वो मुझे चाँद कहता, मैं कभी उसके हांथों की लकीरों में उभर आती ,कभी आंखों में सज जाती। दिन होते ही उसके आगोश में छुपकर फिर एहसासों के उगने का इंतज़ार करती रहती।जब वो खुशी से मुस्कुराता ,तब मैं चतुर्थी का चन्द्र बनकर उसके होंठों पर उग आती। उसकी खुशी के साथ अनगिनत पुनर्जन्म मिलते मुझे। न जाने कितने बार उसने मुझे जीवन दिया।
अब वो सारी रात अपनी आंखों के तले गुजरते वक़्त को पलकों की झपक से गिनता है। वो उदास सी उनींदी रातों को बुनता,उनमें नमी की झिलमिलाहट के सितारे भी सजा लेता, पर चाँद उगाना उसने बन्द कर दिया। उसके जीवन में रातें तो आती पर चांद के बिना। वो उदास हुआ ,और मुझे ग्रहण लग चुका था। मैं डूब चुकी थी। और तब से अब तक जीवन के लिए तरसते हुए उसकी ओर निहार रही हूँ।छटपटा रही हूँ अपने अंधकार से उबरने के लिए। मैं वापस उगने के लिए उसकी मुस्कान की राह तक रही हूँ। शायद कभी मैं वापस एक जीवन पाऊँगी.... शायद वो मुझे कभी फिर जीवित करेगा। मैं आस में हूँ....... ।
✍️ डॉ. मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी
#ब्रह्मनाद
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