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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -6)

दिनांक 7 मार्च सुबह दैनिक क्रम से निवृत होकर हम खाना खाने की तैय्यारी में थे . बिटिया के लिए खाना जुटाना यहाँ सबसे दुष्कर काम था. सुयश ने किसी होटल से सुबह सुबह दाल -चावल की व्यवस्था की ,पर पहाड़ों पर दाल गलना आसान नहीं  होता और फिर बच्चे को वो खिलाना भी कम कठिन ना था :p .सारे कठिन कामों को अंजाम देकर  हम सुबह 10.30 बजे दोचुला ( दोछुला ) पास के लिए निकल चुके थे. रूट चार्ट साथ में होते हुए भी मुख्य मार्ग ढूंढना मुश्किल ही लगा .शहर के अन्दर से कई मार्ग भटकाव वाले थे .अंततः एक सज्जन जिन्हें अंग्रेजी आती थी;ने सही रास्ता बताया और जल्द ही हम अपनी मंजिल की ओर थे .ये पास थिम्पू से पुनाखा के रास्ते में स्थित है ,पहुँच मार्ग में सिम्तोका मुख्य स्थान है , यही पर एक पुलिस चौकी भी है. चूँकि हमने सिर्फ थिम्पू के लिए  परमिट लिया था इसलिए यहाँ पर रुक कर अपने सभी कागजात /परमिट सिक्युरिटी के तौर पर जमा कराना पड़ा. सफ़र सिर्फ 27  किलोमीटर का था ,पर सर्पिलाकार मार्ग इसे थोडा लम्बा महसूस कराता है. पर उबाऊ कतई नही. रास्ते में छुपा छुपी खेलते से बर्फ के पहाड़ बरबस ही अपनी ओर ध्यान खीच लेते हैं. 1 घंटे बाद हम दोछुला पास में थे . बिलकुल निर्जन एकांत .....ऐसा की खुद की सांसों की आवाज़ भी सुन सकें. पर प्राकृतिक सौन्दर्य अतुलनीय सम्मोहक था . इस जगह से मौसम साफ़ होने पर 360 डिग्री में   हिमालय पर्वत श्रृंखला का भव्य नज़ारा दिखता है ,साथ ही यहाँ पर 108 स्तूप नुमा संरचनाएं एक घेरे के अन्दर बनी हुई हैं ये   Druk  Wangyal Chortens   कहलाती हैं , ये राजशाही और जांबाज़ सैनिको की याद में बने पवित्र स्थल के रूप में मान्य है .इसका स्वरुप प्रकृति के मूल तत्वों को प्रदर्शित करता है.
खैर हमारा भाग्य उस दिन साथ ना था और इस जगह पर बादलों ने डेरा डाला हुआ था ,जिस वजह से 360 डिग्री का सम्मोहक नज़ारा देखने से हम वंचित रह गए :( ,इसके बावजूद इस जगह की शांति और सुरम्यता ने हमारे मन को बाँध सा लिया था. वहां से हटने के लिए खुद को मज़बूत करना पड़ा. एक और बात तो हम बताना ही भूल गए की अब इस जगह में पेट-पूजा के लिए एक कैफेटेरिया भी खोल दिया गया है. निर्जन -शांत -सम्मोहक और भूख का इन्तेजाम ...वाकई स्वर्ग यही था :D .
खैर कुछ देर ठहरने के बाद हमने वापस थिम्पू की ओर रुख किया , क्योंकि आज हमको बुद्धा व्यू पॉइंट भी जाना था . लौटते वक़्त अपेक्षकृत गति तेज़ थी. पुलिस चौकी से अपने मुख्य मूल कागजात ले हम थिम्पू पहुंचे.
बुद्धा व्यू पॉइंट का रास्ता शहर के भीतर से ही था...सौभाग्य से एक सज्जन मिले जो की टीचर थे और उनका स्कूल उसी रास्ते पर था जहाँ से हमें बुद्धा व्यू पॉइंट के लिए मुख्य मार्ग लेना था. उन्होंने हमें उस जगह तक पहुँचाया जहाँ से बिलकुल सीधा मार्ग था. जल्द ही हम मंजिल के पास थे . दूर से ही स्वर्णिम आभा युक्त  भगवान् बुद्ध की विशाल प्रतिमा अपनी ओर ध्यान केन्द्रित कर रही थी. थिम्पू पहुँच मार्ग और शहर से भी कई जगहों से ये विशाल प्रतिमा दिखाई देती है. चारों ओर सघन वन क्षेत्र और उनके बीच वो प्रतिमा ,,,ऐसा लगा जैसे सम्पूर्ण प्रकृति ही  शांति की गोद में समाधी लेने को अग्रसर है. बुद्ध के सानिध्य में शांति की समाधी ......
इस जगह पर आकर तो उत्साह दोगुना हो गया ,,,बिटिया तो जैसे अपने उत्साह की पराकास्ठा पर थी...बुद्ध प्रतिमा के सामने विशाल समतल ....एक ओर हिमाच्छादित उत्तंग पर्वत माला दूसरी ओर सघन वन... और हिमकण समाहित हवाएं तो मानो जैसे आपको खुद की सवारी कराने की जिद में हों...महसूस हुआ की प्राकृतिक तत्वों के उन्मुक्त रूप के प्रतिरोध की क्षमता  व्यक्ति मात्र की हो ही नही सकती...आत्मा तक को ठंडा करने की क्षमा वाली तीव्र गति की हवाएं ...खुद को एक जगह पर रोक पाना बहुत मुश्किल लगा...और अन्वेषा ...ऐसा लग रहा था की इन सबको अपने हांथों में समेट लेना चाह रही थी...दोनों बाहें  और मुंह खोल कर शायद वो प्रकृति की उन्मुक्तता को खुद में भर लेना चाह रही थी....इस ठण्ड से बचाने  के लिए मैंने उसे अपना जैकेट पहना कर उसके कानों को ढकना चाहा पर वो तो वाकई उड़ना चाह रही  थी..अपनी नयी सीमाहीन सखी के साथ :) सूरज  बिलकुल सर पर था  और बुद्ध प्रतिमा के प्रत्यक्ष दर्शन को असहज बना रहा था ....कुछ यूँ अनुभूति हुई की जैसे भगवन बुद्ध ये बोल रहे हैं की  मेरे स्वरुप की आभा  को तुम खुली आँखों से सांसारिक  चमक में ना महसूस कर पाओगे... आँखें बंद करो....शांत मन से मैं तुम्हें मिलूंगा....दिखूंगा... शायद ये मेरी सोच थी..पर उस सत्ता के प्रभाव को नकारना मेरे बस में ना था...बिटिया को लगभग खीचते हुए , क्योंकि वो उस जगह से वापस आने को तैयार ना थी , हम शहर की ओर रवाना हुए...
बुद्धा व्यू पॉइंट से बिलकुल लगा हुआ नेचर पार्क भी है..पर प्रवेश के लिए निर्धारित समय बीतने के कारण हमें बाहर से ही लौटना पड़ा.
शहर वापस आते ही हमने  अपने होटल के सामने ही स्विस बेकरी से वेज बर्गर और सेंडविच लिए....उदरस्थ कर अपने कमरे की ओर चले...अब  बिटिया को कुछ खिलाकर कुछ देर आराम करने का समय था...शाम को बाकि जगहों का भी दौरा करना था और कुछ शोपिंग भी :) ...खैर हम जो सोए तो सोते ही रह गए ..और नींद खुली 7 बजे... तब तक पतिदेव कई जगहों का भ्रमण कर वापस आ चुके थे . खैर हम और बिटिया जल्द ही तैयार हुए और बाज़ार की ओर रुख किया... आत्मीयजनो के लिए प्रतीकात्मक तोहफे ले क्राफ्ट बाज़ार देखा...साथ ही विंडो शोपिंग :p ...
यहाँ बाज़ार जल्द ही बंद होता है और ये वक़्त नाईट लाइफ को जीने वाले युवाओं का था..जो सडको पर काफी चहल पहल और रौनक ला रहे थे. लेटेस्ट फैशन से सजे ये युवा किसी बड़े देश के युवाओं से तनिक भी कमतर ना लगे. खैर मुझे यहीं घूम कर समझौता करना पड़ा क्योंकि म्यूजियम और अन्य जगह ऑफिस टाइम के अनुसार ही बंद हो जाते हैं.
हम  पास ही एक रेस्टोरेंट  में खाना खाए और वापस होटल गए...क्योंकि अगली सुबह पारो होते हुए वापस अपने घर की ओर रुख करना था .पता नहीं क्यों लौटने में उत्साह नही महसूस हो रहा था...हमारे रुकने का वक़्त बीत गया था पर मन थम गया था.... कभी ना रीतने वाली यादें देकर ..
 (क्रमशः ) 
दोछुला पास पर स्थित 108 समाधी 

दोछुला पास -कैफेटेरिया 

                                                                                                 दोछुला पास -एक दृश्य 

एक समाधी का नजदीकी दृश्य  (chorten) 


दोछुला पास 

दोछुला पास- chortens

विदेशी सैलानी 

कैफेटेरिआ - दोछुला पास 

दोछुला पास स्वागत द्वार 

दोछुला पास में मंत्रमुग्ध से सुयश 

बुद्धा व्यू पॉइंट का पहुँच मार्ग 

बुद्धा व्यू पॉइंट मार्ग से एक झलक 

बुद्धा व्यू पॉइंट 

बुद्धा व्यू पॉइंट से शहर का नज़ारा 

भगवान् बुद्ध की विशाल प्रतिमा -बुद्धा व्यू पॉइंट 

बुद्ध प्रतिमा 

हिमाच्छादित पर्वत शिखर 

बड़े घेरे में स्थित समाधियाँ -दोछुला पास 

बुद्धा व्यू पॉइंट के नज़दीक स्थित नेचर पार्क -थिम्पू 

बुद्धा पॉइंट पर अन्वेषा और सुयश 

अतिउत्साहित अन्वेषा अपने पापा सुयश की गोद में :)

सोमवार, 30 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -5)

6 मार्च सुबह 11 बजे हम फ़ुएन्त्शोलिन्ग से रवाना  हो चुके थे.थिम्पू की ठण्ड के बारे में होटल स्टाफ हमें पहले ही आगाह कर  चुका था ,तो हमने गर्म-ऊनी कपड़ों का बैग सुविधाजनक तरीके से गाड़ी में व्यवस्थित कर लिया था ताकि जरूरत पड़ने पर तुरंत निकाल सकें. यहाँ से निकलते ही अगले 5 किलोमीटर पर चेक पोस्ट पर परमिट चेक किया गया.अब हम  छोटे छोटे पहाड़ों के सर्पिलाकार रास्तों से आगे बढ़ रहे थे. "बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन " निश्चित ही इसके लिए बधाई का पात्र है की उसने इन दुर्गम पहाड़ों पर आवागमन को बेहद सुगम /सहज बना दिया है.धीरे -धीरे पहाड़ों की ऊँचाई बढ़ रही थी.और वनस्पति का घनत्व बढ़ता ही चला जा रहा था .पेड़ तो आसमान छूने की जिद में दिख रहे थे.सड़क के एक ओर सर उठाए पहाड़ और दूसरी ओर पाताल सा आभास देती हुई खाई . ये देखकर मैं  सोच में थी की  पहाड़ों के रहवासी वाकई बहुत  मेहनती और साहसी होते हैं....जो इन दुर्गम और बेहद ठन्डे  स्थानों में जीवनयापन करते हैं.
      फ़ुएन्त्शोलिन्ग के बाद पसाखा होते हुए हम गेडू की ओर बढ़ रहे थे.मैं मंत्रमुग्ध सी इन पहाड़ों में ही खोई हुई थी पहाड़ों को काफी हद तक बादलों ने ढका हुआ था, ऐसा लग रहा था .. सूरज  की आमद को अनदेखा कर  कुहासे की रजाई ओढ़;  रात भर की जगी उनीदी सी नायिका की तरह बादलों में अटखेलियाँ करते हुए क्षण भर को सजग   और अचानक फिर आलस में डूब जा रहे हैं. ठण्ड ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था . हमने कार  रोक कर गर्म कपडे पहने और आगे चले ..पर अचानक ये क्या हुआ..... हमारा रास्ता किसने रोक दिया.. ओह ये  पहाड़ों पर उतरे बादल ही हैं... खास प्राकृतिक भू भाग पर बादलों को निकलने का उचित स्थान नही मिला था ..परिणामत : " zero visibility"  ... हमें अपनी गाड़ी के शीशे के आगे कुछ भी नज़र नही आ रहा था . बादलों ने हमारी नज़रों और रास्ते की बीच एक पर्दा बना दिया था . आगे हमें रास्ते में घुमावदार मोड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी ,इस स्थिति में सिर्फ अनुमान से आगे बढ़ना किसी खतरे को दावत देने जैसा था..बिटिया आराम से गोद में नींद ले रही थी...इसलिए मैं चाह कर भी इस धुंध में खुद  को खोकर ढूँढने से वंचित रह गई. खैर सुयश ने किसी लोकल गाड़ी को फॉलो करते हुए आगे बढ़ना उचित समझा ,क्योंकि उन्हें रास्ते की स्थिति की ताज़ा जानकारी होती है.हमने इंतज़ार किया और फिर एक ट्रक के सहारे उस महीन किन्तु द्रष्टि के लिए अभेद्य बादल वाले रास्ते को पार किया . डर के साथ पहली बार उत्साह का रोमांच भी महसूस हुआ . ऐसा लगा शायद स्वर्ग यहीं है.. और हम उस तक पहुँचने के लिए कठिनतम मार्ग से आगे बढ़ रहे हैं .... ठण्ड और रोमांच ने शरीर और दिमाग में एक सिहरन सी पैदा कर दी  थी.
       इस सफ़र पर  अब  गेडू होते हुए हम "दन्तक" कैंटीन पहुंचे जो की   खाने के लिए हमारा पड़ाव था ,इसे   
 "बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन " ही संचालित करता है . वहां पर कुछ भारतीय कर्मचारियों ने बेहद गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया .शायद हमारे चेहरे और बोली उन्हें अपने देश की मिटटी से जोड़ रहे थे. परदेश में अपने देश का कोई भी इन्सान कितना अपना लगता है उनके व्यवहार से साफ़ झलक रहा था. उन्होंने हमारे मूल स्थान के बारे में पुछा और स्नेह वश बिटिया को चोकलेट दी . जो की बाद में हमने उदरस्थ की :) , यहाँ हमने मेदुवडा और डोसा खाया . और बिटिया...दूध -टोस्ट  :D.
          यहाँ से आगे बढ़ते हुए चुक्का घाटी के पुल के पास से ही चुक्का पॉवर हाउस की झलक भी देखने को मिली , साथ ही डैम व्यू पॉइंट से आप खूबसूरत नज़ारा ले सकते हैं.यहाँ हर पहाड़ दुसरे पहाड़ से ऊँचाई और वनस्पति घनत्व में होड़ लगाते हुए से प्रतीत होते हैं .एक की चोटी  से तलहट तक पहुंचना..फिर तलहट से दुसरे की चोटी तक..अनवरत क्रम .. आगे फिर एक ऊंचा पहाड़ हमारे रास्ते में था जिससे होते हुए चापचा पहुंचे . यहाँ भी चेक पोस्ट पर परमिट दिखाया . पहाड़ की तली पर बने इस चेक-पोस्ट पर एक अद्भुत सी शांति और सुकून था ,जैसा एक माँ की गोद में छुपे हुए बच्चे को महसूस होता है..कुछ वैसा ही. हरियाली और छोटे छोटे झरने ..प्रकृति ने मुक्त हस्त से इस क्षेत्र को संवारा है . इसके लिए तो मुझे सिर्फ एक ही शब्द सटीक लगा " RAW AND UNTOUCHED BEAUTY " .
चापचा चेक पोस्ट से आगे पहाड़ की ऊँचाई पर बढ़ते  ही  स्वर्णिम आभा से युक्त हिम आच्छादित  पहाड़ की हलकी सी झलक मिली . घुमावदार रास्ते पर वो दृश्य छुपा-छिपी के खेल की तरह आ और जा रहे थे. मैंने जिंदगी में पहली बार अपनी आँखों से बर्फ से ढके पहाड़ों को देखा; जादुई और सम्मोहक एहसास . बीच बीच में छुपना और फिर नज़र आना ऐसा एहसास दे रहे थे, जैसे कोई नई -नवेली कमसिन सी दुल्हन कौतूहल से घूंघट उठा कर देखती हो...और फिर संकोच-लज्जा से वापस घूंघट खीच लेती हो. और मैं उसी नई नवेली दुलहन की झलक पाने के लिए बाल -सुलभ उत्साह से लबरेज ... यह बर्फ से आच्छादित पहाड़ों से मेरा पहला साक्षात्कार था . मेरे लिए यह अविस्मरनीय था ..ताउम्र इस एहसास को याद करना मुझे पहाड़ों की ताजगी और हिम  की शीतलता से सराबोर कर देगा .
इन मनोहारी दृश्यों को कैमरे और स्मृतियों में संजोते हुए देवदार /पाइनस के वृक्षों की छाँव में हम आगे बढ़ रहे थे. हिमाच्छादित पहाड़ अब हमारे हमसफ़र बन चुके थे .किन्तु रास्ता अब  अपेक्षाकृत संकरा हो चला था और सड़क से जुडी खाई भी गहरी होती चली जा रही थीं , किन्तु इस दुर्गम रास्ते में  भी वहां के वहां चालकों का धैर्य और आपसी सामंजस्य तारीफ के काबिल था....ना ही हॉर्न का शोर ,ना ही आगे निकलने की होड़. चढ़ाई पर जा रही गाड़ियों के लिए रुक कर रास्ता देना ..वाकई  सभ्यता  और  असीम धैर्य का परिचय दिया वहां के वहां चालकों ने .
    चापचा के बाद दामछु होते हुए हम चुज़ोम  चेक पोस्ट 
पहुंचे   . इसके बाद रास्ता अपेक्षाकृत चौड़ा हो गया था ..साथ ही रास्ते के साथ चलती हुई नदी की चपलता हममे भी उत्साह भर रही थी . पानी बिलकुल साफ़ दिख रहा था .जिसके कारण नदी की तलहटी के पत्थरों का रंग स्पष्ट देख जा सकता था .नदी के छिछले किनारों पर फैले पठार बेहद आकर्षक लग रहे थे . जो उस पानी पर अटखेलियाँ करने के लिए ललचा रहे थे.  चुजोम पर ही पारो और थिम्पू नदी का संगम होता है और यही से बाईं  ओर एक अलग रास्ता पारो शहर  की ओर जाता है ..दाहिने ओर के रास्ते पर हम थिम्पू की ओर  चले . ठण्ड का असर और पहाड़ों की सघनता अब कुछ कम हो रही थी . और शाम 4 बजे थिम्पू सिटी के वेलकम गेट ने हमारा स्वागत किया . आज का हमारा गंतव्य ...... हम आगे बढ़े और पहले से जानकारी प्राप्त होटल के साथ अन्य होटल और शहर का जायजा लेने के लिए कुछ देर गाड़ी में ही चक्कर लगते रहे.. यहाँ पार्किंग स्थल  की थोड़ी तंगी है .रास्ते अधिकांशत : वन- वे हैं. शहर में संभावित होटल पर नज़र डाल हमने मुख्य मार्ग में hotel Le Meridien के ही समीप होटल GALINGKHA को  अपना पड़ाव बनाया . होटल के कमरे की खूबसूरती पर इस बात ने चार चाँद लगा दिए की सामने की ओर खुलने वाली विशाल खिड़की से  पर्दा  हटते ही सोने से चमकते हिम युक्त शिखर वाले पहाड़ मुस्कुरा रहे थे.  सच कहूं तो सदा- शिव के निवास की कल्पना वाकई में इन्हें देख कर साकार हो उठी थी. अब आज का सफ़र ख़त्म हो चूका था. अरे हाँ यह बताना तो भूल ही गई की बिना लिफ्ट के तीसरी मंजिल तक सामान और बिटिया के साथ चढ़ना बेहद दुष्कर लग रहा था. मुझे तो होटल स्टाफ की ये बात काबिलेतारीफ लगी की वो इस मंजिल और इससे ऊपर भी बने तल तक भारी भरकम सामान   पहुंचाते हैं :) .शाम होते ही कतारबद्ध -अनुशासित ट्रैफिक कमरे से ही नज़र आ रहा था ,साथ ही मुख्य बाज़ार की चहल -पहल भी .  आज की शाम आस पास घूमने,खाने पीने और आराम में गुजरी .कल थिम्पू के आस पास के व्यू पॉइंट जाने की तैय्यारी है.   
 (क्रमशः ) 
                                      
थिम्पू शहर का वेलकम गेट 


बादलों  से घिरे पहाड़ पर "zero visibility" 

चापचा में हिमाच्छादित पर्वत शिखर का एक दृश्य 


हिमाच्छादित पर्वत शिखर का एक अन्य दृश्य


बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन द्वारा संचालित दन्तक कैन्टीन 

सर्पिलाकार रास्ते की एक झलक 

हिमाच्छादित पर्वत शिखर पर छाए मेघ 

हिमाच्छादित पर्वत शिखर

पाइनस वृक्ष से घिरे मार्ग 

स्थानीय विद्यालय के समीप गणवेश में घूमते बच्चे 

मेघाच्छादित पर्वत मार्ग 

मेघाच्छादित पर्वत मार्ग 

मेघाच्छादित पर्वत मार्ग "zero visibility"

ट्रक का अनुसरण कर आगे बढ़ते हुए 

पर्वतीय मार्ग-एक दृश्य 

चापचा चेक पोस्ट 

पर्वत श्रृंखलाएं

पर्वत श्रृंखलाएं

थिम्पू पूर्व पहुँच मार्ग 

मंगलवार, 24 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -4)

आज  दिनांक  4 मार्च सुबह साढ़े 10 बजे हम फिर आगे  के सफ़र के लिए मुजफ्फरपुर से निकल कर हाईवे पर थे.दरभंगा पार करने के बाद कोसी का महासेतु दिखाई दिया ,इसकी सेतु की लम्बाई लगभग 2 किलोमीटर थी..वहीँ सड़क से सामानांतर चले हुए इसके तटबंध ने लगभग 10 किलोमीटर तक हमारा साथ निभाया. इसे देखते ही ये अंदाजा तो हो ही गया की क्यों इस नदी को बिहार का शोक माना गया है??????.वाकई प्रकृति के तत्व अगर संतुलित हों तो जीवनदायी अन्यथा विनाशकारी हो सकते हैं..और काफी हद तक इन प्राकृतिक त्रासदियों के जिम्मेदार हम ही हैं. इसके बाद फोर्बेसगंज ,पूर्णिया होते हुए दोपहर 2.30 पर दालकोला पहुंचे जहाँ हाइवे पर ही होटल राजदरबार में खाना खाया...अब तो शायद आपको बताने की जरूरत भी नही होगी की खाने का आर्डर देते ही हम बिटिया को दूध- टोस्ट खिलाने में जुट गए . फटाफट खाना खाकर हमने  फिर गाड़ी का रुख सिलीगुड़ी की ओर किया जो की आज का हमारा संभावित गंतव्य था.तो किशनगंज होते हुए हम इस्लामपुर पहुंचे ,शहर के अन्दर से गुजरते हुए नए ई -रिक्शे भारी तादात में दिखाई  दिए और इनका जुगाड़ मॉडल ;जिसमे पीछे  की रिक्शे की जगह ठेलेनुमा गाड़ी जुडी थी ; भी दिखाई दिए...आखिर आवश्यकता अविष्कार की जननी है :) . इस्लामपुर के बाद बागडोगरा ( विमान पत्तन ) पहुंचे. यहाँ तक पहुँचते हुए हमारा 4 लेन हाइवे टूलेन सड़क में बदल चुका  था. किन्तु सड़क की स्थिति काफी बेहतर थी..इसलिए कोई समस्या नही महसूस हुई.आगे बढ़ते हुए शाम सुनहरी चूनर बदल कर हल्के स्याह रंग में घुलने  लगी...सूरज डूबा ना था..और सड़क के दोनों किनारों पर "टी -प्लांटेशन "  बिना चाय पिए ही हममे ताजगी भर रहा था.. गहरी हरी रंग की ये पत्तियां भूपेन हज़ारिका जी के बोल अनायास ही दिमाग के किसी कोने में जीवंत कर रही थीं ..." एक कली दो पत्तियां.... " :) और फिर शाम साढ़े 5 बजे हम सिलीगुड़ी पहुँच चुके थे.यहाँ पर मुख्य सड़क पर ट्रैफिक बहुत ज्यादा था . किन्तु पुलिस मुस्तैदी से इसे नियंत्रित कर रही थी. आगे का सफ़र जारी रख सकते थे पर दिन ढलने के बाद रास्ते की खूबसूरती से अनजान नही रहना चाहते थे ,इसलिए थोड़ी बहुत छान बीन के बाद NH-31  पर ही  होटल लेकर ठहरने पर सहमती बनी . और हम लगभग साढ़े 6 बजे होटल अपोलो में थे .
                              बिटिया के खिलाने -पिलाने की फिर वही कवायद शुरू हुई ,उसे दूध बोर्नविटा पिलाकर हमने भी खाने का आर्डर किया और आज बिटिया के लिए उबले आलू और आटा ज्यादा -मैदा कम वाली मठरी(पूरी के बदले ) मिला कर खाना तैयार किया गया ... रात 12 बजे हम सब नींद के आगोश में जाने की तैय्यारी में थे.
5 मार्च .....सुबह बिटिया ने ही हमको जगाया . फटाफट नित्यकर्म से निपट कर करीब 8.30 पर होटल के डाइनिंग हॉल में नाश्ते के लिए पहुंचे, अन्वेषा (बिटिया ) को हमारे नाश्ते में ना कोई रूचि थी ना ही जरूरत (क्योंकि वो पहले ही अपना दूध-बोर्नविटा पी चुकी थी ).लिफ्ट से इस हॉल तक पहुँचने में उसने पूरे होटल में ये सन्देश दे दिया की कोई बच्चा यहाँ मौजूद है :p  ,दरअसल वो लिफ्ट से बहुत ज्यादा डरती है..उसने रो-रोकर अपना डर जाहिर किया. नाश्ता काफी स्वादिष्ट था. और होटल स्टाफ बेहद मिलनसार और नम्र था .हमारे अलावा वहां होटल के अन्य मेहमान भी मौजूद थे, स्टाफ सहित सबने अन्वेषा से दोस्ती करने का प्रयास किया पर शायद बिटिया रानी ने "बेबी डॉल मैं सोने दी " गाना कुछ ज्यादा गंभीरता से ले लिया था   ,तो उसने पीतल की दुनिया के  सभी रहवासियों को नकार दिया ;) .खैर रूम में वापस आकर हमने परिवार और आत्मीय जनों को होली की अग्रिम शुभकामना देने के लिए फ़ोन किया..क्योंकि आज हम भूटान सीमा में प्रवेश करने वाले थे  ,और हमारे मोबाइल का नेटवर्क वहां काम नही करता . आज हम थोड़े सुस्त हुए क्योंकि हमें आज ज्यादा दूरी तय नही करना था . तो बिटिया को नहलाकर दाल -चावल की खिचड़ी खिलाकर पैकिंग पूरी कर हम करीब 10.45 पर भूटान की ओर बढ़े .
सिलीगुड़ी से निकलते ही रास्ता थोडा सकरा महसूस होने लगा .क्योंकि यह  वाइल्डलाइफ सेंचुरी से होकर गुजरता है. सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ ऐसे लग रहे थे  जैसे आसमान को छूने की जिद में हों . हम जल्द ही सिवोक पहुंचे ;ये सिक्किम और बंगाल का बॉर्डर है और यहाँ तीस्ता नदी पर बना  पुल आवागमन और सैन्य सुरक्षा के दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है ,इसे कोरोनेशन (coronation ) ब्रिज के नाम भी जाना जाता है. इस पर सेना और BSF की टुकड़ी की मुस्दैत तैनादगी से महसूस हुआ की यह क्षेत्र कितना संवेदनशील है. इस पुल के ठीक पहले काली माता का सिद्ध मंदिर भी है जहाँ श्रृद्धालुओं की काफी भीड़ भी थी. पुल से गुजरते हुए  चंचलता के लिए मशहूर तीस्ता नदी की स्थिरता  मन को बाँध रही थी....और  नज़रों को भी  स्थिर कर रही  थी वो. सच में चंचलता जब गंभीरता के रूप में बदलती है तो प्रबल सम्मोहक हो जाती है...कुछ ऐसा ही यहाँ महसूस हुआ.  इस पूरे क्षेत्र में लाल मुह के  बंदरों का काफी जमावड़ा  था . सिलीगुड़ी से ही भूटान की काफी गाड़ियाँ (फोर व्हीलर ) दिखाई देने लगती हैं.क्योंकि  भूटान का ज्यादातर आयात निर्यात इन्हीं मार्गों पर निर्भर है . ब्रिज पार कर पतिदेव ने गाड़ी रोक कर कुछ तस्वीरें ली और हम आगे बढ़े. दुआर ,बन्निपारा ,हाशिमारा होते हुए जयगाँव पहुंचे . इसी रास्ते में हमें जलदापारा नेशनल पार्क भी पड़ा .पर हमारा उद्देश्य यहाँ रुकने का नही था . हाँ ये जरूर सोचा की बिटिया के बड़े होने के बाद उसे यहाँ जरूर लेकर आएँगे ताकि वो इन्हें समझ और महसूस कर सके . जयगांव भारत की सीमावर्ती शहर है ,इसके बाद ही भूटान की सीमा शुरू होती है .   बेहद व्यस्ततम और भीड़ -भाड़ वाले इस  शहर की सीमा   भूटान के फ़ुएन्त्शोलिन्ग (Phuentsholing)   में आकर मिली ,और सच कहूँ तो मैं अवाक रह गई. दो ऐसे शहर जो बस सिर्फ एक भव्य गेट की सीमा से अलग होते हैं इतने अलग कैसे हो सकते हैं!!!!!!!!!!!!!!!!!!
                         दोपहर 1 .45 पर हमने भूटान सीमा में प्रवेश किया. भूटान के इस शहर में प्रवेश के लिए किसी प्रकार के परमिट या अनुमति की जरूरत नही होती . हमने 
फ़ुएन्त्शोलिन्ग में रीजनल सिक्योरिटी एंड ट्रांसपोर्ट एथोरिटी के ऑफिस के नजदीक ही एक होटल लिया और सामन रूम में रख कर ऑफिस की ओर दौड़ लगाईं ,क्योंकि आगे जाने के लिए हमारा और गाड़ी का परमिट होना जरूरी था ,उसके बिना हमें आगे के शहरों की सीमा में प्रवेश नही मिलता .और यह काम हम आज ही निपटाना चाहते थे.
        पतिदेव ने यहाँ लगने वाले सभी दस्तावेजों और एप्लीकेशन फॉर्म की कई प्रतियाँ सफ़र पर निकलने से पूर्व ही करवा कर एक फाइल तैयार कर ली थी. बिटिया का पासपोर्ट की कॉपी भी रखी थी . लिहजा इस ऑफिस में हमारा काम आसान हो गया . सुयश (पतिदेव) ने हम तीनो का एप्लीकेशन फॉर्म और सभी डॉक्यूमेंट सम्बंधित कर्मचारी को दिए. और लगभग 40-45 मिनट में ऑनलाइन वेरिफिकेशन करके हमारा परमिट दे दिया गया . इस ऑफिस में महिला कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा लगी. अपने परंपरागत पहनावे में विनम्रता के साथ साथ काफी कार्यकुशल लगी . साथ ही फैशनेबल भी . एक खास बात यह दिखी की यहाँ काम करने वाला पूरा युवा वर्ग पूरे समय सोशल नेटवर्किंग में सक्रिय था . सेल्फी और वोइस चैट इनके कार्यकुशलता को जरा भी प्रभावित नही कर पा रहे थे . एक और विशेषता ...पान की गिलौरी दबाए  प्रौढ़ पुरुष  मुझे भारत के सरकारी दफ्तरों के टिपिकल बाबुओं की याद दिला गए :) .
यहाँ से निकलने के बाद हमने कार की परमिट के लिए एडिशनल आर.टी. ओ. के ऑफिस में हाजरी दी. इसके लिए भी अनिवार्य दस्तावेज सुयश ने पहले ही जूटा रखे थे . पर दुर्भाग्यवश हमारे पहुँचने से पहले 3 बजे ही बंद हो चुका था ,जिसकी जानकारी हमें  
एडिशनल आर.टी. ओ. महोदय ने ही दी . उन्होंने हमारा परिचय लेते हुए काम पूरा ना हों पाने के लिए खेद व्यक्त किया और दुसरे दिन सुबह लगभग 9 बजे आने की सलाह दी .
हम वापस होटल पहुंचे और  बिटिया इस दौड़ भाग में काफी थक चुकी थी तो उसे थोड़ी देर के लिए सुला दिया . और पतिदेव  कैमरा लेकर थोडा घूमने-फिरने के लिए निकल गए . आज अब हमें सिर्फ आराम ही करना था तो मैंने भी बिटिया के साथ नींद लेने का मन बनाया . हालाँकि की होली (धुरेड़ी ) की पूर्व संध्या थी ,पर सीमावर्ती होने के बावजूद भी यहाँ पर इसका कोई प्रभाव नही दिखा .
हमारे पूर्वानुमान और जानकारी  से अलग यहाँ अचानक थोड़ी देर के लिए हमारे मोबाइल को BSNL. का  नेटवर्क भी मिला,जिसका फायदा उठा कर  हमने घर पर अपनी स्थिति की जानकारी दी .
यहाँ आकर एक और खासियत ने मुझे प्रभावित किया वो है व्यवस्थित ट्रैफिक ने. भूटान की सीमा में आते ही हमने ये बात नोटिस की थी की यहाँ हॉर्न का प्रयोग लगभग ना के ही बराबर होता है..ना तो दूसरी गाड़ियों से आगे निकलने की होड़ थी. बेहद अनुशासित तरीके से गाड़ी चलाई जा रही थी यहाँ. पैदल चलने वालों की सुविधा का भी खास ध्यान और सड़क पार करने में तवज्जो दी  जा रही थी. सभ्यता और संस्कृति इन्हें विशेष बना रही थी. 
हम दोनों ही वहां की शांति और संस्थानों की  पारंपरिक सज्जा से काफी प्रभावित हुए. आधुनिक होते हुए भी वो अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं..ये देख कर सुकून भी मिला .  
शाम को उठने के बाद मैं अलसाई हुई थी इसलिए बिटिया के साथ रूम में ही रही और पतिदेव ने फिर बाजार की ओर रुख किया . वो जल्द ही वापस आकर  होटल के  
रेस्टोरेंट चले गए. मैंने रूम में ही अपने और बिटिया के लिए खाने का आर्डर किया . और कल सुबह जल्द उठने के लिए आज जल्द ही सोने की कोशिश की .
दुसरे दिन 6 मार्च की  सुबह करीब 7.45 पर मैंने सुयश को जगाया .चूँकि टाइम जोन में भूटान हमसे लगभग 1 /2 घंटे आगे है और गाड़ी के परमिट के लिए सुबह 9 बजे ऑफिस में उपस्थित होना था इसलिए सुयश फटाफट तैयार होकर हमें तैयार रहने की हिदायत देकर   
रीजनल सिक्योरिटी एंड ट्रांसपोर्ट एथोरिटी के ऑफिस चले गए. तब तक हमने भी बिटिया को जगाकर रोज की तरह का उपक्रम दोहराया और उसे खाना खिलाकर तैयार किया . सुबह 10 बजे सुयश कार के परमिट के साथ वापस आ चुके थे .कहना गलत ना होगा की भूटान के सरकारी ऑफिस के कर्मचारियों का रवैय्या हमारे देश के टरकाने /लटकाने के रवैय्ये से उलट चुस्त-दुरुस्त है. परमिट देते वक़्त सम्बंधित अधिकारी महोदय ने सुयश से भारत  में गाड़ियों की नंबर प्लेट पैटर्न  और विशेष (यूनिफार्म ) पारम्परिक पहनावे  और हमारी क्षेत्रीयता के सम्बन्ध में भी बातें की . साथ ही उन्होंने परमिट की प्रतियाँ करवाकर रखने की हिदायत भी दी ,क्योंकि आगे सफ़र में कई चेक- पोस्ट पर इनकी प्रतियाँ जमा करना होगा.
तो आज होली (6 मार्च ) को हमने सुबह 11 बजे होटल को अलविदा किया और अपने मुख्य गंतव्य "थिम्पू " की ओर रुख किया .  (क्रमशः ) 
कोरोनेशन ब्रिज , सिवोक 


नेशनल पार्क स्वागत गेट 


रॉयल किंगडम ऑफ़ भूटान ,प्रवेश द्वार ,फ़ुएन्त्शोलिन्ग

भूटान प्रवेश द्वार पूर्व दन्तक का स्वागत बोर्ड 

जलदापारा नेशनल पार्क मुख्य गेट .

बुधवार, 18 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -3 )

3 मार्च ,सुबह 10 बजे ; और हम इलाहाबाद के व्यस्ततम  मार्ग में आगे बढ़ रहे थे . दिशा...... अरे यह तो हम आपको बताना ही भूल गए की किसी भी यात्रा में निकलने के पूर्व पतिदेव मेन रूट प्लान (वैकल्पिक भी ), संभावित समय,उस  दिन के संभावित अंतिम गंतव्य ,स्थान विशेष में होटल के नाम  आदि का पूरा पेपर वर्क करते  (होम वर्क कहना उचित ही होगा )हैं. सभी यात्राओं में यह काफी उपयोगी /सहायक सिद्ध होता है; अरे हाँ तो हम यात्रा की दिशा पर बात कर रहे थे . पूर्व निर्धारित कार्यक्रम और समय के अनुसार हमारा उस दिन का पड़ाव पूर्णिया या दरभंगा होना था .
तो इलाहाबाद से निकलकर गंगा पुल पार करते हुए हम फाफामऊ पहुंचे .तब तक रोड की  ज्ञात स्थिति और बदहाल ट्रैफिक ने हमारा सारा उत्साह  ठंडा कर दिया था. प्रतापगढ़ पहुँचते पहुँचते ही हमें  दोपहर के 12 बज चुके थे. हमने इलाहाबाद से चलते वक़्त यह तय किया था की 12-1 के आस पास हम फ़ैजाबाद में होंगे तो बिटिया और स्वयं के खाने का कार्यक्रम यू. पी. पर्यटन विभाग के होटल में होगा ,जो की रास्ते में ही पड़ता. पर खस्ताहाल सडकों ने हमारे पूरे प्लान पर पानी फेर दिया :( , सच कहूं तो मुझे लगभग 13 साल पहले की मध्यप्रदेश के कांग्रेस शासनकाल की सड़कें याद आ गईं, जब सड़के सड़क ना होकर "जल   संग्रहण की  सामूहिक टंकी" नज़र आती थी. इस फेर में फंस कर बिटिया भूखी ही गोद में सो  गई . जैसे तैसे सड़कों से संघर्ष करते हमारी गाड़ी दोपहर 2.15 पर  राजा राम की नगरी अयोध्या / फ़ैजाबाद पहुंची ,हमने राहत की साँस ली और पूर्व निर्धारित होटल में पहुंचकर खाने का आर्डर दिया ,तब तक मैंने बिटिया को " खिचड़ी " खिलने की कसरत शुरू की, पर ये क्या ....उसने अपने शास्त्रीय संगीत ( रोने ) से पूरा होटल गूंजा दिया . डांट -डर -मान मनौअल कुछ काम नही आया ,उसको नहीं खाना था तो नहीं खाई :( , दरअसल वो अपने खाने पीने में समय की काफी पाबंद है ;और आज तो लगभग 2-3 घंटे की देर हो चुकी थी. होटल में खाने का आर्डर काफी देर से पूरा हुआ ;वो भी अधूरा .बेहद व्यस्ततम और शायद लोकप्रिय होटल लगा. खाने का स्वाद अच्छा था ,पर मेरे गले से निवाला नही उतर रहा था ,बिटिया के भूखे रहने का दुःख और उसके असहयोग ने मुझे काफी खीज दिला दी  थी. जैसे तैसे थोडा बहुत खाकर हमने सफ़र में आगे की ओर रुख किया . बिटिया के खाने की वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर हम पिछली सीट पर शिफ्ट हुए और उसे उसके पसंदीदा लेज के चिप्स पकडाए ,पर आज वो विद्रोह में उतारू थी. ना मतलब ना हुआ ... मेरा पारा सातवें आसमान में था...और मैंने ऐलान किया की अब इसे लेकर किसी भी लम्बे सफ़र पर नहीं जाऊंगी (इस सफ़र में यह जुमला पतिदेव को कई बार सुनने को मिला :p ) .
                              आख़िरकार मैंने हथियार डाल  दिए और उसे कुछ भी खिलाने की कोशिश बंद कर चुपचाप बैठ गई.थोड़ी देर तो बिटिया ने मोबाइल पर अपनी " राइम" देख कर मन बहलाया फिर उसने मेरी चुप्पी को नोटिस किया ,मुझे मानाने के प्रयास में कई बार अपने गाल पर मेरा हाँथ लगाने की कोशिश की और मैंने छुड़ा लिया. असफल होते ही उसने रोकर ब्रम्हास्त्र चलाया और हम ढेर. खैर इस पूरी जद्दोजहद के बाद उसने दूध टोस्ट ( रोज की निर्धारित मात्रा से कुछ ज्यादा ) आराम से खा लिया ,शायद उसे मुझे पर दया आ गई थी :D.
फ़ैजाबाद से आगे  पवित्र सरयू नदी पार की, जो ब्राह्मणों में विशेष विभाजन या सरयूपारीय विभाग के उद्गम  के लिए प्रमुख कारण बनी थी.इसके बाद बस्ती ,गोरखपुर ,कुशीनगर शहरों को बाइपास से ही हाय- बाय किया, पर पिक्चर अभी बाकी है......इन सब शहरों की बाइपास सुविधा से बचा वक़्त गोपालगंज ( यू. पी. - बिहार बॉर्डर ) ने डकार लिया...लगभग 20 किलोमीटर का ये रास्ता दुर्दान्त साबित हुआ . ढलता हुआ सूरज भी अनजाने रास्तों में एक मुसीबत ही लगता है..क्योंकि गाड़ी चलने वाले के लिए- द्रश्यता  सीमा /visibility बहुत कम हो जाती है . इस दौरान ये समझ आ गया की आज के निर्धारित गंतव्य तक पहुंचना असंभव है . शाम गहराते हुए रात में बदलने लगी ,मेरे सर पर फिर बिटिया के खाने की चिंता सवार होने लगी. सुबह ना सही ,रात को तो उसका पसंदीदा खाना सही समय पर मिलना चाहिए .  इसी दौरान पतिदेव ने डीज़ल लेते वक़्त फ्यूल स्टेशन के कर्मचारियों से नजदीक में होटल की सुविधा के बारे में जानकारी ली,पता चला चकिया नाम की जगह में खाने और रुकने की व्यवस्था हो जाएगी.
थोडा तसल्ली हुई पर ज्यादा देर मैं खुश ना रह सकी .चकिया  के होटल पहुँचते ही सबसे पहले मैंने बिटिया की आटा मैगी घर से लाए गए भगौने में पानी डालकर पकाने के लिए होटल की रसोई में पतिदेव के हाथ पहुंचवाया . उसके बाद कमरा देखने की बारी आई..... उफ़ ये क्या !!!!!!!!!!!!!!!!! यहाँ तो मैं अपनी बेटी को पैर भी ना रखने दूं ;कहकर मैं सीधे गाड़ी में आकर बैठ गई..बेहद तंग गलियारे से निकलने के बाद वो कमरा तो हवाप्रद लगा पर साफ सफाई का आलम देख कर मेरी नाक सिकुड़ चुकी थी. तब तक पतिदेव तैयार मैगी लेकर आए... ओह... ये क्या लगा की अपना सर पकड़ कर रो लूं.. तेज़ आंच में पकाई हुई कड़ी कड़ी मैगी ..बिटिया को नहीं खाना था..तो वो नहीं खाई.अब मेरा गुस्सा दुःख और करुणा में बदल चूका था . हमारे सफ़र में हमारी संतुष्टि में बिटिया तकलीफ झेले,इससे बुरा कुछ ना था . :'(
आख़िरकार पतिदेव और हमने बाकी खाने का आर्डर कैंसिल कर फटाफट कार रास्ते  में आगे बढाई . आगे हम कहाँ जाने वाले थे यह समय ही निश्चित करने वाला था .रात का 8 बज चूका था और हमने रुख किया मुजफ्फरपुर की ओर . अपनी बिटिया को लेकर मैं चिंतित थी और पतिदेव हम दोनों को लेकर. रास्ते में होलिका दहन के पूर्व के कार्यक्रम चल रहे the. एक थ्री व्हीलर में पटिये  बिहारी गाने पर नाचती हुई 
बिहार की"टिपिकल नचनिया " और नीचे मस्ती कर रहे होलियारों ने  हमारी कल्पना को रंग दे दिया . उस टेंशन के समय में भी इस दृश्य ने मेरे और पतिदेव के होंठों पर मुस्कान ला दी. थोड़ी आगे बढ़े तो एक बारात ...वाह जी वाह ..घोड़े, हांथी ,ऊँट से सजी बारात ,बैंड में  -"आज मेरे यार की शादी है " गा ता हुआ एक गायक ...ऐसा लगा की कोई शाही बारात है ,पूछने पर पता चला की नहीं ये आम आदमी (केजरीवाल की पार्टी वाला नही ) की ही बारात है. खैर हमारे सफ़र का तनाव कुछ कम हो चूका था. हाँ इस दौरान हम इन पलों को कैमरे में नही कैद कर पाए ...क्योंकि बिटिया हमारी गोद में पॉवर नैप ले रही थी..और वकील साहब मतलब पतिदेव गाड़ी ड्राइव कर रहे थे .
                   रात करीब 10.15 पर हमने मुजफ्फरपुर बाइपास पर गाड़ी रोकी ,और पतिदेव ने उतर कर होटल के बारे में पता किया . एक सज्जन ने बताया की "गोलाम्भर " के पास पूछने से आपको सही जानकारी मिल जाएगी . चौराहे के लिए ये स्थानीय शब्द हमें बहुत भाया ,पूरे सफ़र में अक्सर हम इसे प्रयोग करते रहे . होटल ढूँढने के प्रयास में एक कूल dude टाइप के बन्दे ने पतिदेव को "इमली चट्टी " नाम की जगह बताई ,जहाँ पहुँचते ही हमारी आज की यात्रा को विराम मिला ..लगभग एक साल पहले खुले एक होटल पर हमारी सहमती बनी ,कमरे में पहुँचते ही बिटिया की ख़ुशी ने हमारी सारी थकान उतार दी बेहद साफ-सुथरा ,अत्याधुनिक सज्जा और सुविधाओं से सज्जित उस हालनुमा कमरे में बिटिया ने दौड़ भाग कर हमें निश्चिंत कर दिया. मैंने फटाफट उस कड़ी मैगी को इलेक्ट्रिक केटल (ये भी घर से ही ले जाई  गई थी )में मक्खन और पानी दल कर उबाल दिलाई और फटाफट बिटिया को खिलाया .खुद भी खाने का आर्डर दे नेट सर्फिंग करने लग गए. लगभग 11 .30 पर खाना ख़त्म कर आरामदायक और साफ़ बिस्तर की गोद में समा गए...हाँ सोने से पहले पतिदेव ने हिदायत दी की कल कोई जल्दी नही करना और बिटिया को खाना खिला कर ही सफ़र पर निकलेंगे . पूरे दिन की दिमागी और शारीरिक थकान के कारण  बिटिया  को सुलाने बाद नींद ने मुझे कब आगोश में लिया पता ही ना चला ...दुसरे दिन सुबह सीधे 6.30 पर ही नींद खुली . बिटिया गहरी नींद में सोई हुई थी..अरे हाँ ये तो बताना भूल ही गई की यहाँ पर मच्छरों की फौज इतनी ज्यादा है की अगर आपने सिर्फ एक आल आउट या मोर्टिन लगाया तो शायद आप पूरी रात कव्वाली ही गाएँगे :) आज भी वही दैनिक क्रम....निपटते हुए बिटिया जाग गई थी...लगभग सवा आठ पर. हमने खुद के लिए आलू पराठे और बिटिया के लिए सादा दाल चावल आर्डर कर फटाफट बिटिया को नहलाने और सामान समेटने का काम शुरू किया.बिटिया को खिलाने के बाद मैं निश्चिंत हुई,और रास्ते के लिए दूध थर्मस में पैक कराया . 10.15 पर हमने होटल को बाय किया ,पर निकलते ही मोड़ पर पुलिस ने रोक लिया ...क्यों....?रास्ता -एकतरफा /oneway था... तो उसने हमें घूम कर जाने की सलाह डी..हालांकि वहां पर कोई बोर्ड नही था. सड़क कल रात को जितनी सुगम लगी आज भीड़ ने हमारा रास्ता  थोडा मुश्किल  कर दिया,खैर ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा और हम 10.30 पर वापस बाइपास पर थे ....तो आज 4 मार्च का हमारा सफ़र शुरू हो चूका था.... ये कैसा रहा....अगली कड़ी में पढ़िए :)
शानदार सवारी ...जानदार सवारी ................बिहार में :)


क्षेत्रीयता का असर- डाईभर्सन :) 

गोपालगंज में सड़क की स्थिति 


गोपालगंज में सड़क की स्थिति 



गोपालगंज में सड़क की स्थिति