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शुक्रवार, 30 मई 2025

कल हो ना हो




 *मैं तुमसे बाद में बात करूँगी/करूँगी। 

*कल ये काम कर लेंगे।

*कल से पक्का नया रूटीन फॉलो करूंगा /करूँगी।

*कल से जल्दी उठेंगे।

*कल पक्का तय करेंगे कि आगे क्या करना...... 


और हर आज ;वही कल होता है जिस कल की हमने कल बातें की थी। अफ़सोस हम कल में टालते जाते.... कल के आसरे में बैठे रहते ,और वो कल कभी नहीं आता। हां इस कल को पाने की जद्दोजहद में हम आज को जरूर खो देते। आज की निश्चितता को कल की आस में नजरअंदाज करते रहते। 

इस कल के चक्कर में हम बस खोते ही चले जाते....... कई अपनों को ,और सपनों के लिए हकीकत को। 

कल कभी आ ही नहीं पाता। और हम अन्तहीन दौड़ते ही चले जाते।ये कल हमसे हमारे एक कदम आगे ही रहता।जब -जब हाँथ बढते तो लगता हम इसे पकड़ लेंगे।पकड़ में आता तो सपने हकीकत बन जाते..... पर  ये एक छलावा रहता ,एक मृगतृष्णा.... हम आगे देखने के चक्कर मे अपने नीचे की जमीन भी खो देते। और फिर औंधे मुंह गिरते। निगाहें फिर भी उसी कल की ओर लगी रहती, और वो हमसे उतनी ही दूरी पर खड़ा रहता ,जितना हमारे सफर की शुरुआत में था।


जब तक आंख खुलती....... कल खो चुका होता ,बीत चुके कल में। और हम एक पेंडुलम बन चुके होते कल और कल के बीच । तब वर्तमान भी पहुंच से छूट चुका होता और हमारा आधार ......... एक ट्रेडमिल की तरह हमें ऐसी दौड़ में ले जाता ,जहाँ हम दौड़ते तो रहते अनवरत ,पर कहीं पहुंच नहीं पाते। कल ....... कभी नहीं आता ,समझ तब आता ,जब आज कल में बदल जाता और हाँथ और ऑंखे दोनों खाली ..........

और फिर एक दिन कल की ओर ताकते हुए हम आज से कल में बदल कर इस दुनिया के अस्तित्व में ही आंकड़े से गायब हो जाते।


#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका 

रविवार, 18 मई 2025

अंतहीन प्रतीक्षा


 

                      ( चित्र - गूगल से साभार)



प्रतीक्षा... एक ऐसा शब्द जो सुनने में सहज लगता है, पर जो इसे जीता, उसके लिए यह जीवन की सबसे कठिन परीक्षा बन जाता है। यह वह भाव है जो समय की गति को तो नहीं रोकता पर प्रतीक्षारत व्यक्ति वहीं रुका रह जाता जिस क्षण से प्रतीक्षा शुरू हुई थी। समय की गति  और हर क्षण उसे  भारी लगने लगता है।


वास्तव में प्रतीक्षा ऐसा वृक्ष है, जो ऊपर से हरा-भरा दिखाई देता है। आशा की पत्तियाँ उसे हरा-भरा दिखाते हुए लहराती रहती हैं, सपनों और आशाओं के फूल भी उसमें  खिलते  हैं, और विश्वास की कोपलें उसे सूखने नहीं देती हैं।देखने वाले को वह सुन्दर और जीवंत दिखता है, पर किसी को क्या पता कि उसका तना ,मन भीतर से  कितना खोखला हो चुका है।


 नमी तो अब केवल आंखों में बची है, आंसुओं के रूप में। जिसे  वो बाहर निकलने देता ,वो अंदर आंसू का हिम खंड बनाते हुए एक विशाल पर्वत बन चुका होता है।किंतु उस पेड़ की जड़ें इस भार को लिए हुए  सूख चुकी  होती हैं।


हर दिन, हर क्षण प्रतीक्षा उस पेड़ को थोड़ा-थोड़ा भीतर से खा जाती है। बाहर से मुस्कुराता चेहरा भी अंदर से एक लंबी चुप्पी में डूबा होता है। जैसे किसी ने आत्मा को चुपचाप को हटा दिया हो पर वह देह को किसी उम्मीदों की डोर से बंधे होने के कारण ना छोड़ पा रही हो। 


कभी किसी अपने के आने की उम्मीद, कभी उसी अपने के  उत्तर की आस, और कभी उस एक नई सुबह की चाह जो उस अपने को देखने और मिलने के लिए बची होती , सब उस वृक्ष को थोड़ा और हरा दिखाती हैं, लेकिन खोखलेपन का सच उससे छुपा नहीं रहता।


प्रतीक्षा थका देती है, पर खत्म नहीं होती। वह जीने की वजह भी बन जाती है और मुक्त होने के लिए बंधन भी। कभी - कभी कुछ प्रतीक्षाएँ अंततः पूर्ण होती हैं, और वृक्ष फिर से जड़ें पकड़ लेता है। पर कुछ प्रतीक्षाएँ केवल जेठ की एक सूनी दोपहर की तरह आती हैं, जिसमें विरह की तपन बिना किसी नमी के मन को दग्ध करती हुई ताउम्र बनी रहती है। 

कहने को प्रतीक्षा में जीवन है, पर असल में यह जीवन का सबसे मौन और सबसे कठिन रूप है।

कभी प्रतीक्षा को समझना हो तो  उस  पेड़ को भीतर से भी देखना जो बाहर से हरा भरा हो,  वह भीतर से खोखला हो हुआ हो… पर फिर भी खड़ा है, एक अंतहीन प्रतीक्षा के पूर्ण होने की आशा लिए।


#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका 

शनिवार, 17 मई 2025

एक कोशिश जो हर दिन दोहराई जाती है

                         ( चित्र:- गूगल से साभार ) 



वह भी हर सुबह जल्दी उठती, दैनिक नित्य कर्म पूरा करती और स्कूल की ड्रेस पहन कर, टिफिन चेक कर बैग में रखती। पूजा घर में भगवान में प्रणाम कर बोलती हे भगवान मुझे बुद्धि देना ,अगर उसके टेस्ट या  एग्जाम होते तो उस दिन का सब्जेक्ट बोलकर कहती मेरा एग्जाम अच्छा कराना। कायदे से तो उसे शक्ति मांगना चाहिए ,हर दिन उपेक्षा और अपने लिए तिरस्कृत भाव का सामने करने के लिए।

उसके बाद ..... फिर हंसते हुए आँखों में उम्मीद लिए घर से निकलती बिलकुल ठीक वैसे ही जैसे बाकी बच्चे। लेकिन स्कूल की दहलीज़ पर कदम रखते ही उसकी दुनिया थोड़ी अलग हो जाती है।

कक्षा में जब टीचर कुछ पूछते हैं, तो उसकी ओर कम ही निगाहें उठती हैं। उत्तर मालूम होने पर भी जब तक वह बोलने की कोशिश करती है, कोई और उत्तर दे चुका होता है। उसकी धीमी प्रतिक्रिया को अक्सर असमर्थता मान लिया जाता है। कुछ टीचर मुस्कुराकर देख लेते हैं, पर कुछ बिना प्रतिक्रिया आगे बढ़ जाते हैं ,मानो वह वहाँ है ही नहीं।

खेल के मैदान में उसकी जगह अक्सर किनारे होती है। जब टीमें बनती हैं, तो उसका नाम सबसे अंत में लिया जाता है या बिल्कुल नहीं। जहां  बाकी नामों को अपनी अपनी टीम में लेने की होड़ होती ,तो उसका नाम ऐसा रह जाता जो कोई अपने पक्ष में नहीं चाहता । कुछ बच्चे उसकी ओर देखकर हँसते हैं, कुछ बस उपेक्षा से नज़र फेर लेते हैं।

फिर भी वह हर दिन खुद को साबित करने की कोशिश करती है। उसकी कॉपी साफ होती है, चित्रों में उसका बचपना झलकता है, और जब उसे बोलने का मौका मिलता है, तो उसकी आँखों में एक अलग ही चमक दिखती है।जो कि किसी का उसके लिए विश्वास का प्रतिबिंब होता है। 

कभी-कभी कोई एक सहेली मिल जाता है जो उसकी बातों को सुनता है, जो उसे उसके अपने तरीके से सिखाने की कोशिश करता है। ऐसे क्षण उसके लिए अनमोल होते हैं। लेकिन वे क्षण दुर्लभ होते हैं और उंगलियों में गिने जाने लायक.....बहुत कम।

अपेक्षाएँ पूरी नहीं होतीं।जब किसी सहपाठी की तारीफ उसके सामने होती, जब किसी और को पुरस्कार मिलते हैं,किसी और के लिए तालियां बजती हैं , वह खुशी से ताली बजाती है। ईर्ष्या का लेश मात्र भी अंश उसमें नहीं होता, वह सबकी सफलताओं पर खुश होना जानती है। उसे कभी किसी से शिकायत नहीं होती। न कभी किसी के लिए ग़ुस्सा, न कोई रोष, न कोई कटुता, बस एक शांत स्वीकृति और अगली कोशिश की तैयारी।

उसे पता है कि वह अलग है, पर यह नहीं जानती कि इस "अलग" होने के कारण ही लोगों की उपेक्षा और उपहास का कारण बनती है। वह खुद के अलग होने को कमजोरी नहीं मानती ,ना बनने देना चाहती। वह हार नहीं मानना चाहती। हर दिन एक नई उम्मीद के साथ फिर खड़ी होती है क्लास में उत्तर देने के लिए, खेल में भाग लेने के लिए, सहेलियों द्वारा खुद को चुने जाने के लिए और सबसे बढ़कर "खुद के होने की स्वीकृति" पाने के लिए।

उसका संघर्ष हर दिन चलता है, समझे जाने के लिए, अपनाए जाने के लिए, खुद को सिद्ध करने के लिए। और फिर भी, उसके भीतर कोई नकारात्मकता नहीं।वह सिर्फ एक मुस्कान के बदले असीम स्नेह देने का मन रखती है।एक बार हांथ बढ़ाने पर अपने मन का सबसे कोमल स्थान देती है।सिर्फ नजर मिलाने पर निश्छल मुस्कान सौंपती है क्योंकि उसका मन निर्मल है, कोमल है ,एक पारदर्शी काँच की तरह।किसी के नकारात्मक व्यवहार का बदला भी वो अपने मासूम से सकारात्मक व्यवहार से देगी। यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है, और शायद यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी। 

उसका हर दिन संघर्ष है, एक मौन और गहरी दृढ़ता के साथ। हर दिन आंख खुलने से लेकर बंद होने तक एक ऐसी कई परीक्षाएं , जो अंकसूची नहीं बल्कि लोगों के व्यवहार में परिणाम देती है।जिसमें वह कई बार अनुत्तीर्ण होने को भी स्वीकार लेती ,एक बार उत्तीर्ण होने की चाह में।


#ब्रह्मनाद

#डॉ_मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी 

 

शुक्रवार, 2 मई 2025

राइटर्स ब्लॉक


 

कभी-कभी शब्द हमसे दूर भागते हैं। हम कुछ सोचते हैं ,लगता है कि बस अभी एक खूबसूरत रचना रच डालेंगे।  हम बैठते हैं लिखने के लिए, लेकिन कागज़ खाली रह जाता है।  एक ऐसी दीवार, जो हमारे और हमारी कल्पनाओं के बीच खड़ी हो जाती है। 

दिमाग सोचना चाहता है पर उसमें होती हैं तो बस  चुप्पियाँ , जो सिर्फ चुप नहीं होतीं बल्कि एक  खालीपन उभार जाती हैं। जब लिखने की तड़प हो, लेकिन शब्द साथ छोड़ दें, तब हर साँस एक बोझ बन जाती है। पेन पकड़ते वक्त उंगलियाँ काँपती हैं, आँखें धुंधली होती हैं और कागज़ का कोरापन  भीतर तक चुभता है।

राइटर्स ब्लॉक सिर्फ न लिख पाने का नाम नहीं है — यह धीरे-धीरे टूटते जाने का अहसास है। यह देखना है कि हम जो सबसे ज़्यादा चाहते हैं, वही आपसे दूर भाग रहा है। हर अधूरा वाक्य ,हमारी हार बन जाता है, हर खाली पन्ना एक मौन चीख।

कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे शब्द जानबूझकर छुप गए हैं, जैसे खुद अपनी आवाज खो गई हो। जैसे भीतर जो कुछ भी था जज़्बात, सपने, कहानियाँ — सब बर्फ बनकर जम गए हों।

यह दर्द सिर्फ उस पल का नहीं होता। यह धीरे-धीरे दिल के कोनों में जमा होता है, हर असफल कोशिश के साथ थोड़ा और भारी हो जाता है। ऐसे में खुद से लड़ना भी थका देता है और फिर भी, छोड़ना भी मुमकिन नहीं होता।

हम दूसरों को पढ़ते हैं ,सोचते हैं कि हम इस स्तर पर क्यों नहीं सोच पा रहे ????क्या इस विषय पर हम लिख सकते थे??? क्यों एक पंक्ति लिखने के बाद लेखनी आगे बढ़ने से इंकार कर देती है। एक अदृश्य छटपटाहट जैसे हमारा बेहद कीमती कहीं खो गया है ,कभी ना मिल पाने के लिए । 

यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई एक ऐसा कमरा जिसमें ना तो कोई दरवाजा ,ना खिड़की। हम छटपटाते रह जाते हैं एक सांस ताज़ी हवा के लिए, एक नजर धूप का कतरा देखने। पर हांथ आता है तो भयावह अकेलापन और शून्यता। 

पेपर की हर लिखावट आंसुओं के कारण अस्पष्ट सी रहती , हम उन पंक्तियों के बीच पढ़ने का एक अंतिम प्रयास करते जो अब तक लिखी भी नहीं गई हैं। हम हारने लगते हैं ,खुद से ।क्योंकि हमें लग रहा था कि अब तक हमारे लिए लिखना सांस लेने जैसे जरूरी था। हम उस व्यक्ति की तरह महसूस करने लगते जिसकी अंतिम सांस छूट रही हो ,और वो एक बार फिर जीने के लिए हर तरह का प्रयास कर रहा हो।

 पर अंततः सांस की वो डोर टूट ही जाती है। और हम कोरे पन्ने को बिसूरते उसमें आंखों के खारे पानी की आड़ी टेढ़ी लाइन बनते देखते हुए एक घने अंधकार से एक गहरी खाई में बस गिरते चले जाते.... इस आस में की शायद एक दिन फिर ये कलम कूक उठेगी बसंत के आगमन पर लेखन की प्रकृति की तरूणाई को जगाने। 

#ब्रह्मनाद 

#डॉ_मधूलिका