किताबें और मैं:)
मैं अक्सर किताबें पढ़ते हुए कहीं खो जाती हूँ। दरअसल मैं पढ़ती नही हूँ , मैं किताबों को जीने लगती हूँ। उनके किरदारों में ढल जाती हूँ।मैं #पीताम्बरा पढ़ती ,तो मीरा हो जाती, मैं खो देती खुद को आराध्य कृष्ण में। मुझे संसार बेमानी लगने लगता। उस पीड़ा को जीती जो मीरा ने जी थी, उतनी उदात्त और उदारमना भी हो उठती।
मैं #कृष्ण_की_आत्मकथा पढ़ती तो कृष्ण हो उठती। ईश्वर नहीं ,महामानव जिसकी सहायता कई साधारण मानवों और कई नाटकीय घटनाक्रम सहित प्रकृति भी करती,ईश्वरत्व पाने को।
#सोमनाथ में कभी अभिजात्य जीती ,कभी पीड़ा । मैंने उस महान काल को खुद में गुजरता महसूस किया। सोमनाथ के गर्भगृह पर पाया खुद को, तो शिव के सम्मुख ,पूरे नगर के सामने कला प्रदर्शन को प्रस्तुत ;एक देवदासी की किंचित निराश किन्तु उद्दीप्त आभा की प्रतिदीप्ति खुद में महसूस की,अंत मे मातृभूमि छोड़ने की व्यथा भी।
#शेखर पढ़ते हुए मैं विद्रोही हो उठी, व्यवस्था और आडम्बर से दूर , रूढ़ियों को खुद में गलाती हुई ,मैं विद्रोही हो गई।
कभी मैं द्रौपदी का द्वंद जी, कभी कर्ण का त्याग,कभी उर्मिला सी जड़ हो गई। मैंने आदिवासियों का सहज जीवन जिया, कभी उनमे ढल कर जंगल मे खो गई। कभी शरदचन्द्र की रचनाओं की सदहृदयी बड़ी कोठी की मालकिन हुई,कभी किसी मुनीम की मासूम सी बेटी जो कौतूहल से हवेली में कदम रखते हुए किसी लक्ष्मी पुत्र की नज़र में आ जाती। आगे उसकी जिंदगी सिर्फ भूल भुलैया बन जाती।
मधुशाला के रहस्य को छायावादी बना कर उसका खुद में प्रकृतिकरण किया। हर नायक का संघर्ष , हर नायिका का त्याग, अंतर्द्वंद्व ,ना जाने कितने भाव मुझे खुद में जगह देते हैं। खुद में खोकर नायकत्व पाने को।
कभी भुवाली के सेनिटोरियम की मरीज की सेविका होती, कभी डॉ । शिवानी के रूप में प्रस्तावना लिखती ,तो उसकी काली मोटी पर अल्हड़, जिंदादिल नायिका भी । उसकी सद्यस्नाता नायिका तो सदा मुझमे ही रहती है।
मैंने जापान की दुर्दशा देखी। मैंने यूरेनियम खदानों की विकिरण की मार झेली। मैं कभी मूक पर आंखों से बोलने वाली पात्र हुई, कभी अपने चुके अभिजात्य को याद करती और उसके दम्भ को अब तक अपनी अकड़ में जीती बुढ़िया भी।
ना जाने कितना कुछ जीती हूँ इन किताबों में। जितनी किताबे पढ़ती गई,उतने ही किरदार में ढलती गई। कभी राष्ट्रवादी,कभी आक्रांता . ..कभी पतित ,कभी पावन ,कभी सन्यासी हुई ,कभी संसारी। सारे रस खुद में पाई। कवित्त की प्रेरणा बनी तो कभी लेखक हुई। कितने भूखंडों का विस्तार मुझमे हुआ,कितने फूलों की खुशबू मुझमे समाई।
दुनिया मे रहकर भी ,एक अलग दुनिया मुझमे बसने लगती। जो लोगों के लिए अनदेखी होती ,पर मेरी आत्मिक अनुभूति होती।
उस वक़्त तुम मुझे नहीं ढूंढ सकते। मैं #मैं नही बचती।।मैं किताब जीती हुई किरदार हो जाती हूँ।
हां मैं किताबे पढ़ती नहीं, #मैं_किताबें_जीती_हूँ।
©®डॉ. मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी
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