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बुधवार, 22 जून 2022

हां वो लफ्ज़ ही थे

 


हां वो लफ्ज़ ही थे,

रुई से हल्के ,

पर सुई से तेज़,

जैसे रूह पर हर बार ,

दर्ज करते  ,कई;

नश्तर के घाव थे।


बेहद बारीक ,

रूह के हर जर्रे पर ,

चुभते बेहद तेज़,

लाल  घाव से खुद को ,

बनाते रँगरेज,

कहीं धंस से जाते थे । 


बेहद गंभीर ,

जेहन के हर हिस्से को,

करते लहूलुहान,

मुझे टुकड़ों में तोड़ते,

बनते खुद मूर्तिकार,

तोड़ के बिखरा जाते थे।


बेहद चोटिल,

शख्शियत का हर एक पहलू,

रोता था ज़ार - जार,

फिर जिस्म औ जेहन  अब,

ख़ाक में हर पल,

 बदल से जाते थे।


हां वो इबारत ही थे ,

जो झंझोड़ जाते थे ,

मेरी पहचान,

खण्डर की तरह,

 तोड़ जाते थे।


मेरे हर एक ख़्वाब

 और अरमानों के,

थिरते घावों से ,

आती रहती थी,

बस एक ही आवाज़ ,

जिंदगी को बख्श भी दो ,

जिंदा ,होने की ,

कहीं एक छोटी सी आस।

पर वो लफ्ज़ थे,

जो हल्के थे, 

रुई से,

और तेज़ थे ,

सुई से....

©®#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका

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