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शनिवार, 10 जून 2023

खुशियों का खग्रास


 घनीभूत पीड़ाओं के विषम ज्वार..... 

नहीं होते नियंत्रित ,चांद की कलाओं से।

जीवन के उतार-चढ़ाव,

अक्सर दोहराए जाते,

शापित हो अनुप्रासों में।


अनचाहे ही अक्सर ये डुबो जाते,

काली पुतलियों से सजे ,

एक जोड़ी सफेद कटोरों को,

एक नमक से भरे ,खारे एहसासों में।।


कई अनमनी अभिव्यक्तियां सहसा,

रोक ली जाती हैं ,होंठों के कोरो पर आकर,

बहुत कुछ छुपा कर ,

दर्द झलक ही जाता,बदनुमा से दागों में।।


चीत्कार कर उठती जब आत्मा,

कई मूक यंत्रणाओं में,छलक ही उठता प्रमाद,

लाल डोरों से चमकती ,

आंखों की चिंगारियों में।।


संघनित, ऊष्मित ...

आत्मिक घावों से रिसती मवाद,

थिरने लगी है अब ,कही गहरे , 

किसी तलहटी को तलाशते ,

जहां ना शेष हो कोई अवसाद,

बैचेनियों को मिले, 

सासों का अंतिम ग्रास ,

क्या सांसों संग ही अब पूरा होगा,

जीवन के खुशियों का खग्रास ।


#डॉ_मधूलिका

#ब्रह्मनाद 

सोमवार, 5 जून 2023

अनन्त


 तुम मेरी सोच में रहते हो ,या मैं तुम्हारी सोच में जीती हूँ। हर वक़्त तुमको सोचती हूँ ,या सोच की वजह से ही मैं रहती हूँ।

यहां वाक्य नहीं भावना महत्वपूर्ण है। किसी के होना , उसके लिए सोचना ,उसे याद करते रहना ही किसी का जीवन बन जाता है। 

एक विद्वान का कहना था कि "ईश्वर और मनुष्य ने एक दूसरे को देखा और दोनों के मुँह से निकला कि अहा, मेरी कृति".... । मनुष्य को अपनी क्षमता से परे जाने के लिए ,अपनी असफलता के दुखड़े को रोने के लिए, आगे बढ़ने की आस बनाए रखने के लिए एक स्तम्भ चाहिए होता। इसलिए उसने ईश्वर को गढ़ा। फिर तर्क आता कि हमें किसने गढ़ा.... ईश्वर /पराशक्ति।जिसे हम परिभाषित न कर सकें, जिसके आगे हमारी सोच न जा सके, जिसके होने से ही हमें अपने अस्तित्व का आसरा मिला...... वही ईश्वर। पता नहीं हमने गढ़ा या वो था या है या हमने ढूंढा। बस आस्था के अनुसार हम उसी का हिस्सा ,और वो हर वक़्त हममें रहता। आस्था में तर्क नहीं होते। इसलिए हम कभी खोजने का प्रयास ही नहीं करते।

अगर वो नहीं होता ......तो जिक्र ही नहीं होता....और अगर वो है तो अन्य किसी बात की फिक्र ही कहाँ.... । 

निश्चित ही प्रेम भी किसी घोर आस्तिक की उपज है। जिसने माना कि प्रिय के बिना हम कुछ नहीं। उसका होना ही हमारा होना है।हमारे सुख ,दुख ,प्रमाद ,अवसाद सबसे उससे ही शुरू ,उससे ही खत्म.... । प्रेम में हम जिसकी वजह से हैं, वो हमारे ही वजूद का एक अंग जिसके बिना जीवन नहीं। मानिए जैसे संसार और जीवन। एक दूसरे के हिस्सा और एक दूसरे बिना अस्तित्वहीन। अगर जीवन न हो तो इस निर्जीव संसार की परिकल्पना इतनी अद्भुत और रोमांचक कहाँ लगने वाली!!!! और अगर ये संसार न हो तो जीवन कहाँ से आएगा। 

तभी तो अनंत की परिकल्पना एक लेटे हुए 8 जैसी है। गूंथा हुआ ....ऐसा जिसका छोर न खोजा जा सके। कहाँ शुरू हुआ ,कहाँ खत्म ये ज्ञात ही नहीं होता। यही तो प्रेम का भी संकेत.... प्रेमी और प्रेमिका ,जीवन और संसार से..... कौन किसमें कुछ नहीं कहा जा सकता। ये चक्र भी अनन्त है, संसार के अस्तित्व की तरह.... जहाँ स्वयं 0 होकर भी अनन्त की परिकल्पना को सार्थक कर लिया जाए.... वही ब्रम्हांड है ....वही संसार .....वही प्रेम है। 

#डॉ_मधूलिका 

#ब्रह्मनाद

गुरुवार, 1 जून 2023

नदी और जीवन का मौन


 धीरे-धीरे चुप हो चली हूँ। अगर काम और बच्ची के लिए बात करना मजबूरी न हो तो शायद दिन भर में 1 वाक्य भी ना बोलूं। शुक्र है कि इस दौर की सुविधाओं में मोबाइल के जरिये सन्देश भेज कर बात कह देने का विकल्प आ गया,वरना मन मार कर बोलना पड़ता ही। 


कभी हमेशा हंसती थी। शायद ही कभी चेहरे की मुस्कान वाली मांसपेशियों को राहत मिलती रही हो। तकलीफ भी रहे तो पता नहीं क्यों ये मुस्कान अपना ठिकाना नहीं छोड़ती थी। ढीठ किरायेदार की तरह मकान खाली करने को ही तैयार न होती थी।साथ ही ये संक्रामक भी हुआ करती थी....दूसरों को भी मुस्कुराते रहने की बीमारी लगा ही देती थी।

पता नहीं कब अचानक अंदर से जीवंत सी नदी गायब ही हो गई। नदी जीवंतता की निशानी होती हैं।उछलती ,मचलती ,कभी पूरे पाट पर फैली,कभी एक छोटे से जगह से भी रास्ता तलाश लेती। पत्थर रास्ते मे हों तो उससे भिड़ती नहीं,किसी न किसी तरह पार कर ही लेती। विपरीत स्थिति में सिकुड़ जाती तो वक़्त आते ही वापस अपना यौवन पा कर वर्जनाएं तोड़ कर बढ़ जाती।अब वो जीवंत भाव खुद में सागर में बदलता महसूस हो रहा।जैसे कहीं गहरी खोती चली जा रही हूँ।कभी ज्वार भाटा की तरह भावना उमड़ भी जाती तो ऊंचाई से उठने वाली लहरों की तरह वापस बहुत गहराई में चली जाती। सागर जैसे सब कुछ समा कर शांत बना रहता ,अपनी गहराई में न जाने कितना कुछ समेटे,अब धीरे धीरे मैं भी वही बन रही। 

कहते हैं कि अधजल गघरी छलकती है....सम्भवतः मैं ऐसी ही थी।जब मैं का भाव प्रबल था ,अपनी जानकारी का दर्प था .....तब मैं वाचाल और बेवजह हंसने वाली थी।

किनारों पर उथली हूँ पर जितना गहरी जाती जा रही, सब कुछ ऊपर से थमता सा जा रहा, ज्ञात होती जा रही अपनी अज्ञानता ,कमियां ,थोथापन ।सम्भवतः  कोई बदलाव अब न बहुत उत्साह देता न ही कोई दुख ;कोई गहरी चोट। और आसूं..... उसी के खारेपन का सागर बना हुआ। कई मीठे पानी की नदियों की मौत और अंत ऐसे ही हुआ है। गहराई में घुलती हुई ,अपने ही सभी दुखो से जन्मे आसुओं के साथ शांत होती हुई .... अथाह सागर में बदल जाती। और फिर उनका पुर्नजन्म कभी नही होगा।उनकी जीवंतता फिर कभी नही वापस आती। उसकी कल -कल गति एक गहरी चुप्पी में बदल जाती। और वो चुप्पी हमें चीखती हुई लगती।कई भावानाओं की धारा की शांत करने सागर में बदलने की दशा..... ऊपर हलचल भीतर बस थमी हुई गहराई और शांति। 

 तब वो अनन्त में शून्य हो जाती और फिर खुद की ही गहराई में खोती चली जाती। विलीन हो जाती कोलाहल से गुजर कर .......नाद में । 


#डॉ_मधूलिका 

#ब्रह्मनाद