसकी मां ने एक बांसुरी दिलाई थी ,सुरु उसको लेकर खुश थी बाल सुलभ जिज्ञासा और उत्साह से लबरेज थी। वह बार-बार उसमें सांस फूंकती और उसकी मां उस बेसुर में ही सुर सुन ले रही थी । नाव में सुरू लहरों से खेलने लगी। छोटी बच्ची के हाथ पानी तक नहीं पहुंच रहे थे, उसने अपने शरीर को थोड़ा आगे किया और पानी छूने की कोशिश में वह नदी में गिर गई ।उसके गिरते ही सुरु कर मां ने अपनी बच्ची को बचाने के लिए छलांग लगा दी ।हालांकि उसे तैरना नहीं आता था ।बहाव बहुत तेज था ,और नदी काफी गहरी ही है। नाव में बैठे कुछ अन्य लोग इन्हें बचाने के लिए कूद गए ।सुरू बचा ली गई पर ,उसकी मां न जाने बहाव में कहां चली गई ......
उसकी लाश भी बरामद ना हुई ।
सुरू के पिता ने लौटकर अपनी दुनिया उजड़ी हुई पाई ।सिर्फ इतना ही नहीं उस घटनाक्रम में सुरू के दिमाग में बहुत असर डाला ....उसके मुंह से आवाज निकलना ही बंद हो गई। गुमसुम उदास और खोई हुई रहने लगी ।शहर ले जाकर उसे डॉक्टर को भी दिखाया गया ,किसी तरह इलाज शुरू किया गया ,पर डॉक्टर ने बताया कि सुरु के दिमाग में सदमे का असर है ।जिसकी वजह से वह बोल नहीं पा रही ।
हां पर सुरू के साथ हरदम ही थी उसकी बांसुरी जो उसकी मां ने उसे दिलाई थी ।सुरू कभी-कभी उसमें ही स्वर फूंक ही देती थी ।डॉक्टर ने दिलासा दिया कि इसकी आवाज़ वापस आ सकती है ,और दवाइयां चल रही थी ।
किसी तरह दोनों बाप बेटी गृहस्थी रमा रहे थे ।पर बच्ची को अपने पीछे अकेले छोड़कर जाने से वह डरता था । काम नहीं करेगा तो क्या होगा ...खाएंगे कैसे ??यही सोचकर उसने दूसरों की सलाह से दूसरी शादी कर ली ।चंपा सुरू की दूर की मौसी थी ,जो कि परितक्त्या थी और पहली शादी से उसकी दो बेटियां थी ।दोनों सुरू से बड़ी थी ।शादी के बाद तो उसने सुरू को शुरुआत में बहुत प्यार दिया। धीरे-धीरे उसने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिए ।दोनों बेटियां स्कूल जाती और सुरू घर का काम करती। बापू ने कई बार मना किया ,हर बार चंपा आत्महत्या की धमकी देकर उसका मुंह बंद करा देती ।वह धीरे-धीरे घर से और ज्यादा बाहर रहने लगा ,और सुरू पर अत्याचार बढ़ता चला जा रहा था दोनों बहने गूंगी कह शुरू का मजाक उड़ाती , पहनने के लिए उतरन दी जाती ।सारे घर का काम सुरू से कराया जाता ।सुरू बिल्कुल अकेली हो चुकी थी ।उसके कोई साथी नहीं थे, ना घर ना बाहर ,ना स्कूल उसकी किस्मत में। अगर कोई साथ था तो ,बस वह बांसुरी जब वह बहुत दुखी हो जाती तो अपनी बांसुरी लेकर नदी के किनारे आम के बगीचे में चली जाती ,और अपने स्वरों से न जाने किसे पुकारती।
धीरे-धीरे वक्त बीता जमीन बेचकर सुरू की बहनों की शादी हुई ।इसी बीच सुरू के पिता बीमार हुए और फिर ऐसे खाट पकड़ी कि दोबारा नहीं उठे ।सुरू धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी ।उसके बांसुरी के स्वर और भी ज्यादा मार्मिक हो चले थे। गांव के सम्पन्न लोग अपनी बेटियों की शादी में शहनाई की जगह सुरू को ही बांसुरी बजाने के लिए बुलाते हैं। कठोर से कठोर प्राणी भी रो पड़े वह दर्द फूंकती सुुरु की बांसुरी । शायद उसका सारा दर्द उसी बांसुरी से झलकता था । चंपा उसकी सौतेली मां सुरू की बांसुरी के बदले मूल्य वसूल लेती थी ,और इसी शर्त पर वह उसे जाने भी देती थी। सुरू चाहकर भी उसका विरोध नहीं कर सकती थी ।विरोध करने पर जलती हुई लकड़ी से उसे आंकना, उसे पीटना आम हो चला था ।सुरू का अपना कहने वाला कोई नहीं , बाप है जो से अजनबी से बन गए,मां तो सौतेली ही रही ।इस अकेलेपन में सुरु ने साथी बनाया बांसुरी को ,नदी किनारे हलचल करती मछलियों ,बगीचे में आम के पेड़ों को, उस पर बैठने वाले पक्षियों को और गायों को।
सब बताते हुए नानी की आंखें भर आईं थी,मैं बिल्कुल स्तब्ध थी। फूलों सी नाजुक सुरभाषी ने क्या कुछ झेला अपनी जिंदगी में।
दूसरे दिन मैंने शहर जा रहे मामा जी दवाइयों की लिस्ट दे दी,जो सुरु के बापू के लिए थी। शाम को मामा जी के आते जैसे ही दवाइयां मेरे हाँथ लगी; मैं तुरंत सुरु के घर की ओर लगभग दौड़ सी लगा दी।ना जाने क्यों मेरे मन के एक कोमल से कोने में सुरु किसी करुण मूर्ति सी विराजित हो चुकी थी। मैं उसकी तकलीफें हर कोशिश कर कम करना चाहती थी। जर्जर से दरवाज़े को थपथपाने की आवाज़ से सुरु ने ही सांकल खोली। मुझे देखकर एक खुशी की चमक और भोली मुस्कान बिखेर कर इशारे से अंदर बुला कर हाँथ जोड़ कर अभिवादन किया।
मैंने उसके हांथ ने चूल्हा फूंकने वाली धौकनी देखी। शायद वो खाना बना रही थी। चंपा मामी अपने बीमार पति के बाजू से खाट पर बैठे हुए अपने खुरदुरे और कटे फटे पैरों को बड़े जतन से महावर लगा कर संवार रही थी। मुझे देखके लाल कत्थई से दांत निकाल उठ कर मेरा स्वागत किया। मैंने उन्हें दवाइयों का थैला और हिदायत दी,और खाना बनाने में व्यस्त सुरु को आवाज़ देकर हाँथ हिलाकर वापस लौट पड़ी। अद्भुत सौंदर्य था सुरु का । लकड़ी की कालिख माथे पर फैल कर जैसे उस पसीने में डूबे चेहरे को नज़र से बचा रही थी।और उस पर बेतरतीब बंधे बालों की झूलती लत ,जैसे कोई नागिन किसी धवल वस्त्र पर बल खाए।
दूसरे दिन शाम को सुरु मुझे घर जी चौखट की ओट पर खड़ी दिखी। नानी से उसे इशारे से अंदर बुलाया, वो आज पहली बार मुझे थोड़ी सी खुश दिखी। आते ही उसने मेरे हांथों को पकड़ कर अपने माथे से लगा लिया। मैंने उसकी आँखों मे झिलमिलाते खुशी के आंसू देखे। समझ तो मैं गई थी कि ये धन्यवाद ज्ञापन का तरीका है। मैने उसे पगली बोल कर प्यार से उसके गालों में चपत लगाई। वो काफी देर तक मेरे कुर्सी का पाया पकड़ कर नीचे ही बैठी रही। बीच बीच मे अपनी निश्छल हंसी से जता जाती की में शामिल हूँ।
सुरु का अब लगभग रोज का शाम का यही क्रम था। उसका कुछ वक्त हमारे घर मे बीतता।4 दिन बाद सरपंच मामा जी अचानक घर आए ,और मुझे बताया कि गांव के बड़े मन्दिर में जन्माष्टमी का कार्यक्रम आयोजित होगा। और इस बार शहर से सेठ दीनदयाल(वो मन्दिर उनके ही किसी पूर्वज ने बनवाया था ) इस कार्यक्रम में खास तौर पर शामिल होंगे। सरपंच जी कार्यक्रमों के लेकर मुझसे मदद और सलाह चाहते थे।
मेरे मन मे यकायक एक नृत्यनाटिका का ख्याल आया। हां उसका केंद्र सुरभाषी ही थी। मेरी सलाह उन्हें बहुत जँची। चंपा मामी की कमज़ोरी मुझे पता थी,अगले दिन कुछ रुपये उन्हें देकर सुरु के लिए मैंने इजाजत मांग ली।
गांव की कुछ अन्य लड़कियों ,छोटे लड़कों और सुरु की खास सहेलियों "गायों" के साथ मैंने पूरे जतन से नाटिका तैयार कराई। सुरु की बांसुरी अब मुस्कुरा रही थी।
जन्माष्टमी के दिन मंदिर के भव्य प्रांगण ने सारी तैयारियां हो चुकी थी। सेठ दीनदयाल तय समय से कुछ विलंब में पहुंचे। अभिजात्य से दमकता चेहरा,60 से 65 के बीच की अवस्था , सर के बाल उम्र के साथ उड़ चुके थे । आंखें भूरी और बड़ी शातिर सी लगी । उनके स्वागत के पश्चात ,मुख्य पूजा हुई और फिर नाटिका मंचन की बारी थी।सुरु थोड़ा डरी,पर मैंने उसे दिलासा दिया कि सिर्फ बांसुरी ही तो बजाना है। नाटिका के मंचन में सुरभाषी ने कृष्ण को साक्षात ही खुद में उतार लिया था। उसकी भव्य छवि ,बांसुरी के मधुर स्वर वहां मौजूद हर व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर चुके थे। इस नाटिका में सुरु की गाय सखियों ने बड़े अनुशासन से उसका साथ दिया। नाटिका खत्म होते ही सेठ जी मुक्त कंठ सराहना कर सुरु को बुला कर गले मे पहनी हुई सोने की चेन उतार कर इनाम स्वरूप दिया। जिसे भीड़ में खड़ी चंपा मामी ने मंच पर जाकर सबके सामने ही छीनते हुए ,सेठ जी का चरण वंदन किया। सेठ जी की नज़र सुरु पर ही थी।
कार्यक्रम के अंत मे मुझे उनसे मिलाया गया। और वो गांव के विकास के लिए कुछ मदद की घोषणा करते हुए रवाना हुए। भण्डारे के बाद सब अपने घर का रुख किये। उस रात मेरे कानों में सिर्फ सुरु की बांसुरी गूंज रही थी,और बन्द आंखों में उसकी कृष्ण रूप छवि।
अगले दिन सुरु दोपहर ही घर पर पहुंच गई। और ना जाने साधिकार मुझे खींचते हुए कहां ले जाने लगी। थोड़ी देर में मुझे इसका जवाब मिल गया। वो सुरु का इस गांव में अपना खास कोना था, उसके दोस्त और सखियों का।
हाँ नदी किनारे आम का बगीचा , वहाँ ठहरी गायों का झुंड और नदी किनारे उछलती मछलियां। शायद वो सुरु की बांसुरी में नाचती थी।
मैंने देखा सुरु ने आम के पत्तों को विशेष तरह मोड़ कर ताले नुमा आकृति बनाई है। और लगभग पेड़ हर डाल में लटकाया हुआ है। मेरे पूछने पर उसने इशारे से बताया कि ये उन पेड़ो और गायों से अपने रिश्ते और प्यार को इन तालों के रूप में सुरक्षित कर रही है,ये उसी का प्रतीक। उस दिन सुरु ने उन मछलियों का विशेष उछलकूद मुझे दिखाई जो उसकी बांसुरी ओर कूदती थीं। मैंने सम्भवतः सुरु के उस विशेष आरक्षित कोने में खुद का स्थान निश्चित कर लिया था।
तीसरे दिन मुझे वापस लौटना था , क्योंकि मेरी पहली पोस्टिंग के लिए मुझे तैयारी ज निकलना था। सुरु को पता चलते ही उसकी आँखों की गंगा जमुना रुकने का नाम ही नही ले रही थी। मैंने सुरु से लौटते वक्त वादा लिया कि वो खुश रहेगी और वापस बोलने की कोशिश भी करेगी। नदी के रास्ते वापस लौटते हुए सुरु मुझे तब तक दिखाई दी जब तक मेरी नाव दृष्टि सीमा से पार ना हो गई। मैं लौट आई थी अपने घर के अलावा एक और अपनी बना कर।
वापस आकर मैं काम मे कुछ यूं उलझी की काफी वक्त तक सीतामढ़ी की कोई खबर ना ले पाई।पर मेरे ख्यालों से सुरु कभी गई ही नहीं।
लगभग 11 महीने बाद हमें एक स्वास्थ्य शिविर ने जाने का आदेश मिला। सारे नव पदस्थापना वाले डॉक्टर उसमे निश्चित दिन की ड्यूटी पूरी करेंगे। मैं तो ये खबर पाकर ख़ुश हो गई......क्यों???? क्यों वो गांव सीतामढ़ी के नजदीक था। और मैने तय किया कि घर पर ही रुक कर कैम्प आया- जाया करूँगी।
सुरु अचानक ही मेरे दिमाग मे हावी होने लगी। उससे मिलने के लिए मैं बेताब हो रही थी। मैं गांव पहुंची और मुझे देखकर घर और अब खिल गए। थकान की वजह से मैं दोपहर खाना खाकर सो गई थी। अचानक मुझे थोड़ी देर में सुरु की बांसुरी की स्वर लहरी सुनाई दी। मैं खुशी से उठ बैठी।
नानी ने अचानक मुझे जगा पाकर कारण पूछा । मैंने बोला मुझे सुरु से मिलना है ,उसकी बांसुरी मुझे सुनाई दी।
नानी घबरा कर बोली ,चुप कर कहीं कोई बांसुरी नही है।
नानी की स्थिति देखकर इतना तो मैं समझ गई थी कि कहीं कुछ दुखद हुआ। मेरे लाख पूछने पर भी उन्होंने ना बताया।
शाम को जब मैं सुरभाषी से मिलने उसके घर जाने को तैयार हुई तब नानी का सब्र भी चुक गया। उनकी रुलाई सी फूट पड़ी। उन्होंने रोते हुए बताया सुरु अब नही रही। मुझे यकीन ना हुआ। मैं अवाक सी रह गई। नानी ने बताना की मेरे जाने के कुछ दिन बाद सेठ जी वापस गांव आए थे। सीधे सुरु के घर गए ,और विवाह का प्रस्ताव दिया। उसके बापू तैयार ना थे पर चंपा के आगे किसी की एक ना चली । सेठ जी ने एक नियत दिन पर सुरु को शहर बुला कर शादी करने का वादा कर वापस चले गए। सुरु का तो सब कुछ जैसे दांव पर था। तुम्हारे जाने के बाद वो खुश रहने की कोशिश करती थी, रोज मन्दिर जाकर बांसुरी बजाती ,शायद वापस बोलने की आशा से। 15 दिन करीब वो उसी बागीचे में रोती रहती। कभी गायों के पास .....उसकी तकलीफ ना वो बोल सकती थी ,और जिसे समझना चाहिए था वो पत्थर की बनी थी। गांव वाले चंपा को समझाए तो उल्टा उन्हें सुरु के भाग्य के दुश्मन ठहराकर अपशब्द बोलती।
हर दोपहर सुरु की बांसुरी के करुण स्वर सबका हृदय उद्वेलित करने लगे। मर्म पर कुछ तोड़ से जाते,पर सब बस सुन सकते थे कुछ कर नही पाए। सेठ जी का भी डर ,सो उनसे कौन बैर मोल ले। नियत तिथि पर सेठ जी का मुनीम शादी का जोड़ा-गहने और नगद रुपये लेकर सुरभाषी के घर उसे शहर ले जाने को हाज़िर हुआ। चंपा ने पैसे चट से अपने पास रख सुरु को जोड़ा पहनने का आदेश दिया। सुरु के मना करने पर उसके बापू सहित खुद को मार लेने की धमकी देकर उसे जोड़ा पहनाया। सुरु रोए जा रही थी,और चंपा उत्साहित। तैयार कर ज्यों ही उसे घर से बाहर भेजने का वक़्त आया सुरु की आर्तनाद और रुलाई अपने बापू से लिपट कर इस स्वर में फूटी की पत्थर भी फट जाए।
सुरु देहरी को दोनों हांथों से थाम कर खुद को वहीं रोकने का प्रयास कर रही थी और चंपा उसे बाहर की ओर खींच रही थी। इस प्रयास में देहरी की कीलें सुरु की हथेलियों को लहूलुहान कर चुकी थी। इस रोकने और खींचे जाने की कवायद में चंपा ने जोर से दरवाजा बंद किया और सुरु की एक तेज़ चीख गूंज गई। लहूलुहान हाँथ और दर्द से तड़पती सुरु अचानक उठ कर बगीचे की ओर भागी। मुनीम और चंपा उसके पीछे भागे। सुरु आम के हर पेड़ से लिपट कर बस रोए जा रही थी, ऐसा लग रहा था कि उस मजबूर की पुकार सिर्फ वही सुन सकते ,सिर्फ वही उसके अपने। गायों के झुंड ने उसे घेर लिया था जैसे उसकी रक्षा कर रहे हों,और पक्षियों ने ऐसा कलरव किया कि कान फटने को थे। चम्पा और मुनीम उस तक पहुंच ही ना पा रहे थे। सुरभाषी हर एक गाय को गले से लगाकर रो रही थी।
उसके हांथों से बहते खून ने पेड़ों और गायों के शरीर पर ऐसे छाप बना दी थी जैसे विदा होती बेटी घर छोड़ने पर सिंदूर रचे हांथा बनाती।
ना जाने कितना कुछ बोलना चाहती होगी सुरभाषी, कितने मनुहार, कितनी प्रार्थना अपनों से खुद को दूर ना भेजने के लिए। उसके दिल मे जो घुमड़ रहा था वो शायद कोई नही सुन सका था सिर्फ उन मूक पेड़ों, गायों और पक्षियों के सिवा। सिर्फ उसकी मूक विदाई के साथी प्रकृति के सिर्फ मूक अंग ही बने। जो सिर्फ संवेदना और करुणा महसूस कर सकते थे। सुरभाषी के दिल मे उड़ रहे भावनाओं के तूफान को शब्द नही थे, उसे समझा वही जो बोल नही सकते थे। सुरभाषी बस बेतहासा बिलख रही थी।
अब तक मुंशी ने अन्य मातहतों के साथ मिलकर गायों को मारकर भागना शुरू किया। कील लगे मोटे लट्ठ गायों को घाव भी देने लगे और चोट भी ,और वो चोट सुरु के दिल दिमाग और ज्यादा लगी। सुरु तड़प सी उठी और खुद चुपचाप मुनीम की ओर बढ़ चली। अंतिम बार उसने पलट कर बगीचे को देखा ,गायों को सहलाकर प्यार किया,सजल आंखों से उन पक्षियों को देखा जैसे कह रही हो कि सिर्फ मेरी विदाई तुम सब ही समझ और महसूस कर पाए।ना जाने कितने शब्द उस अंतिम चितवन से वो बोल गई। गायों के रँभाने का स्वर बहुत तेज़ हो चुका था पर सुरभाषी अब वो शान्त हो चुकी थी, धीरे से चलते हुए नदी के किनारे पहुंची जहां वो मछलियों को आटा खिलाती। अपने हाँथ से किनारे की गीली मिट्टी लेकर गोली सी बनाकर नदी में डाल दी,मछलियां उस दिन उछली नहीं थी,किनारे पानी मे पड़े उसके पैर के आस पास ही झुंड़ बनाकर शांत थी।
सुरभाषी बेझिल कदम से खोई हुई सी नाव पर जाकर बैठ गई,फिर धीरे से अपने कपड़ों से बांसुरी निकाल के एक बार स्वर लगाई और उसे नदी में प्रवाहित कर दिया जैसे वो अपना तर्पण ही कर दी हो,बिल्कुल वही भाव । गांव के सभी उसे हाँथ हिलाकर नम आंखों से विदाई दिए ,पर वो मूर्तिवत जड़ ही चली गई। उसके चेहरे पर हांथों से निकला खून लगा हुआ था, ऐसा लगा कि जैसे कोई उदास सी सिंदूर लगी दुर्गा प्रतिमा का विसर्जन होने वाला है।
एक हफ्ते बाद नदी में उसी बगीचे के किनारे वाली जगह में सुरु का मृत शरीर तैरता हुआ मिला। गांव में हंगामा मचा हुआ था। उसके कलाई में रस्सी से बंधे होने का निशान गाढ़ा था। पर किसी ने कुछ ना कहा इस मौत पर, हां चंपा के घड़ियाली आंसू जरूर सबने घृणा से देखे। सेठ जी की कोठी पर माली का काम करने वाले गांव के ही हल्कू ने बताया कि 1 हफ्ते तक रोज़ उस कोठी से चीखें सुनाई देती थी सेठ जी की गालियों के स्वरों के बीच, जिसमे गूंगी और बाप की औकात का खास उल्लेख होता। हर सुबह गुलाब की सैकड़ों कुचली हुई कलियां कोठी के कचरे के ढेर से निकलती थी।।
सुरु लौट चुकी थी उस नदी में प्रवाहित अपनी आत्मा के पास , अपने सबसे प्यारे साथियों के पास। पर उसके स्वर अब मूक नहीं थे। हर रोज उसकी बांसुरी गूंज रही थी ,उसके आत्मीयों के सानिध्य में।
हां सुरभाषी के बांसुरी के सुर अब बिन बजे ही हर किसी को सुनाई देते थे। वो अब इतने मुखर थे कि उन्हें अब शांत नहीं कराया जा सकता था...........हां सुनो,वो अब भी गूंज रहे मेरे कानों में एक आर्त स्वर से। मैनें कान बन्द कर लिए,पर सुरभाषी के सुर गूंज ही रहे........................
-डॉ. मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी