कृष्ण,
हम सनातनियों....अरे ये गलत कहा मैंने....सनातनी नहीं तथाकथित हिंदू....अपनी सुविधानुसार कृष्ण का नाम , छवि का उपयोग किसी की रंगीली छवि या कूल ड्यूडवाली #प्लेबॉय छवि के लिए करते हैं।
आश्चर्य होता है की कि उनका नाम; उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व या कृतित्व को भूलकर कुछ पढ़े- लिखे अनपढ़ अपने गलत कार्यों या सोच को उच्च दिखाने के लिए बोलते। हास्य...... नहीं नहीं मुझे तो रणनीति लगती ,एक ऐसी छवि को दूषित करने के लिए जिसके अनुयाई सिर्फ भारत में नहीं , वरन पूरे विश्व में संभवतः सबसे अधिक होंगे।
इस तुलना करते वक्त हम भूल जाते हैं कि कृष्ण होने का अर्थ ; यातना सहते हुए मां की कोख से जन्म लेकर तुरंत उनसे दूर होना था... जब पालक के स्नेह में आकंठ डूबे थे तो जन्मस्थल के प्रति कर्तव्य हेतु उन्हें अपनी यशोदा मां , साथी ग्वाल बाल ,गोपियां और प्राणवल्लभा राधा को छोड़ना पड़ा...
गोकुल छोड़ा फिर मथुरा के होके भी नहीं रह पाए ।
कुछ न कुछ छूटता ही रहा... नहीं छूटा तो ईश्वर होकर भी सीमाओं को निभाते हुए कर्म और कर्तव्य करते हुए सदा अधरों पर खिलती उनकी मोहक मुस्कान ।
हर स्थितियों में जीवंतता को बनाए रखना , कभी हार नहीं मानना यही तो कृष्ण ने अपने जीवन में दर्शाया और सिखाया.....भावों से पूर्ण होकर भी कर्म हेतु सम्पूर्ण त्याग।
आसान नहीं थी ये यात्रा ...... राम से चलकर कृष्ण होने की पूर्णता जीना...।
राम राजा हैं ,कृष्ण राज्य के स्थापक। राम ने मर्यादा से बांध कर रखा स्वयं को .....कृष्ण मर्यादा की सीमा को बांधना सिखाए ...उसके बाद दंड का प्रावधान भी...शिशुपाल याद है ना।
राम रण में अपनों के लिए बिलखते हैं ,अस्थिर चित्त होते हैं ,कृष्ण अपने सबसे प्रिय की भी आहुति से पीछे नहीं हटते। अभिमन्यु याद है ना।
राम ने स्वयं को माया के बस हो जाने की मर्यादा रखी , और कृष्ण ने भ्रम को तोड़ने की चेष्टाएं। पूतना ,बकासुर याद हैं ना।
राम सामाजिक मूल्यों के लिए लड़ते हैं, कृष्ण समाज में मानव के अधिकार के लिए....... पांडव याद हैं ना..
राम ने लोक के लिए एक स्त्री - स्वयं की पत्नी को त्यागा..और कृष्ण से लोक से त्याग की स्थिति की स्त्रियों को पत्नी का स्थान दिया... १८, ०००रानियां याद हैं ना।
कृष्ण ने सदैव धर्म को कर्म से निभाकर आदर्श स्थिति स्थापित की। सर्वशक्तिमान होने पर भी एक दुखी मां के श्राप को सहर्ष स्वीकार किया। क्योंकि वो धर्म स्थापना की उनके वंश के विनाश का कारण होना था।
वो क्या था की बांसुरी से ही सबको मोहित करने की क्षमता वाले कृष्ण ने सदा के लिए बांसुरी त्याग दी थी? देह से अलग आत्मिक प्रेम की पराकाष्ठा का उदाहरण , त्रिकाल दर्शी होने पर भी वर्तमान के अनुरूप व्यतीत होना....विनाश के फन पर लास्य का आनंद जीवित रखना .... प्रतिपल त्याग करते हुए भी स्वयं में सृष्टि हो जाना ....ये कृष्ण हैं।
तो अब जब भी कृष्ण से तुलना कर स्वयं को सही सिद्ध करने का प्रयास करें तो एक बार स्मरण करिएगा की रास रचैया क्यों योगेश्वर होकर
*महाभारत* के सारथी हुए । और जब आप स्वयं इन प्रश्नों के उत्तर खोज लेंगे तो अपनी तुलना की चेष्टा क्षुद्र प्रयास लगेगा।
*कृष्ण का जीवन आत्मसमिधा- आत्महवि का सफल कार्मिक यज्ञ है*।
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏
#ब्रह्मनाद
#डॉ मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी
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