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बुधवार, 6 मार्च 2024

#घृणा


                            (छायाचित्र साभार : गूगल)



प्रेम और घृणा मानवीय भावों में परस्पर पूरक किंतु विपरीत पहलू हैं। ये सहज भाव चेतना बोध के साथ ही जीवन मे अपना बोध कराने लगते। पर प्रेम की अपेक्षा  घृणा  ज्यादा जीवंत भाव, जीवट है,स्वयं को बचाए रखने का इसमें।   किसी भी हृदय की धरती संभवत किसी अन्य भाव के लिए उपजाऊ हो ना हो, घृणा उसमें अपना बीज बो ही लेती है । बंजर होने की स्थिति में भी इसे ना जाने मन में कौन सी खाद मिल जाती है?????  प्रेम बेल को सीचना पड़ता है, पनपाना पड़ता है ,विशेष स्थितियां देनी होती हैं, फूलने के लिए बचाना पड़ता है ;परिस्थितियों की मार से ,ग़मों की धूप से ....... पल पल सहेजते हुए ही बढ़ सकता है प्रेम।  पर घृणा  नागफनी सी ; बंजर में भी उग जाती है। उसे नहीं चाहिए ,कोई देख-रेख ,खास रखरखाव .... वह तो परजीवी सी ,आप में ही उग जाएगी ,अचानक ।और  पोषण लेगी .... आपके ही अस्तित्व को दरकिनार कर अपना आधार बना लेगी। 

अगर इसे दुर्गुण मानकर ; जीवन से निकाल फेंकने की कोशिश करेंगे तो, वास्तव में संसार इसके बिना नरक सा हो जाएगा । पाखंड और धूर्तता का नाश करने वाली यही घृणा है । गर्व ,क्रोध का आतंक ना हो; घृणा का एक विस्तृत क्षेत्र ना हो ,तो जीवन निश्रृंखल हो जाएगा। 

यह तो वह वृत्ति है ,जो प्रकृति ने आत्मरक्षा के लिए दी है । इससे निजात तभी संभव है ; जब आप ही अस्तित्व विहीन हो जाए । ये ऐसी वृत्ति जो विवेक के साथ पनपने पर ;प्रेम सदृश उच्च हो जाती हैं । जब हमें तामसी वृत्ति  से घृणा हो ,जब हमें धूर्तता से घृणा हो ,जब हमें पाखंडी से घृणा हो, तो इस घृणा के परिणाम दिव्य और अलौकिक हो जाते हैं। 

 बलात्कार से घृणा करने वाला कभी उस नीच कर्म को नहीं करेगा उल्टा उसे रोकने के लिए उसे मिटाने के लिए सदैव अग्रसर रहेगा । 

घृणा का उग्र रूप ; भय है , और परिष्कृत रूप; विवेक ।कई ऐसे प्राणी है ,जो घृणास्पद माने जाने वाले साधनों में भी स्वयं के जीवन वृत्त को निभाते हैं । जीवन रक्षा का साधन दूसरों से उत्पन्न घृणा ही  होती है । उनके अस्तित्व के लिए ,उनके साधनों के प्रति ,हमारी घृणा भी आवश्यक है । उदाहरण के लिए "शूकर", उसके जीवन यापन का तरीका भी आपको पता है ..... यहां पर कह सकते हैं कि उसके अस्तित्व के लिए थोड़ी घृणा होना स्वाभाविक और आवश्यक है ,वरना उसके अस्तित्व पर संकट पैदा हो जाएगा।

एक वैचारिक विचलन की स्थिति को निर्मित करने के लिए ;किसी क्रांतिकारी परिवर्तन की नींव रखने के लिए ;यदि प्रेम के संदर्भों की आवश्यकता है ,तो एक अन्य पूरक तत्व भी अनिवार्य है - #घृणा_की_क्षमता .....…. एक कभी न मरने वाली ,घोर मारक क्षमता।  किंतु इस घृणा के स्वरूप को घोर तटस्थ और सात्विक होना आवश्यक है । प्रेरित घृणा का निर्देशन आपके विवेक से नहीं होगा अपितु उस स्थिति में किसी अन्य की मानसिक त्रास का निर्वाहन कर रहे होंगे । एक ऐसी घृणा ; जिसका अनुभव हम अपने सचेतन मस्तिष्क से करते ,अन्यथा वह हमारी चेतना को हरकर हमें क्रूरता और निकृष्टता का दास बना देती है ।

जब घृणा सर्व भंजक, आग्नेय उत्साह की तरह काम करती ,तब उसमें हमारे अस्तित्व का विशेष पहलू हमारे व्यक्तित्व का विलोप हो जाता है ,और ज्वार की तरह वह समेट लेती है ;किनारे पर सहेजी गई हर मानवीय कोमल  भावनाओं को।
घृणा, जो अधोमुखी प्रवृत्ति मानी जाती है जो विनाश करती है; विरोधी भावों , का यदि उसका उचित बुद्धि विवेक युक्त प्रयोग किया जाए तो; यह युगांतकारी शक्ति,  दुखांतकारी हो जाएगी । जिस दिन शीतल बौद्धिक घृणा पनपेगी उस वक़्त ही वह सर्वग्राह्य और सर्वस्वीकार्य हो जाएगी । लोग उससे डरेंगे नहीं,  उसे अपनाना चाहेंगे । वह प्रमाद नहीं, प्रेरणा का स्वरूप ले लेगी । और फिर युगांतर के क्रांतिक परिवर्तन को फलीभूत करेगी । चूंकि घृणा प्रेम सी ही अनंत है ,निरंतर है , नित्य है .   तो क्यों ना इस अंतकरण के उपकरण को, हथियार की बजाय; साधन बना लें। एक दिव्य पावन अस्त्र स्वयं को साधने का । 
अहम् ब्रम्हास्मि 🙏🙏

#ब्रह्मनाद 
©® डॉ. मधूलिका मिश्रा त्रिपाठी

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