तुम मेरी सोच में रहते हो ,या मैं तुम्हारी सोच में जीती हूँ। हर वक़्त तुमको सोचती हूँ ,या सोच की वजह से ही मैं रहती हूँ।
यहां वाक्य नहीं भावना महत्वपूर्ण है। किसी के होना , उसके लिए सोचना ,उसे याद करते रहना ही किसी का जीवन बन जाता है।
एक विद्वान का कहना था कि "ईश्वर और मनुष्य ने एक दूसरे को देखा और दोनों के मुँह से निकला कि अहा, मेरी कृति".... । मनुष्य को अपनी क्षमता से परे जाने के लिए ,अपनी असफलता के दुखड़े को रोने के लिए, आगे बढ़ने की आस बनाए रखने के लिए एक स्तम्भ चाहिए होता। इसलिए उसने ईश्वर को गढ़ा। फिर तर्क आता कि हमें किसने गढ़ा.... ईश्वर /पराशक्ति।जिसे हम परिभाषित न कर सकें, जिसके आगे हमारी सोच न जा सके, जिसके होने से ही हमें अपने अस्तित्व का आसरा मिला...... वही ईश्वर। पता नहीं हमने गढ़ा या वो था या है या हमने ढूंढा। बस आस्था के अनुसार हम उसी का हिस्सा ,और वो हर वक़्त हममें रहता। आस्था में तर्क नहीं होते। इसलिए हम कभी खोजने का प्रयास ही नहीं करते।
अगर वो नहीं होता ......तो जिक्र ही नहीं होता....और अगर वो है तो अन्य किसी बात की फिक्र ही कहाँ.... ।
निश्चित ही प्रेम भी किसी घोर आस्तिक की उपज है। जिसने माना कि प्रिय के बिना हम कुछ नहीं। उसका होना ही हमारा होना है।हमारे सुख ,दुख ,प्रमाद ,अवसाद सबसे उससे ही शुरू ,उससे ही खत्म.... । प्रेम में हम जिसकी वजह से हैं, वो हमारे ही वजूद का एक अंग जिसके बिना जीवन नहीं। मानिए जैसे संसार और जीवन। एक दूसरे के हिस्सा और एक दूसरे बिना अस्तित्वहीन। अगर जीवन न हो तो इस निर्जीव संसार की परिकल्पना इतनी अद्भुत और रोमांचक कहाँ लगने वाली!!!! और अगर ये संसार न हो तो जीवन कहाँ से आएगा।
तभी तो अनंत की परिकल्पना एक लेटे हुए 8 जैसी है। गूंथा हुआ ....ऐसा जिसका छोर न खोजा जा सके। कहाँ शुरू हुआ ,कहाँ खत्म ये ज्ञात ही नहीं होता। यही तो प्रेम का भी संकेत.... प्रेमी और प्रेमिका ,जीवन और संसार से..... कौन किसमें कुछ नहीं कहा जा सकता। ये चक्र भी अनन्त है, संसार के अस्तित्व की तरह.... जहाँ स्वयं 0 होकर भी अनन्त की परिकल्पना को सार्थक कर लिया जाए.... वही ब्रम्हांड है ....वही संसार .....वही प्रेम है।
#डॉ_मधूलिका
#ब्रह्मनाद
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