पेज

शुक्रवार, 2 मई 2025

राइटर्स ब्लॉक


 

कभी-कभी शब्द हमसे दूर भागते हैं। हम कुछ सोचते हैं ,लगता है कि बस अभी एक खूबसूरत रचना रच डालेंगे।  हम बैठते हैं लिखने के लिए, लेकिन कागज़ खाली रह जाता है।  एक ऐसी दीवार, जो हमारे और हमारी कल्पनाओं के बीच खड़ी हो जाती है। 

दिमाग सोचना चाहता है पर उसमें होती हैं तो बस  चुप्पियाँ , जो सिर्फ चुप नहीं होतीं बल्कि एक  खालीपन उभार जाती हैं। जब लिखने की तड़प हो, लेकिन शब्द साथ छोड़ दें, तब हर साँस एक बोझ बन जाती है। पेन पकड़ते वक्त उंगलियाँ काँपती हैं, आँखें धुंधली होती हैं और कागज़ का कोरापन  भीतर तक चुभता है।

राइटर्स ब्लॉक सिर्फ न लिख पाने का नाम नहीं है — यह धीरे-धीरे टूटते जाने का अहसास है। यह देखना है कि हम जो सबसे ज़्यादा चाहते हैं, वही आपसे दूर भाग रहा है। हर अधूरा वाक्य ,हमारी हार बन जाता है, हर खाली पन्ना एक मौन चीख।

कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे शब्द जानबूझकर छुप गए हैं, जैसे खुद अपनी आवाज खो गई हो। जैसे भीतर जो कुछ भी था जज़्बात, सपने, कहानियाँ — सब बर्फ बनकर जम गए हों।

यह दर्द सिर्फ उस पल का नहीं होता। यह धीरे-धीरे दिल के कोनों में जमा होता है, हर असफल कोशिश के साथ थोड़ा और भारी हो जाता है। ऐसे में खुद से लड़ना भी थका देता है और फिर भी, छोड़ना भी मुमकिन नहीं होता।

हम दूसरों को पढ़ते हैं ,सोचते हैं कि हम इस स्तर पर क्यों नहीं सोच पा रहे ????क्या इस विषय पर हम लिख सकते थे??? क्यों एक पंक्ति लिखने के बाद लेखनी आगे बढ़ने से इंकार कर देती है। एक अदृश्य छटपटाहट जैसे हमारा बेहद कीमती कहीं खो गया है ,कभी ना मिल पाने के लिए । 

यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई एक ऐसा कमरा जिसमें ना तो कोई दरवाजा ,ना खिड़की। हम छटपटाते रह जाते हैं एक सांस ताज़ी हवा के लिए, एक नजर धूप का कतरा देखने। पर हांथ आता है तो भयावह अकेलापन और शून्यता। 

पेपर की हर लिखावट आंसुओं के कारण अस्पष्ट सी रहती , हम उन पंक्तियों के बीच पढ़ने का एक अंतिम प्रयास करते जो अब तक लिखी भी नहीं गई हैं। हम हारने लगते हैं ,खुद से ।क्योंकि हमें लग रहा था कि अब तक हमारे लिए लिखना सांस लेने जैसे जरूरी था। हम उस व्यक्ति की तरह महसूस करने लगते जिसकी अंतिम सांस छूट रही हो ,और वो एक बार फिर जीने के लिए हर तरह का प्रयास कर रहा हो।

 पर अंततः सांस की वो डोर टूट ही जाती है। और हम कोरे पन्ने को बिसूरते उसमें आंखों के खारे पानी की आड़ी टेढ़ी लाइन बनते देखते हुए एक घने अंधकार से एक गहरी खाई में बस गिरते चले जाते.... इस आस में की शायद एक दिन फिर ये कलम कूक उठेगी बसंत के आगमन पर लेखन की प्रकृति की तरूणाई को जगाने। 

#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका

कोई टिप्पणी नहीं: