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गुरुवार, 17 नवंबर 2022

#गड़िया_लोहार

 



#समय प्रतिपल चल रहा है। इसका पहिया लगातार घूमता रहता। और इस पहिये के साथ हमारा जीवन भी गतिमान है। पर कुछ ऐसे भी है ,जिनका जीवन भी पहिये के साथ ही चलता,और चलते-चलते अपनी अंतिम परिणीति पाता। सिर्फ समय नहीं,भौतिक रूप से उनका जीवन पहिये के साथ चलता। ऐसे ही एक समुदाय का नाम है : #गड़िया_लोहार ।


#इनका जीवन ही यायावरी है। बैलगाड़ी ही जिनका घर हो, और ये यायावरी ,इनकी अपनी मातृभूमि के प्रति समर्पण और वचनबद्धता का द्योतक। इस समुदाय ने भूतकाल में जो वचन अपने राजा को दिया,उसे इनकी पीढ़ियां आज भी अनवरत जीती चली जा रही हैं। एक जगह न रुकने की प्रतिबध्दता लिए इनको हम अपने शहरों के आस -पास सड़क किनारे, या किसी मैदान में तम्बू के रूपमे आसरा लिए ,लोहे का पारंपरिक समान;बनाते और बेचते देखे ही होंगे। गाड़ियों (बैल) में लगातार चलते रहने के कारण ही इन्हें गढ़िया /गड़िया लोहार कहा जाने लगा । 


#इनके इतिहास की ओर नज़र डालें तो पता चलेगा ये भी क्षत्रिय हैं।मुग़ल शासन के दौरान जब अकबर के समक्ष कई रजवाड़े झुक चुके थे ,तब #महाराणा_प्रताप ने उनको चुनौती दी। #हल्दीघाटी  के युद्ध के बाद चित्तौड़ को हड़प लिटा गया । उस संघर्ष में में महाराणा के साथ एक निष्ठावान समुदाय ने दिया था,यही थे गड़िया लोहार। उन्होंने महाराणा को #वचन दिया था कि जब तक अपनी मातृभूमि को मुक्त नहीं करा लेंगे ,तब तक अपना स्थायी निवास नहीं बनाएंगे न ही मेवाड़ वापस लौटेंगे। हालांकि महाराणा प्रताप के पुत्र ने खुद अकबर की दासता स्वीकार कर ली,पर ये निष्ठावान समुदाय अपने संकल्पित इतिहास के चलते चलायमान रहे।

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#वेशभूषा एवं #रीतिरिवाज  :

पुरुष धोती व बंडी पहनते हैं,हालांकि वक़्त के साथ चलन अनुरूप कपड़े पहनने लगे हैं।  जबकि महिलाएं अब भी परम्परागत वेशभूषा में दिखती हैं। गले में चांदी का कड़ा, हाथों में भुजाओं तक कांच, लाख, सीप व तांबे की चूडि़यां, नाक में बड़ी सी नथ, कोई -कोई #बुलाक (नाक के बीच मे पहने जाने वाला आभूषण ) पहने हुए भी दिखती हैं। पांव में भारी-भारी चांदी के कड़े, कानों में पीतल या सीप की बड़ी-बड़ी बालियां पहनती हैं। 


सिर पर आठ-दस तरह की #चोटियां गूंथती हैं। जिसे #मिढियाँ  गुथना कहते  हैं ,इसे कौडि़यों,छोटे घुंघरूओं से सजाती हैं। महिलाएं घुटनों से नीचे तक का छींटदार  और बहुत घरवाले लहंगे पहनती हैं। कमर में कांचली पहनती हैं। ये अपने बदन पर प्राकृतिक फूल-पत्तियों ,और जानवरों की आकृतियों की चित्रकारी, विविध रंगों से  गोदना भी गुदवाती हैं। दरअसल, #गोदना इस जाति की पहचान का विशेष चिन्ह भी माना जाता है।


#इस जाति में कई अनोखी दृढ़ प्रतिज्ञाएं हैं, जैसे सिर पर टोपी नहीं पहनना, पलंग पर नहीं सोना, घर का मकान नहीं बनाना, चिराग नहीं जलाना, कुएं से पानी नहीं भरना, अंतर्जातीय विवाह नहीं करना, मृत्यु पर ज्यादा विलाप नहीं करना आदि।


 #इनके कबीले के मुखिया के हुक्म के कारण ये एक से अधिक कंघा नहीं रखते। कंघा टूटने पर उसे जमीन में दफन कर नया कंघा खरीदते हैं। नए कंघे को पहले कुलदेवी की तस्वीर के समक्ष रख पवित्र किया जाता है।

 

#इन लोगों में जब शादी होती है तो पति-पत्नी अपनी पहली मधुर रात गाड़ी में ही हंसी-खुशी गुजारते हैं तथा यह भी तय करते हैं कि वे अपनी भावी संतान को चलती बैलगाड़ी में ही जन्म देंगे, ताकि उसमें भी घुमक्कड़ संस्कार समा सकें।  इनके विवाह में मयूर पंख का बड़ा महत्व है। अग्नि के फेरे के उपरांत दुल्हन दूल्हे को एक मयूर पंख भेंट करती है। जिसका मतलब होता है- ‘इस सुंदर पंख की तरह अपनी नई जिंदगी का सफर प्रकृति के सुंदर स्थलों पर भ्रमण कर बिताएं।’


#ये लोग माचिस से कभी आग नहीं जलाते, बल्कि इनकी अंगीठी में सुलगते कोयले के कुछ टुकड़े हमेशा पड़े रहते हैं, ये उसी अंगीठी में नए कोयले झोंककर आग सुलगाते हैं। ऐसी लोक मान्यता है, नई आग जलाने से पुरखों की आत्माएं परेशान करने लगती हैं।  इनके परिवार में जब किसी शिशु का जन्म होता है तो उसके 21 दिन उपरांत अनोखी रस्म अदा की जाती है। उसकी पीठ पर लोहे की गर्म छड़ दागी जाती है, ताकि वह गाड़िया लोहार की संतान कहला सके ।

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#युद्ध के बाद भी अपनी वचन परम्परा को निभाते हुए इस समुदाय को उस वक़्त #युद्ध_अपराधी घोषित कर दिए थे। इसके कारण इन्हें हमेशा ऐसे स्थानों में रहने का आदेश दिया गया जो खुले हुए हों या कोतवाली के आस पास हों ,जहां से ये प्रशासन की नज़र में बने रहें और विरोध में किसी गतिविधि को अंजाम न दें सकें। 

#मध्यकाल के बाद अंग्रजों ने भी इनके प्रति यही सोच अपना ली।इस कारण इनमें रोष जन्मा ,और कुछ ने अपराध की राह पकड़ ली। दुर्भाग्यवश वश इस समुदाय को अपराधी भी मान लिया गया। और ये काल चक्र इनके जीवन की खुशियों और स्थायित्व के लिए काल बन गया। 


#बैलगाड़ी को ही घर बना कर चलते रहने वाले इस समाज की स्वतंत्रता को लेकर वचनबद्धता और समर्पण को हम सब ,ये समाज ,शासन ,प्रशासन कबका भुला चुका। लोहे की कारीगरी से अपनी आजीविका चलाने वाले इस समुदाय के हस्तकौशल को मशीनी क्षमता के कारण आज अपने जीवन निर्वाहन के लिए भी सँघर्ष करना पड़ रहा है। मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर पाने जितनी आय भी इनके लिए चुनौती बन गई है। चूंकि इनका स्थायी निवास नहीं है,इसलिए इनके पास न तो आधार कार्ड न ही वोटर आई डी है, इसके  कारण हमारे इतिहास के गौरव से जुड़े ये लोग एक तरह से हमारे देश के संवैधानिक नागरिक भी नहीं,जिसके चलते मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित। 


#विडम्बना है ,स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन ,अपना आसरा तक खो देने वाले लोग आज समाज से कट कर ,बेहद अभावों में अपना जीवन काटने को मजबूर। क्या ये परम्परा जो कभी इनका गौरव थी,आज उनका पेट पाल सकती। हमारी सरकार को चाहिए कि इनके पुनर्वास और भविष्य  के लिए  योजनाएं बनाए और लागू करें। ताकि जो गौरव इनके पुर्वजों ने इन्हें वचन के रूप में सौंपा ,वो इनके दिलों में अभिशाप बनकर न धधके। 

✍️#डॉ_मधूलिका_मिश्रा_त्रिपाठी

#ब्रह्मनाद

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