वो सुबह जागने से लेकर ,सोने के बाद तक मेरे साथ रहते हैं। सुबह का पहला ख्याल रात्रि के अंतिम पहर का स्वप्न भी है। सुबह नींद खुलते ही एक टीस सी उठती, खुद में एक ख़लिश सी महसूस होती लगती। हर वक़्त उन्हें अपने पास चाहती ,एक साये की तरह साथ रहना चाहती जो अंधेरे में उनमें ही समा जाती। तकिए की बजाय उनके हांथों का सिरहाना हो, कभी वो मेरे सीने पर सर रखकर इतनी निश्चिन्त नींद लें कि सुबह उठने पर उनके चेहरे और कनपटी का वो तरफ पसीने से तर मिले जो मुझे स्पर्श कर रहा था ।
दोनों में से किसी एक कि नींद खुले तो दूसरे को खुद की ओर हल्की मुस्कान और ढेर स्नेह से तकते हुए पाए। सुबह अपना अक्स आईने से पहले उनकी आंखों में देखूं। कभी उनके कांधों पर अपने हाँथ रख उनकी बलिष्ठ भुजाओं में बेफिक्र झूल सी जाऊं,इस भरोसे से साथ कि वो ताउम्र मुझे कभी गिरने न देंगे। उनके थकान से चूर पसीने से तर बदन की खुशबू अपने बदन में समेट कर उन सी महकती रहूं। मैं अपना हर दिन आभाष नहीं बल्कि स्पर्श कर अनुभव में बिताना चाहती हूं। जीना चाहती हूं उन्हें अपनी हर सांस ,हर चितवन ,हर मुस्कान , हर छुअन में।
न जाने कबसे यही सब ख्वाब संजोए वक़्त को उसकी गति से दौड़ने से रोक नहीं पा रही हूँ। जितना शिद्दत से पकड़ना चाहती उतनी तेज़ी से फिसल जाता है।वो जब आए थे तब उम्र और उसके निखार का ओज चरम पर था। जब मुस्कान आकर्षण के दायरे को समेट कर होठों में सिमट जाती थी। हर तकलीफ को परे रख मुस्कुराते रहने की जिद थी। शायद एक अल्हड़ता थी जो उस वक़्त जीवित थी। अब परिपक्वता से आगे बढ़ती हुई एक प्रौढ़ स्त्री हो चुकी हूं। जिसकी मुस्कान अब मोहक नहीं डरावनी दिखती। क्योंकि अब उम्र की रेखाएं कई तिर्यक काट के रूप में उभरने लगती। बहुत कुछ उम्र के साथ खोती सी जा रही। बाहरी और भीतरी परिवर्तनों का दौर जैसे बीत सा गया अपनी अंतिम परिणीति पाने के लिए। अब ठहरी हुई गम्भीरता कहीं गहरे घर कर रही। सेल्फी में अब दंतपंक्ति भी नहीं दिखती।याद करके मुस्कुराना पड़ता। अब दिखती है तो एक गम्भीर , निरुत्साही ,जीवन को बस काटने की सोच लिए हुए एक औरत ,जो अब प्रेयसी होने की सोच से कहीं अंदर धंसी सोच में जीने लगी। प्रेयसी होती तो लड़ती, हक मांगती, रूठती ,मनाए जाने को आतुर रहती, नखरे दिखाती। पर अब प्रेयसी नहीं बची। बदल चुकी हूँ उस औरत में आकाश की तरह अपने प्रिय के लिए छा जाना चाहती ताकि उसे जीवन की चुभती धूप से बचा सके,और धरती की तरह थाम लेना चाहती रुकने के लिए एक मजबूत आधार देकर ,उसे ठौर बना देने के लिए। जो मेरा मालिक ...उसके लिए अब प्रेयसी नहीं ...... माँ का वात्सल्य समेट कर ,दोस्त का धैर्य समेट कर, बहन सी चंचल और विनोदिनी और अंत मे अपना सब कुछ उनके लिए समर्पण और विसर्जन कर देने वाली अर्धांगिनी होने वांछना शेष।
एक आस अब तक शेष है ..... क्योंकि अब तक सांस शेष है.... मैं बसूं उसमें उसकी रूह की तरह, और रहूं उसके सीने में उसकी धड़कन की तरह। ❤️
#डॉ_मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी
#ब्रह्मनाद
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