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गुरुवार, 19 जनवरी 2023

जागती रातें

 




कुछ रातें होती जिनमें सपने नहीं होते। एकदम खाली। और कुछ जिनमें नींद ही नहीं होती। 

दिन भर की थकान से चूर मुरझाई आंखें, जिनकी नमी भी सूख चुकी है। जिनमें सपने भी नही बचे। बचे हैं तो टूटे सपनों की किरचें ,जो पलकें बन्द होने पर आंखों में गड़ते हैं....चोट पहुंचाते । पता नहीं इन आँखों में अब आंसू क्यों नहीं आते। तकलीफ में तो आंसू बहते हैं.....पर ये आंखें खाली हो चुकी। जैसे सिर्फ ये दृश्य की क्षणिकता तक ही जीवित रहती..... उसके बाद पथरा जाती हैं ।


पर यहाँ बात नींद की होती। खुशियों से भरी रातें बहुत छोटी होतीं। जैसे पलक झपकते ही खत्म हो जाती। लगता है जैसे अभी तो वक़्त शुरू हुआ...अभी कैसे खत्म हो गया। काश थोड़ा देर और ठहरती ये रात..... ।

और तकलीफ़ में नींद से खाली  हुई रातें ....सदियों से लंबी होती। शरीर को तोड़ती थकान हर अंग में भारी लगती....पर आंखें ये क्यों भारी होकर बन्द नहीं हो जाती। सपना न सही कम से नींद तो मिले...। नींद भी एक बड़ी नेमत है जो सही वक्त पर हर किसी को नहीं आती।खुशनसीब और स्वस्थ लोग होते हैं वो जिनको आंखों में नींद का बसेरा होता।


इन जागती आंखों में जैसे हर सम्वेदी अंग और ज्यादा सक्रिय हो जाता। आंखें अंधेरे के पार देखने लगती। कानों में घड़ी के कांटों की सरकन भयावह लगती। 1सेकंड सरकने में लगता जैसे मीलों चलने जितनी ताकत लगाती हो ये घड़ी। AC रूम में  भी कई बार बिना आंसू बहाए रोकर अंदर ही जप्त आंसुओं की भाप शरीर को गर्मी से उबालने से लगती। कानों में अपनी ही हृदयगति हथौड़े से तेज़ पड़ती और दिमाग जैसे धड़ धड़ करते कई प्रश्न की ट्रेनों का जंक्शन बन जाता। जिसमें भीड़ इतनी ज्यादा की मैं पहली बार सफर पर निकले राहगीर सी बदहवास सी उस  सही प्रश्न वाली ट्रेन  को भी खो देती। 


एक अनजाना डर हावी हो जाता..... प्रश्नों का ताना बाना ऐसे जकड़ लगता जैसे हवा में कई माझें वाली पतंग आपस मे उलझ कर सुलझाने वाले हाँथ को ही काट देती।

एक प्रश्न सर उठाता.... उत्तर नहीं ढूंढ पाती,तब तक दूसरा ,फिर तीसरा और न जाने ये क्रम कहाँ तक चलता जाता। इस दौरान डर कर पसीने  से सराबोर यूँ लगता जैसे जीवन की परीक्षा  का पर्चा है ,और मैंने तो इसमें कुछ पढा और जाना ही नहीं।इस परीक्षा में हमेशा फेल ही होती आई हूँ। 

कभी कभी नींद का एक झोंका आने पर मुझे ये सपना कई बार आता। कि मेरी परिक्षा और मैंने वो विषय पढा ही नहीं जिसका पेपर। 

ये रातें इतनी भयावह होती कि इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिए आपके पास कोई नहीं होता। नितांत अकेले। एकांत अकेलेपन में बदल कर मुँह फाड़ने लगता जैसे कृष्ण विवर। और हम उससे बचने की जद्दोजहद में संघर्ष करते कि शायद जल्दी कोई किरण फूटे। इस रात का अंत हो। 

रात खत्म हो जाती।पक्षी कलरव से जता देते सुबह आ गई।पर तब तक रात में खुद से ही लड़कर सुबह के इंतज़ार में इतना टूट जाती की अब सुबह भी न उत्साह दे रही न खुशी। एक टूटे मन और थके तन को किसी तरह समेट कर ढेर आलस से लिपटे होने के बावजूद मशीन की तरह  दिन से रात तक के सफर के लिए फिर उठना पड़ता। हर दिन एक सोच चलती.....काश एक रात ऐसी हो,जिसमें सपने हो। सपने ना हो तो कम से कम नींद तो हो। जिसकी आगोश से उठने का कभी मन न हो।न कोई उठा सके।न उठने की बाध्यता हो। काश एक ऐसी रात मिले........


#डॉ_मधूलिका_मिश्रा_त्रिपाठी

#ब्रह्मनाद 


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