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गुरुवार, 21 जुलाई 2022

प्रेम :शब्द या अनुभूति

 



प्रेम शब्द एक ,किन्तु कितनी भिन्न भिन्न अनुभूतियां । अभी इस शब्द को पढ़ने वाले प्रत्येक जेहन में इसको पढ़ते ही एक अलग भाव उत्पन्न हुआ होगा। आश्चर्य तो यह है कि; किसी एक कि परिभाषा,दूसरे के लिए सटीक ना होगी। समस्त चर- अचर जगत में जितने जीव, उतनी परिभाषाएं ,उतने अनुभव ....।


प्रश्न आता है,प्रेम है क्या???? किसी को पाना,खुद को खो देना,कोई प्यारा सा रूमानी एहसास, कोई टीस,कोई खुशनुमा या कोई कड़वी चुभती याद, कोई एक रिश्ता.....या रिश्ते का एहसास....। इतना आसान नहीं है,प्रेम को परिभाषित करना .... सूक्ष्म भावों का अपरिमित विस्तार ;प्रेम।

कितना अलग सा शब्द है,...जिसमें तरंग है ,उमंग है, एक मदहोशी ,और कभी-कभी कोई दुखद प्रसंग भी है। क्या है प्रेम...... जिसने इतने सारे कवियों को , इतने सारे लेखकों को , प्रबुद्ध जनों ...सामान्य साधारण जनों को खुद से बांध लिया । कई फकीरों ने प्रेम में ही अपनी जिंदगी समर्पित कर दी। 


कभी सोचा है .....वाकई यह एक प्रेम कितना विशाल भाव है । लगभग हर धर्म में प्रेम के लिए कई परिभाषाएं हैं, कितने प्रतिमान तय किये गए।  मान्यता भी यही है की ;प्रेम सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट सत्ता है । जो प्रेम करता है ,वह परमात्मा पा लेता है । 

मीरा ने जहर पिया, राधा ने खुद में कृष्ण को जिया, सूर ने बिन देखे ही उसका स्वरूप रच लिया ।तुलसी ने अपना जीवन ही उसको दे दिया।  रहीम या कबीर या खुसरो को भी क्यों छोड़ रहे हैं ....उन्होंने भी तो कहा था कि प्रभु संसार के हर प्राणी से प्रेम करता है,उसके लिए आडम्बर की जरूरत नही। 


 प्रेम कहते ही ,आपके दिमाग में पहला शब्द क्या आता है ???पहली छवि ????शायद बहुत सारी छवियां उभरेंगी... आपकी मां - पिता ,आपका परिवार ,आपके दोस्त ,आपकी कला/विधा, और एक कोई खास चेहरा... जो कईयों के लिए अब भी अपना होगा ,कइयों ने उसे खो ही दिया होगा । 

प्रेम के संबंध में जो भी हम सुनते हैं वो सिर्फ किस्से कहानियां तो नहीं होती है ना । इसका एक पहलू वह होता है जो सत्य ही होता है हां यह अलग बात है कि प्रेम को लेकर कल्पनाएं गढी जाती हैं ,और जब तक हम प्रेम की वास्तविक परिभाषा से परिचित नहीं होते हैं ,तब तक  हम महसूस  भी नही करते हैं ;कि प्रेम जैसी कोई चीज होती है या नहीं । 


प्रेम को समझना जितना आसान है ,उतना ही कठिन है। इसे हम सिर्फ एक भाव में नहीं बन सकते । वास्तव में प्रेम की अनुभूति हमें हमारे जन्म के पूर्व ही हो जाती हैं । जब हमारी मां हमें बिन देखे  स्वयं में महसूस कर हम से प्रेम करने लगती हैं  ,खुद से कहीं ज्यादा........ उसे हमें देखने की जरूरत नहीं होती है ,उसे हमें सुनने की जरूरत नहीं होती है ।वह सिर्फ अनुभूति करती है ।  जन्म लेते ही हमें प्रेम मिलता है हमारी मां का निश्छल प्रेम ,उसके बाद हमारे परिवार का ,जो कुछ हद तक अपेक्षाओं से होकर गुजरता है ,उसके बाद हमारे दोस्त जो हमारी समान मानसिकता के साथ हमें प्रेम करते हैं, हमारा कला का प्रेम ,प्रकृति का प्रेम ,यह भी तो प्रेम का ही एक रूप है । और इनसे अलग एक और प्रेम ,ईश्वर से। जिसके लिए भौतिक साधनों की ,उपस्थित होने की जरूरत नही। क्योंकि वो तर्क नही विश्वास से पनपता ,आस्था से फलता- फूलता। 


 अगर आपसे पूछा जाए कि आपके जीवन की सबसे सुंदरतम क्षण क्या थे???? तो निश्चित तौर पर आप कहोगे, वह क्षण जिसमें हम प्रेम में थे .....। प्रेम में तो आप सैद्धांतिक रूप से हर वक्त  होते हो । #थे जैसा शब्द यहां पर अप्रासंगिक है ....।

आप खुद से भी प्रेम कर सकते हो ,आप दूसरों से भी प्रेम कर सकते हो ....वास्तव में जब हम प्रेम में होते हैं तो हम सभी से प्रेम करते हैं   । प्रेम के ही कुछ रुप हमें इश्क ,प्यार ,मोहब्बत के रूप में मिलते हैं ।हो सकता है उनका साथ हमें नसीब ना हो ,पर साथ ना होने का मतलब इस भावना के खत्म हो जाने से तो नहीं होता ना .... उसकी अनुभूति तो मिट नहीं जाती ना,भले ही वो क्षणिक रहा हो। पर हमारे जिंदगी के एक वक्त में उसके हस्ताक्षर दर्ज होते हैं ना.....।


प्रेम की अनुभूति की बात करेंगे तो ,वास्तव में प्रेम #एकत्व/#एकात्म का भाव है ।आपने कभी महसूस किया है जिसे आप प्रेम करते हैं ...यदि वह आपकी भौतिक या मानसिक पहुंच से दूर हो तो आप की स्थिति क्या होती है ??जी हम विचार शून्य हो जाते हैं। स्वयं की परिस्थितियों से परे हो जाते हैं ,हमारी मानसिकता, हमारे कार्यकलाप उस वक्त हमारे सापेक्ष सिर्फ  शून्य रहते हैं । एक यंत्रवत काम करने वाला शरीर बन जाते हैं हम ।दिमाग में एक अनंत शून्य का घूर्णन केंद्र होता है । 


वास्तव में प्रेम का उत्तर इसी में छुपा हुआ है । जब आप प्रेम महसूस करते हो ,जब आप किसी विधा से प्रेम करते हो, किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो ,अपने परिवेश से प्रेम करते हो तो, उस समय उस विशेष "#संज्ञा को खुद से ज्यादा महत्व देने लगते हो।  आप अपने #स्व को खत्म कर लेते हो ,आप अपने में से  #अहम् को खत्म कर लेते हो । यहां अहम्  का मतलब घमंड नहीं है , इसका मतलब है ,खुद की अनुभूति को स्वाहा करना। स्व का महात्म्य त्याग।  जब आप प्रेम में होते हो ,तब आप आप नहीं होते हो ,धीरे धीरे आप पर वह व्यक्तित्व हावी होने लगता है ,वह विधा हावी होने लगती है ,जिससे आप प्रेम करते हो।  इसीलिए इसे एकात्म का भाव बोलते हैं ...क्योंकि इसमें अंत में सिर्फ एक ही बचता है ....यदि आप हो तो प्रेम नहीं है ,यदि आप प्रेम में हो तो आप नहीं हो ।

 प्रेम करने वाला व्यक्ति हमेशा एक स्रोत की तरह होता है ,जिससे एक ऊर्जा का प्रवाह होता है । उसके आसपास के परिवेश में ,उसके आसपास के लोगों में । यदि आप प्रेम कर रहे हो तो, वास्तव में आप सब से प्रेम कर सकने की विशालता है। प्रेम ,आप में सार्वभौमिक अर्थ को लेकर आता है । यदि आप सिर्फ एक के लिए प्रेम महसूस करते हो तो आप केंद्रित हो जाते हो और इसका अर्थ होता है ,स्वयं को परस्पर भाव मे स्थानांतरित कर जाना। पर जब यही प्रेम व्यापक अर्थों में बदलता तो सर्वजन हिताय का भाव उपजता।  बिल्कुल शून्य हो जाना, बिल्कुल भावनात्मक मौन हो जाना सिर्फ इसी क्षण में होता है ........।

प्रेम का आत्मिक भाव का ही क्षण वह होता है ,जब आप में अहंकार बिल्कुल नहीं होता है ।जब आप उस व्यक्ति ,व्यक्तित्व या विधा के समक्ष बिल्कुल नत होते हुए ;स्वयं को भूल कर आप प्रेम को पाते हो ।और यही प्रेम होता जब वैचारिक शून्यता की स्थिति में हम अपने अहम को पार कर जाते.....अपने हमसे बढ़कर... मैं से  हम हो जाते। 


प्रेम वास्तव में एक साधना का रूप है ,प्रेम तपस्या है।  खुद से बढ़कर ,खुद को त्याग कर जीना ही प्रेम है ,और जब तक हम एकात्म और शून्यता को आत्मसात नहीं करते ;प्रेम हमारे लिए पीड़ा  रहेगा।  जब तक हम खुद को भूलेंगे नहीं ,हम अहंकारी रहेंगे और ,अहंकार से प्रेम नहीं पाया जा सकता है। 

 प्रेम का उदाहरण समझना हो कृष्ण से बेहतर कौन होगा?? उन्होंने हर रूप का प्रेम जिया है ,नंदबाबा का प्रेम ....जिन्होंने अपनी पुत्री का त्याग किया । कृष्ण के प्रेम के लिए यशोदा का प्रेम जिसने उसका पालन पोषण किया अपना ही पुत्र माना। उसके लिए प्रेम की परिभाषाएं ;स्वयं से ऊपर थी । स्वयं की संतान ना होते हुए भी स्वयं की संतान से भी ज्यादा मान्यता ,ज्यादा प्रेम उसने कृष्ण को दिया है । सुदामा का प्रेम हो ,या फिर उद्धव का, या फिर राधा या ,और  उस काल का सार ही अगर निकाला जाए तो वह सिर्फ प्रेम पर ही आधारित होगा क्योंकि वहां पर कृष्ण के अलावा आपको कोई नहीं मिलेगा । कृष्ण ने खुद को सबमे अवस्थित कर सम्पूर्ण अर्थों को खुद में ढाल दिया था। 

किसी सूफी फकीर ने कहा है "तुझे हरजाई की बाहों में और प्रेम पर ईद की राहों में मैं सब कुछ हार बैठी हूं "  .....हारने का अर्थ यहां पर स्वार्थ की सत्ता को मात देने से हैं ,हारने का अर्थ भौतिक चीजों से नहीं है ,एक वैराग्य है । जो आप स्वयं से त्याग करते हो।   अपने अंदर की स्व की पहचान  का ,अपने दुर्गुणों का, अपने अहंकार का त्याग करना प्रेम है।  यह साधारण व्यक्ति नहीं जान पाता ,क्योंकि वह प्रेम को सिर्फ एक ही भाव में जीता है ...वह स्व तत्व याद नहीं कर पाता ,जिसकी वजह से उसको पीड़ा की अनुभूति होती है ,यहां पर वह प्रेम नहीं करता है ,वह व्यापार करता है । 

एक गाना सुना है ना #रांझा_रांझा करदी वे मैं आपे रांझा होई * ,

 यह है प्रेम की अनुभूति । जिससे आप प्रेम करो उसमें खो जाओ, उसमें डूब जाओ ,खुद को भूल जाओ ,बदले में आप उससे कुछ नहीं चाहोगे । जब तक कृष्ण मीरा ना हुए ,जब तक कृष्ण राधा ना हुए, जब तक कृष्ण कुब्जा ना हुए ,तब तक प्रेम की अनुभूति ना हुई।  जिस दिन यह सब धारा में समा गए, प्रेमधारा में समा गए, उस दिन से प्रेम की शुरुआत हुई । तो प्रेम का अर्थ है स्वयं को खोकर शून्य हो जाना... और शून्य की अनंतता में खो जाना । 

जो सदैव आप में होता है ,जिससे आप भी परे नहीं जा पाते । जिसकी भौतिक उपस्थिति -अनुपस्थिति आपके एकात्म भाव से अलग नहीं कर पाती है । 

ऐसा है प्रेम का स्वरूप ....उतना ही विशाल ......उतना ही निर्मल ,उतना ही स्थायी  ......और उतना विराट जितना कि यह ब्रम्हाण्ड, एकात्म के शून्य से पूर्ण अनंत। 


ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्येत 

#डॉ_मधूलिका 

#ब्रह्मनाद

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