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सोमवार, 21 जुलाई 2025

मोक्ष : शिवत्व की प्राप्ति


 

(चित्र गूगल से साभार)

आत्मा की वांछना : मोक्ष 

धरती की एक निस्तब्ध रात, पवन का वेग हृदय की तरफ आलोडित किंतु स्पंदनहीन सा, चंद्रिका जैसे विषाद से मुख मलिन कर बैठी हो, और प्रकृति का विलक्षण ठहराव… यह दृश्य मात्र कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक भ्रमित आत्मा की उस यात्रा का एक दृश्य है, जो स्वयं के मूल को भूल कर कल्पान्तर तक मृत्युलोक में उत्तर खोजने भटकती रहती। वह मोक्ष की ओर लौटने को व्याकुल है। किंतु कई जीवन , कई संबंध ,कई योनियों की तपस्या के बाद भी आत्मा पूर्ण नहीं हो सकी।प्रत्येक जन्म में एक नई पहचान के साथ अपने 'स्व' की खोज में भटकती एक प्रश्न का उत्तर ढूंढने में प्रयासरत रहती कि "मैं कौन हूँ?"

यही प्रश्न आत्मा को बार-बार जन्म देता है और हर जन्म एक नए भ्रम को जन्म देता है। वास्तव में भ्रम ही से मुक्त होने की मोक्ष यात्रा में बाधा होता। मुक्ति तब तक संभव नहीं जब तक आत्मा अपने केंद्र को न पहचाने।हम स्वयं की भौतिक पहचान या रूप को आत्मा का केंद्र समझ लेते ,पर यह वो असत्य जो मूल से हमें और दूर कर देता है।

आत्मा का स्वभाव शुद्ध है, परंतु जब आत्मा स्वयं को भौतिक बाहरी दृष्टि से देखने लगती...... दूसरों की मान्यताओं, परिभाषाओं, और प्रतीकों के आईने में .....तब वह अपने वास्तविक स्वरूप से दूर हो जाती है। यही पहला भ्रम है। यह भ्रम आत्मा के मूल रूप को बार-बार स्वयं से दूर करता है, और हर जन्म में वह एक नया नाम, नया रूप, और नया संघर्ष जीती है।

 आत्मा विलक्षण होती है ज्ञानवान, भावुक, कर्मशील। परंतु भीतर कोई रिक्तता बनी रहती है, जो कभी भर नहीं पाती। यह रिक्तता किसी भौतिक वस्तु की नहीं,अपितु मूल तत्व का आत्मा से टूटे संबंध की होती है। जब तक आत्मा इस टूटन को स्वीकार नहीं करती, वह हर सत्य को भ्रम समझ बैठती है, और हर भ्रम को सत्य।
इस आत्मा का मूल शिव है, अविकारी,अनंत, अनघ, अमर्त्य, अचिंत्य, अधोक्षजा ,अज। आत्मा का मूल भी यही होता जब तक वो भ्रमित नहीं होती। शिव का ही प्रतिरूप । 
जब तक आत्मा को शिवत्व नहीं मिलता वह प्रतीक्षा रत रहती है। यह प्रतीक्षा सिर्फ किसी एक आत्मा की नहीं, हर उस चेतना की है, जो शिव से अलग होकर संसार में भटक रही है। पर अगर शिव स्वरूप कल्याणकारी ,वो भक्त वत्सल तो उसे रोकते क्यों नहीं????? क्योंकि प्रेम में बंधन नहीं होता। प्रेम मुक्त करता है, सारी संभावनाओं और प्रयोगों के लिए। पर क्या यह प्रेम सिर्फ एक पक्षीय .....नहीं शिव भी प्रतीक्षा करते हैं क्योंकि प्रेम में त्याग है, स्थिरता है, और गहराई है।

यह प्रतीक्षा सरल नहीं। युगों तक चलती है। क्योंकि आत्मा जब तक स्वयं को 'स्वतंत्र' मानकर शिव से अलग अनुभव करती है, वह अपनी स्वतंत्रता को ही खो बैठती है। शिव से दूर होकर कोई आत्मा पूर्ण नहीं हो सकती।

मोक्ष कोई असाध्य तप अवधारणा नहीं। यह आत्मा की उस अवस्था का नाम है, जब वह स्वयं से बाहर नहीं, भीतर उतरती है। जब वह सारी भौतिकता ,सारे नाम, सभी मुखौटे, और हर सामाजिक पहचान त्याग देती है और मौन होकर केवल अपने होने को महसूस करती है। तभी वह शिव को पहचान पाती है जो सदा से उसके भीतर थे, परंतु प्रस्तर भ्रमित पहचान में छुप गए थे।

मोक्ष, शिव की आत्मा से पुनर्मिलन है। और जब तक यह मिलन नहीं होता, आत्मा पुनः जन्म लेती है...... बार-बार।


सत्य यही है कि हम इसी भ्रम दशा को जी रहे हैं। हम सब, कभी न कभी, भ्रमित आत्माएं बनते हैं। हम भी किसी चौराहे पर खड़े होकर अपने प्रतिबिंब से पूछते हैं...."मैं कौन हूँ?" और उत्तर मिलता है ...."तुम वही हो, जिसे तुमने कभी पहचानने का प्रयास ही नहीं किया।"
शिव वही मौन उत्तर हैं, जो हर आत्मा के भीतर गूंजते हैं। वे प्रतीक्षा करते हैं, ताकि जब आत्मा थक जाए, टूट जाए, और उसे लौटने की तीव्र उत्कंठा हो तो उसे अपने अंदर वही स्पंदन मिले, जो वह जन्मों से बाहर खोजती रही।

भ्रम आत्मा की यात्रा का प्रारंभ है, परंतु उसका अंत केवल आत्मा का शिव में समर्पण से ही होता है। हम जितना भी जान लें, देख लें, समझ लें जब तक हम शिवतत्व को भीतर नहीं जगाते, या जानते ...हमारी आत्मा को पूर्णत्व अप्राप्त रहता है।

भ्रम में भटकती आत्मा को सत्य तब मिलता है, जब वह मौन में शिव को सुनती है।और जब तक वह स्वर नहीं सुनाई देता, हमारे प्रश्न अनुत्तरित रहते हैं।शिव कोई बाहरी सत्ता नहीं वह आत्मा का मूल स्रोत हैं। जब हम उनसे जुड़ते हैं, तभी हम स्वयं से जुड़ते हैं। और यही मोक्ष है।शिवत्व को आत्मा में तलाश लेना इस यात्रा का अंतिम ठौर है और वही मोक्ष है।


#ब्रह्मनाद 
#डॉ_मधूलिका 
 


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