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शुक्रवार, 10 मई 2024

#मैं _कबाड़ी


 


#मैं_कबाड़ी 


मां मुझे कबाड़ी कहती थीं…. वैसे सच कहूं तो हूं ,अब भी 😊। इस शब्द के पीछे मेरी छोटी -छोटी पुरानी चीजें सहेज कर रखने की आदत थी ।पुरानी चिट्ठियां ,किसी सहेली का दिया हुआ बिना ढक्कन का सूखी स्याही वाला पैन, किसी सहपाठी की हैंडमैड ग्रीटिंग , कुछ छोटे छोटे तोहफ़े,जो न तो उपयोग किए गए और न ही अलग किए गए, एक पुरानी स्लैम बुक ,जिसकी लिखावट पेज के पीलेपन के साथ कहीं गाढ़ी और कहीं धुंधली सी होने लगी, किसी कॉपी के पेज की किनार फाड़ कर लिखा हुआ ट्रांसफर होने वाली सहेली का एड्रेस ,डायरी में दबे कुछ सूखे फूल ,कुछ मोर पंख और एक खास पेड़ की सूखी पत्ती;जिसे विद्या कहते, पहला स्क्रेच किया हुआ रिचार्ज कूपन , पहले बोर्ड एग्जाम में लगी पासपोर्ट साइज फोटो, एक पन्ने- पन्ने अलग हो रही पर सहेज कर रखी डायरी, कुछ अदला बदली कर मिले हुए स्टीकर ,हांथ से बनाई गई राखी, रंगोली के बिंदुओं के मिला कर बने कुछ डिजाइन और मेंहदी के भी डिजाइन ,गुड़िया के कपड़े , पीतल की नथ बेंदी जो पहली बार स्कूल एनुअल डे में डांस परफॉर्मेंस में पहनी थी,एक कढ़ाई किया रुमाल ,एक क्लिप जिसकी जोड़ी खोने के बाद भी वो फेंकी ना गई। 

कुल मिलाकर बचपन की मेरी यही जमा पूंजी थी। मेरे लिए खजाना ,मां के लिए कबाड़ । हर बार दिवाली की सफाई में मेरे पुराने नोट्स और खिलौने की पेटी के साथ एक छोटी पेटी इन सामानों से भरी हुई निकलती।मां के निर्देश के साथ की काम की चीज रखो,बाकी बांट दो या फेंक दो। पर मुझे तो सब काम का लगता। भले ही us ट्रांसफर पर गई सहेली ने ना मुझे ना मैने उसे कोई लैटर लिखा पर उसका एड्रेस मुझसे फेंका ना गया। मैं उन्हें धूप दिखाई ,पेटी साफ करती और वो वापस साल भर के लिए अपना स्थान ले लेते। 

दीवाली की सफाई का ये बोझिल थकाने वाला दौर मेरे बड़े होने पर मुझे कहीं न कहीं उत्साहित कर जाता था ,इस सो कॉल्ड कबाड़ के कारण….. मैं एक एक समान छूती,देखती,पढ़ती। और मुस्कराते हुए पिछले कई सालों का सफर उस एक या दो घंटे में कर लेती। 

अरे नहीं टाइम ट्रैवल नहीं ,बल्कि डाउन टू मेमोरी लेन 😊


मैं उस क्षण में पहुंच जाती जब वो जमा की हुई चीजें वर्तमान में किसी प्रसंग के बीच में थीं। कभी उन्हें छू कर ,देख कर मैं मुस्कुरा उठती ,कभी किसी भावुक क्षण में जा पहुंचती और आंखों के कोर भीग जाते। 

वर्तमान में इतिहास को जीना सदा सरल नहीं होता।क्योंकि उसमें ऐसा बहुत कुछ होता जो रेत की तरह मुट्ठी से निकल चुका होता ,जो हम बार बार जीना चाहते और कुछ ऐसा भी जो हम पेंसिल की लिखावट की तरह इरेजर से मिटा देना चाहते।पर इतिहास पाषाण शिला पर दर्ज लेख होता ,आप चाहो ना चाहो वो अपना अस्तित्व दिखाता ,वक्त से साथ धूलिम हो सकता पर अमिट…….। 

खैर मेरा ये कबाड़ मेरे लिए एक पैरलर यूनिवर्स था। जिसमें कई बार मैं अपना बचपन जीती।

खिलौने के पेटी की बात करूं तो कुछ जिद से मिले कुछ रसोई के लिए मेरा इंट्रेस्ट जगाने की पहल के लिए मेरे ननिहाल से मिले रसोई के सामना का छोटा छोटा रेप्लिका….कुछ मिट्टी से मुझे जोड़ने के लिए दादी के द्वारा बनाए गए मिट्टी के खिलौने, पड़ोस की हम उम्र लड़की की मुझे जलाने के लिए खरीदी गई गुड़िया के जवाब में मेरी जिद से खरीदी गई गुड़िया। पूरी पेटी भरी हुई थी कई यादों से , हां इसमें एक कोना उन कॉमिक्स का भी था जो अदला बदली के दौरान उनके असली मालिकों द्वारा भुला दी गई थी। 

मुझे याद है जब मेरे पीजी करने के दौरान मैं दीवाली की सफाई में होस्टल से घर नहीं पहुंच पाई थी ,तब मां ने मेरे खिलौने की पेटी हमारे घर में काम करने वाली बाई जिन्हें हम चाची बोलते थे ;उनकी बेटी को दे दी थीं। जब मैं घर पहुंची और पता चला की मां ने वो खिलौने दे दिए तो लगा अचानक बचपन का एक हिस्सा टूट कर अलग हो गया जीवन से। मेरे शरीर में जो बचपन जी रहा था अचानक वो वयस्कता की ओर बढ़ने लगा। हंसमुख व्यवहार कहीं ना कहीं गंभीरता के आवरण से ढकने लग गया था। जैसे कोहरे ने असली दृश्य मतलब असली मधु को ढंक लिया। जो आज तक खुद को उसी कोहरे में ही ढंकी पा रही। 

हां कुछ स्मृतियां मां के पास भी थीं। एक सितारे वाली पुरानी साड़ी, कुछ ब्लैक एंड व्हाइट फोटोज और कुछ पुराने गहने। पर उनका बचपन उतना कबाड़ नहीं जोड़ पाया था जितना मेरे पास था ,जिसे बिखेर कर वो स्मृतियों की सफर का टिकट कटा सकें। 

मैं बड़ी होने लगी ,मन बचपन में ही जीना चाहता था। पर अफसोस उस सुखद कबाड़ की जगहें हमें सजावटी सामान भरना सिखाया जाने लगता। पुराने एल्बम की तस्वीरें भी धुंधली पड़ने लगती ,पन्ने फटने लगते ,जीवन के नए चरण में नई स्मृतियां जड़ जमाई गई स्मृतियों को उखाड़ कर अलग करने का प्रयास करने लगती। 

कल जो मेरे लिए खजाना था ,वक्त उसे कबाड़ बना देता और फिर कई वर्षो बाद हमारे ही लोगों के लिए वो कबाड़ भी अप्रासंगिक हो जाता। शायद हमने भी ऐसी कई खजानों को कबाड़ बना कर अप्रासंगिक किया होगा। 

जीवन यही है शिला लेख धूमिल होने लगते … हां मिटते नहीं पर कुछ अनजानी नजरों के लिए कोई मायने भी नहीं रखते । अगर इन स्मृतियों को कबाड़ और फिर अप्रासंगिक होने से बचाना चाहते हैं तो कोशिश यही रहना चाहिए की कुछ ऐसा दे जाओ जो एंटीक की भांति सहेज लिया जाए और लोग उसके लिए इतिहास भी खोजें।खैर मैं अपने कबाड़ को सोच का अब भी कभी - कभी खोल लेती…….अपने ख्यालों में। भौतिक रूप से अब मैं अपनी बिटिया की चीजें सहेजने लगी हूं,अच्छी बात ये है वो कबाड़ी है पर बहुत सी स्थितियों में वो वर्तमान को महत्व देती और कबाड़ को खुद से अलग करने में कोई परहेज नहीं करती। मैं संतुष्ट हूं की बहुत से लोगों की कटु स्मृति वो मेरी तरह नहीं सहेजेगी,बल्कि वो आगे बढ़ते रहेगी ,इतिहास से भविष्य की ओर। 


#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका 

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