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बुधवार, 22 मार्च 2023

जीना या जी ना ?


 बहुत बैचेनी होती,जब प्रकट में शांत और मन में बहुत कुछ उमड़ रहा हो।ऐसा लगता जैसे ज्वालामुखी फटने से पहले या भूकंम्प आने से पहले जो स्थिति होती,वही स्वयं में उस वक़्त जीते है। 

बोलना और शांत हो जाना सरल होता। चुप रहना और उसे सालते जाना ,प्रतिपल आंतरिक विस्फोट को जीते रहने की स्थिति होती। ऐसे में क्या ध्यान शांति देता।कतई नहीं ,अंदर से अशांत को हम कैसे स्थिर कर सकते। मन भी कितना अजीब होता,जब खुश तो दुनिया अपनी लगती,जीवन मोहक लगता। जब नाखुश तब जैसे स्वयं भी निर्जीव लगने लगते। जैसे चाभी भरा एक खिलौना ,जिसे दिन से रात तक निश्चित गति से बस उसके लिए निर्धारित कामों को करने के लिए चाभी भरी गई।

उद्देश्य क्या,संतुष्टि क्या,उस काम से खुशी क्या...... इन सब बातों से परे बस उसे अनवरत चलते रहना है। जैसे शरीर एक जीवन को सिर्फ ढो रहा। 

जीवन ढोना और जीना ,उतना ही अंतर जैसे अंदर से प्रकाश,शांति महसूस करना और खुद को शांत दिखाने का अंतर। बनावट सदा घातक होती। स्वयं के साथ अपने से जुड़े लोगों और समाज के लिए भी। हर वक़्त खुद के होने का स्वांग अन्तत: एक दिन खुद को कहीं गहरे दबा कर बस नाटकीय व्यक्तित्व बना देता। जिसके लिए जीवन सिर्फ और सिर्फ बिना अनुभूति के सांस लेना बचता।


#डॉ_मधूलिका

#ब्रम्हनाद 

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