किसी की मृत्यु का अवसर; अक्सर मुझमें प्रश्नोत्तरी की लंबी श्रृंखला को उभार ही देता है। जीवन के सत्य और तत्व को लेकर ताने बाने मस्तिष्क में उलझने लगते। कई प्रश्न अचानक ही समुद्र की ऊंची लहरों से उमड़ने लगते हैं। पर जवाब क्या होगा…. ये अज्ञात….। स्वयं में ही उलझे हुए ,स्वयं को अपने ही तर्कों से शांत करना कभी कभी खुद को छलने जैसा लगता। बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी भूखे बच्चे की माँ ,पतीले पर पानी छनकाते हुए खाना बनाने का स्वांग रचते हुए ,बच्चों के सोने की प्रार्थना करती। कुछ यूं होता अपने प्रश्न और अपने ही जवाब का।
श्मशान में किसी चिता को जलाने का कर्म करने वाले इंसान को स्थिर रूप से सारी कर्म करते हुए देखकर मैं सोचने लग जाती हूँ,कि क्या इसके लिए मृत्यु को स्वीकार करना सिर्फ इसका काम??? क्या इसकी मनोस्थिति विचलित नहीं होती होगी?? क्या अपने किसी परिचित ,आत्मीय या पारिवारिक व्यक्ति की मृत्यु में भी इतना ही स्थिर व्यवहार रख पाता होगा। क्या इसके लिए मोह का भाव उतना प्रबल होता होगा ,जितना आम इंसान के लिए।
बनारस में मणिकर्णिका जैसे घाट पर लगातार जलती चिताओं के बीच अपने कर्म को पूर्ण करने वाले क्या मोह और सत्य के अंतर को सहज स्वीकार कर पाते होंगे??? वो मोक्ष की कामना से खुश होते होंगे या अपने के जाने के मोह से ग्रसित होकर दुख मनाते होंगे?????
कभी कभी लगता कि मोह ,मोक्ष से भी प्रबल वांछना है। सम्भवतः सन्सार को निश्चित गति में चलने के लिए इसका होना अनिवार्य। हम खुद को स्थिरप्रज्ञ मानते हुए इससे दूर या निरपेक्ष होने के विचार को मानने और प्रसार के लिए प्रयासरत होते। किन्तु क्या बिना मोह के संसार सम्भव?????
हम शिव को भव बंधन से मुक्ति का मार्ग मानते ,पर ज्ञात ही है कि वही शिव ;सती की मृत देह को मोहवश लेकर फिरते रहे। सन्तुलन के ईश्वर साक्षात शिव… क्या इतने कमजोर थे कि सती की देह को सत्य मान लिए थे?????? इसका जवाब भी मुझे मोह ही लगता ,उनका सन्देश हो सकता यही रहा हो कि जीव के लिए मोह ,मोक्ष से भी पहले अनिवार्य। ताकि जीवन स्वांग न लगे। ताकि उसे जीने के लिए कारण बचे रहें। अगर मृत्यु सत्य तो जीवन का औचित्य क्या था…. किसी औचित्य को समझाने और उससे जुड़े रहने का भाव ही मोह के रूप में उभरता।
शिव की इन लीलाओं को गूढ़ता से मनन करेंगे तो अर्थ स्पष्ट होगा कि मोह और जीवन -मोक्ष और मृत्यु के समानांतर और अनिवार्य भाव है। उसे नकारना समानान्तर सत्य को नकारने जैसे होगा।
तो मोह को भी विशुद्ध रूप में स्वीकारें, जियें। जीवन और जीवन के बाद भी अपने लिए,अपनों के लिए; मोह को मोक्ष से पहले सहज स्थान देना शुरू कर दीजिए। मोह कमजोरी नहीं ,जीवन का सबसे प्रबल भाव है।
शिव और शव के बीच की कड़ी ;#मोह।
✍️ डॉ. मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी
#ब्रह्मनाद