हां वो लफ्ज़ ही थे,
रुई से हल्के ,
पर सुई से तेज़,
जैसे रूह पर हर बार ,
दर्ज करते ,कई;
नश्तर के घाव थे।
बेहद बारीक ,
रूह के हर जर्रे पर ,
चुभते बेहद तेज़,
लाल घाव से खुद को ,
बनाते रँगरेज,
कहीं धंस से जाते थे ।
बेहद गंभीर ,
जेहन के हर हिस्से को,
करते लहूलुहान,
मुझे टुकड़ों में तोड़ते,
बनते खुद मूर्तिकार,
तोड़ के बिखरा जाते थे।
बेहद चोटिल,
शख्शियत का हर एक पहलू,
रोता था ज़ार - जार,
फिर जिस्म औ जेहन अब,
ख़ाक में हर पल,
बदल से जाते थे।
हां वो इबारत ही थे ,
जो झंझोड़ जाते थे ,
मेरी पहचान,
खण्डर की तरह,
तोड़ जाते थे।
मेरे हर एक ख़्वाब
और अरमानों के,
थिरते घावों से ,
आती रहती थी,
बस एक ही आवाज़ ,
जिंदगी को बख्श भी दो ,
जिंदा ,होने की ,
कहीं एक छोटी सी आस।
पर वो लफ्ज़ थे,
जो हल्के थे,
रुई से,
और तेज़ थे ,
सुई से....
©®#ब्रह्मनाद
#डॉ_मधूलिका
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