दिनांक 8 मार्च ,,,, वापसी की तैय्यारी शुरू हुई. सुबह बेझिल मन से पैकिंग हुई. पर अभी उत्साह चुका नही था. क्योंकि अभी एक और स्थान शेष था...."पारो "...भूटान का इकलौता एअरपोर्ट भी यही है. कुछ रोमांच शेष था...तो पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार हम सुबह 8.30 पर थिम्पू को विदा कहने को तैयार थे... वापसी में ये जगह और भी प्यारी लगने लगी. ऐसा लगा जैसे मन का एक हिस्सा यही छूटा जा रहा है...अपना कुछ महत्वपूर्ण सामान खोया सा महसूस हुआ... वापस लेकर आ रहे थे कुछ खुशनुमा यादें.... और फिर सफ़र के वही संगी फिर मिले जो आते वक़्त मिले थे...आकाश को छूते पहाड़...और कल कल बहती थिम्पू नदी..
थिम्पू के "ताशी दिलेक " कहते ही पारो और थिम्पू नदी का संगम स्थान और उस पर बने ब्रिज को पार कर हम दाहिनी ओर के रास्ते में पारो की ओर बढे .चुज़ोम के बाद ही वांगचु नदी का पुल पार किया.. जिस पर लहराते "प्रेयर फ्लैग " मन को आपने साथ उड़ा ले जाते हैं..हवा की गति से. कहते हैं की इन प्रेयर फ्लैग पर लिखी प्रार्थनाओं को ईश्वर तक पहुँचाने का काम ये हवाएं ही करती हैं... देखा हमने हवा को भी काम बता दिया...यहाँ वहां यूँ ही मत डोलो....जाओ हम इंसानों की प्रार्थना, हमारे सन्देश हमारे ईश्वर तक पहुँचाओ :) ....
ओल्ड पारो रोड के बिलकुल पहले हमें फिर से बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन की दान्तक (dantak ) कैंटीन दिखी. पर अभी पेट पूजा किये हुए ज्यादा वक़्त नही बीता था इसलिए वहां रुकना व्यर्थ लगा...और हम जल्द ही पारो एअरपोर्ट के नज़दीक थे....बिलकुल इसी वक़्त एक एयरोप्लेन में दिखाई दिया... पहाड़ों के बीच एक इंसानों की बनाई चिड़िया...
पर ये क्या....वाह .. :D सड़क से बिलकुल लगी हुई हवाई पट्टी (रन वे ) पर एक हवाईजहाज उड़ान भरने की तैय्यारी में दिखा. पतिदेव ने झट से गाड़ी किनारे लगा कैमरा निकाल इस पल को कैद करने के लिए तैयार हो गए...अब इसमें क्या खास हो सकता है...?
ये पूछिए की क्या खास नही था...? रनवे पर दौड़ लगाकर ऊपर उठने के बाद पहाड़ो से घिरी इस जगह पर ऐसा लग रहा था की जैसे कोई पक्षी अपने डैने खोले उनसे टकराने जा रहा हो और अचानक उसे किसी की याद दिशा बदलने पर मजबूर कर देती है और वो तिरछा होकर लहराते हुए अपने नीड़ का रुख कर लेता है... अब तक मैंने इससे ज्यादा रोमांचक टेकऑफ नही देखा...
इस बड़ी चिड़िया के फुर्र होने के बाद हमने पारो शहर का एक चक्कर लगाया...हालाँकि यहाँ पर विश्वविख्यात " टाइगर नेस्ट मोनेस्ट्री " है ,पर बिटिया को गोद में लिए हुए एक कठिन चढ़ाई पर ट्रेक करते हुए जाना मेरे लिए असंभव था. पतिदेव ने भी वहां घूमने का विचार त्याग दिया ,,शायद इसलिए भी की दोबारा आने का तीव्र आकर्षण बरक़रार रहे..तो हमने पारो रुकने का भी विचार त्यागा और शहर का एक चक्कर लगा वापस स्वदेश का रुख किया...इस पूरे शहर में लगभग सड़क से सामानांतर चलती हुई पारो नदी एक सन्देश देती हुई सी लगी...."सुनो मुझ जैसे बनो....निश्चल ,पारदर्शी , उत्साही और प्रवाहमान.." जो हो गया उसे भूल कर आगे बढ़ते जाओ...राह की बाधाओं को पानी की तरह तरल व्यव्हार से जीतो...
यहाँ की नदियों को सच में प्रकृति का आशीर्वाद मिला हुआ है...प्रदूषण से दूर एकदम शुद्ध... पारदर्शिता इतनी की उनमे पड़े हुए कंकड़ भी आप देख कर ही गिन सकते हो....ऐसा लग रहा था जैसे शीशा का द्रवीय रूप है ये... कुछ देर हम मंत्रमुग्ध से पारो नदी के शुद्ध और निश्चल प्रवृत्ति/प्रवाह को ही निहारते रहे... फिर बिटिया का ख्याल...उसकी भूख की फ़िक्र...तो वापस चलना ही पड़ा .
इस बार हमारी कार के साथ कई विदेशी सैलानियों की गाड़ी भी कारवां में शामिल हो गई जो थोड़ी देर पहले एअरपोर्ट पर उतरे थे... कुछ वही रुके होंगे बाक़ी की गाड़ियाँ थिम्पू की ओर रवाना हुई ,,जो हमारी गाड़ी की सहयात्री और कुछ प्रतिद्वंदी बनी..वापसी में थिम्पू -पारो नदी के संगम पुल पर कुछ बाइकर दिखे..अतिउत्साही ...हवा से बातें करते हुए.. स्वतंत्र..निर्भीक...जीवन को रफ़्तार के साथ जीने का जज्बा लिए हुए.. वाह हमें भी रफ़्तार से भर गई उनकी बाइक की गति... साएँ....साएँ...ज़ूम....ज़ूम ..
चलिए हम अब बढ़ चुके वापस अपने देश की ओर...वही दृश्यावली वही मोहक नज़ारे...पर पहले मिलने आए थे..अब धीरे धीरे पीछे छूटने लगे...बिछड़ने लगे..वो बर्फ की चूनर सरकाती पर्वत -माला दुल्हन अब भी हमें निहार रही थी ,,एक आस के साथ...की वापस मिलने आओगी ना..? मुझे भूलना नही.... :'(
लगभग 1.30 पर दान्तक कैंटीन पहुँच कर हमने डोसा और बिटिया को मैगी खिलाई...वहां पर एक स्थानीय परिवार ( फ़ुएन्त्शोलिन्ग निवासी) थोड़ी ही देर में हमसे या .. उन्होंने बताया की बच्चे की गर्मी नही सहन कर पा रहे हैं इसलिए वो थिम्पू जा रहे हैं..वो काफी सह्रदयी लोग थे..लौटते हुए उन्होंने हमें संथला ( संतरा :) ) की विदाई दी.. जो की बिटिया को खाने के लिए दिया गया था... बेटी -बहू ,दो छोटे प्यारे से बच्चे और वो अंकल- आंटी हमरी यादों माँ हिस्सा बनने जा रहे थे.. और हाँ एक शब्द भी..केटा /केटी ( लड़का/लड़की ) जो उन्होंने हमें सिखाया :)
तो अब हम केटी को लेकर सिलीगुड़ी की ओर रवाना हुए.रास्ते पहचाने हुए थे शायद इसीलिए सफ़र अपेक्षाकृत छोटा महसूस हुआ .शाम 7 बजे हम सिलीगुड़ी पहुंच चुके. फिर उन्हीं कर्मों की पुनरावृत्ति ........जो अब तक आप जान चुके हैं .:)
9 मार्च को हम सिलीगुड़ी से 11.45 पर चलकर शाम 7 बजे मुजफ्फरपुर पहुंचे. होटल और रास्ते देखे सुने थे ,इसलिए कोई भी असुविधा ना हुई..
इलाहाबाद रीवा रोड की दुर्दशा से सहमे हुए हमने अपना यात्रा मार्ग परिवर्तित करने का मन बना लिया था , तो लिहाज़ा हमने दुसरे दिन सुबह 9 बजे मुजफ्फरपुर से लखनऊ/कानपूर की ओर रुख किया... यह यात्रा में लगने वाले समय पर निर्भर था की हमारा आज का गंतव्य क्या होता...लखनऊ या कानपूर..?
दोपहर 3 बजे हम फ़ैजाबाद (अयोध्या ) में भोजन कर 5.30 पर लखनऊ पहुँच चुके थे ,हमारे पास अभी भी कुछ वक़्त शेष था और सूरज की रोशनी की उपलब्धता थी..इसलिए हमने गाड़ी सीधे कानपूर की ओर रखी..लखनऊ के एअरपोर्ट रोड के बाइपास से गुजरते वक़्त वहां के नज़ारे भारत के महानगरों सा भ्रम दे रहे थे ,कहीं ना कहीं ये भी नए महानगरों की होड़ में दिखा..7.30 पर हम कानपूर में थे. शहर की बजाय हमने रिंग रोड के पास ही सुविधाजनक होटल लिया.
दिनांक 11 मार्च ....10.30 हम निकले आज घर वापस पहुँचने के सफ़र में...वाया झाँसी( दोपहर 2 बजे) शाम 8.30 बजे हम अपने शहर (जबलपुर) अपने घर पर थे.इसके लिए सडको की अच्छी स्थिति के शुक्रगुजार हैं हम .. :p
पूरे सफ़र की थकान और कुछ असुविधाओं के बाद भी मन हो रहा था की काश ये सफ़र कभी ख़त्म ना होता ....
मन अब भी बैचेन है ...उस प्राकृतिक सानिध्य में वापस जाने के लिए जो अब भी अनछुआ है...जहाँ अब भी मूल संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है...दुर्गम स्थान भी मानसिक शांति को जनक हैं... और हाँ मेरे लिए तो मेरा पहला अनुभव था ना उस बर्फ की चूनर वाली दुल्हन से मिलने का...जो लौटते हुए मेरी अभिन्न सखी बन गई थी ...जिसकी छवि मेरी आँखों में बसी हुई है... मन अब भी उसी शांति में खोया है,,जहाँ गाड़ियों का एक हॉर्न भी ना सुना था....सुने तो सिर्फ प्राकृतिक स्वर ......
मुझे वो वापस बुला रहे हैं..मैं जाऊंगी भी ...ये देखने की क्या आधुनिकता का दंश उस घूंघट वाली दुल्हन की सुरम्यता नष्ट कर सकता है..कहीं वो अनछुआ प्राकृतिक सौन्दर्य विकास की बलि तो ना चढ़ जाएगा...
भगवां करे ऐसा ना हो..क्योंकि जो शांति मैंने महसूस की वो चाहती हूँ की मेरी पीढियां भी महसूस करे..अन्वेषा भी होश सम्हालने औए सक्षम होने पर वहां जाए,,,औए वापस आकर जब वो अपना अनुभव लिखे तो मुझे ऐसा लगे की मेरा अनुभव ही बस थोड़े से रूपांतरण के बाद आया है...क्योंकि यादें वैसी ही रहती हैं..जैसा हम अनुभव कर आए हैं...यादें....रूपांतरित नही होती.यथावत रहती हैं.....चिरकाल तक ... :)
बस अब यादें शेष.... :)
थिम्पू के "ताशी दिलेक " कहते ही पारो और थिम्पू नदी का संगम स्थान और उस पर बने ब्रिज को पार कर हम दाहिनी ओर के रास्ते में पारो की ओर बढे .चुज़ोम के बाद ही वांगचु नदी का पुल पार किया.. जिस पर लहराते "प्रेयर फ्लैग " मन को आपने साथ उड़ा ले जाते हैं..हवा की गति से. कहते हैं की इन प्रेयर फ्लैग पर लिखी प्रार्थनाओं को ईश्वर तक पहुँचाने का काम ये हवाएं ही करती हैं... देखा हमने हवा को भी काम बता दिया...यहाँ वहां यूँ ही मत डोलो....जाओ हम इंसानों की प्रार्थना, हमारे सन्देश हमारे ईश्वर तक पहुँचाओ :) ....
ओल्ड पारो रोड के बिलकुल पहले हमें फिर से बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन की दान्तक (dantak ) कैंटीन दिखी. पर अभी पेट पूजा किये हुए ज्यादा वक़्त नही बीता था इसलिए वहां रुकना व्यर्थ लगा...और हम जल्द ही पारो एअरपोर्ट के नज़दीक थे....बिलकुल इसी वक़्त एक एयरोप्लेन में दिखाई दिया... पहाड़ों के बीच एक इंसानों की बनाई चिड़िया...
पर ये क्या....वाह .. :D सड़क से बिलकुल लगी हुई हवाई पट्टी (रन वे ) पर एक हवाईजहाज उड़ान भरने की तैय्यारी में दिखा. पतिदेव ने झट से गाड़ी किनारे लगा कैमरा निकाल इस पल को कैद करने के लिए तैयार हो गए...अब इसमें क्या खास हो सकता है...?
ये पूछिए की क्या खास नही था...? रनवे पर दौड़ लगाकर ऊपर उठने के बाद पहाड़ो से घिरी इस जगह पर ऐसा लग रहा था की जैसे कोई पक्षी अपने डैने खोले उनसे टकराने जा रहा हो और अचानक उसे किसी की याद दिशा बदलने पर मजबूर कर देती है और वो तिरछा होकर लहराते हुए अपने नीड़ का रुख कर लेता है... अब तक मैंने इससे ज्यादा रोमांचक टेकऑफ नही देखा...
इस बड़ी चिड़िया के फुर्र होने के बाद हमने पारो शहर का एक चक्कर लगाया...हालाँकि यहाँ पर विश्वविख्यात " टाइगर नेस्ट मोनेस्ट्री " है ,पर बिटिया को गोद में लिए हुए एक कठिन चढ़ाई पर ट्रेक करते हुए जाना मेरे लिए असंभव था. पतिदेव ने भी वहां घूमने का विचार त्याग दिया ,,शायद इसलिए भी की दोबारा आने का तीव्र आकर्षण बरक़रार रहे..तो हमने पारो रुकने का भी विचार त्यागा और शहर का एक चक्कर लगा वापस स्वदेश का रुख किया...इस पूरे शहर में लगभग सड़क से सामानांतर चलती हुई पारो नदी एक सन्देश देती हुई सी लगी...."सुनो मुझ जैसे बनो....निश्चल ,पारदर्शी , उत्साही और प्रवाहमान.." जो हो गया उसे भूल कर आगे बढ़ते जाओ...राह की बाधाओं को पानी की तरह तरल व्यव्हार से जीतो...
यहाँ की नदियों को सच में प्रकृति का आशीर्वाद मिला हुआ है...प्रदूषण से दूर एकदम शुद्ध... पारदर्शिता इतनी की उनमे पड़े हुए कंकड़ भी आप देख कर ही गिन सकते हो....ऐसा लग रहा था जैसे शीशा का द्रवीय रूप है ये... कुछ देर हम मंत्रमुग्ध से पारो नदी के शुद्ध और निश्चल प्रवृत्ति/प्रवाह को ही निहारते रहे... फिर बिटिया का ख्याल...उसकी भूख की फ़िक्र...तो वापस चलना ही पड़ा .
इस बार हमारी कार के साथ कई विदेशी सैलानियों की गाड़ी भी कारवां में शामिल हो गई जो थोड़ी देर पहले एअरपोर्ट पर उतरे थे... कुछ वही रुके होंगे बाक़ी की गाड़ियाँ थिम्पू की ओर रवाना हुई ,,जो हमारी गाड़ी की सहयात्री और कुछ प्रतिद्वंदी बनी..वापसी में थिम्पू -पारो नदी के संगम पुल पर कुछ बाइकर दिखे..अतिउत्साही ...हवा से बातें करते हुए.. स्वतंत्र..निर्भीक...जीवन को रफ़्तार के साथ जीने का जज्बा लिए हुए.. वाह हमें भी रफ़्तार से भर गई उनकी बाइक की गति... साएँ....साएँ...ज़ूम....ज़ूम ..
चलिए हम अब बढ़ चुके वापस अपने देश की ओर...वही दृश्यावली वही मोहक नज़ारे...पर पहले मिलने आए थे..अब धीरे धीरे पीछे छूटने लगे...बिछड़ने लगे..वो बर्फ की चूनर सरकाती पर्वत -माला दुल्हन अब भी हमें निहार रही थी ,,एक आस के साथ...की वापस मिलने आओगी ना..? मुझे भूलना नही.... :'(
लगभग 1.30 पर दान्तक कैंटीन पहुँच कर हमने डोसा और बिटिया को मैगी खिलाई...वहां पर एक स्थानीय परिवार ( फ़ुएन्त्शोलिन्ग निवासी) थोड़ी ही देर में हमसे या .. उन्होंने बताया की बच्चे की गर्मी नही सहन कर पा रहे हैं इसलिए वो थिम्पू जा रहे हैं..वो काफी सह्रदयी लोग थे..लौटते हुए उन्होंने हमें संथला ( संतरा :) ) की विदाई दी.. जो की बिटिया को खाने के लिए दिया गया था... बेटी -बहू ,दो छोटे प्यारे से बच्चे और वो अंकल- आंटी हमरी यादों माँ हिस्सा बनने जा रहे थे.. और हाँ एक शब्द भी..केटा /केटी ( लड़का/लड़की ) जो उन्होंने हमें सिखाया :)
तो अब हम केटी को लेकर सिलीगुड़ी की ओर रवाना हुए.रास्ते पहचाने हुए थे शायद इसीलिए सफ़र अपेक्षाकृत छोटा महसूस हुआ .शाम 7 बजे हम सिलीगुड़ी पहुंच चुके. फिर उन्हीं कर्मों की पुनरावृत्ति ........जो अब तक आप जान चुके हैं .:)
9 मार्च को हम सिलीगुड़ी से 11.45 पर चलकर शाम 7 बजे मुजफ्फरपुर पहुंचे. होटल और रास्ते देखे सुने थे ,इसलिए कोई भी असुविधा ना हुई..
इलाहाबाद रीवा रोड की दुर्दशा से सहमे हुए हमने अपना यात्रा मार्ग परिवर्तित करने का मन बना लिया था , तो लिहाज़ा हमने दुसरे दिन सुबह 9 बजे मुजफ्फरपुर से लखनऊ/कानपूर की ओर रुख किया... यह यात्रा में लगने वाले समय पर निर्भर था की हमारा आज का गंतव्य क्या होता...लखनऊ या कानपूर..?
दोपहर 3 बजे हम फ़ैजाबाद (अयोध्या ) में भोजन कर 5.30 पर लखनऊ पहुँच चुके थे ,हमारे पास अभी भी कुछ वक़्त शेष था और सूरज की रोशनी की उपलब्धता थी..इसलिए हमने गाड़ी सीधे कानपूर की ओर रखी..लखनऊ के एअरपोर्ट रोड के बाइपास से गुजरते वक़्त वहां के नज़ारे भारत के महानगरों सा भ्रम दे रहे थे ,कहीं ना कहीं ये भी नए महानगरों की होड़ में दिखा..7.30 पर हम कानपूर में थे. शहर की बजाय हमने रिंग रोड के पास ही सुविधाजनक होटल लिया.
दिनांक 11 मार्च ....10.30 हम निकले आज घर वापस पहुँचने के सफ़र में...वाया झाँसी( दोपहर 2 बजे) शाम 8.30 बजे हम अपने शहर (जबलपुर) अपने घर पर थे.इसके लिए सडको की अच्छी स्थिति के शुक्रगुजार हैं हम .. :p
पूरे सफ़र की थकान और कुछ असुविधाओं के बाद भी मन हो रहा था की काश ये सफ़र कभी ख़त्म ना होता ....
मन अब भी बैचेन है ...उस प्राकृतिक सानिध्य में वापस जाने के लिए जो अब भी अनछुआ है...जहाँ अब भी मूल संस्कृति ही सर्वश्रेष्ठ है...दुर्गम स्थान भी मानसिक शांति को जनक हैं... और हाँ मेरे लिए तो मेरा पहला अनुभव था ना उस बर्फ की चूनर वाली दुल्हन से मिलने का...जो लौटते हुए मेरी अभिन्न सखी बन गई थी ...जिसकी छवि मेरी आँखों में बसी हुई है... मन अब भी उसी शांति में खोया है,,जहाँ गाड़ियों का एक हॉर्न भी ना सुना था....सुने तो सिर्फ प्राकृतिक स्वर ......
मुझे वो वापस बुला रहे हैं..मैं जाऊंगी भी ...ये देखने की क्या आधुनिकता का दंश उस घूंघट वाली दुल्हन की सुरम्यता नष्ट कर सकता है..कहीं वो अनछुआ प्राकृतिक सौन्दर्य विकास की बलि तो ना चढ़ जाएगा...
भगवां करे ऐसा ना हो..क्योंकि जो शांति मैंने महसूस की वो चाहती हूँ की मेरी पीढियां भी महसूस करे..अन्वेषा भी होश सम्हालने औए सक्षम होने पर वहां जाए,,,औए वापस आकर जब वो अपना अनुभव लिखे तो मुझे ऐसा लगे की मेरा अनुभव ही बस थोड़े से रूपांतरण के बाद आया है...क्योंकि यादें वैसी ही रहती हैं..जैसा हम अनुभव कर आए हैं...यादें....रूपांतरित नही होती.यथावत रहती हैं.....चिरकाल तक ... :)
बस अब यादें शेष.... :)
थिम्पू में एक शाम....अन्वेषा |
थिम्पू से वापसी में ..एक दृश्य |
सिलीगुड़ी पहुँचने से पहले रास्ते में.....सूरज हुआ मद्धम <3 |
वापसी में ..एक दृश्य |
ललितपुर के पास ,बेतवा नदी |
ललितपुर के पास ,बेतवा नदी |
पारो एअरपोर्ट ....एक झलक |
पारो एअरपोर्ट पर उड़ान भरता विमान |
पारो एअरपोर्ट से उड़ान भरता विमान |
पहाड़ों के बीच उड़ान |
|
|
लो पहुंचा आकाश में :) |
पारो नदी |
पारो एअरपोर्ट |
अन्वेषा को विमान दिखाते हम |
वो देखो आकाश में...... |
मंत्रमुग्ध से हम |
दन्तक /दान्तक कैन्टीन ,पारो |
पारो के बाज़ार में .....बस यूँ ही. |
थिम्पू और पारो नदी का संगम स्थल. |
पारो की ओर. |
हमारा स्वागत :) |
कुछ दूरी और जानकारी... |
कार के अन्दर से भी ...क्लिक :) |
फिर मिली रफ़्तार ,,,,,,,,ज़ूम ... :) |
ये नज़ारे रोकते हैं राहें |
8००० फीट से भी ज्यादा ऊँचाई पर... |
ताशी देलेक ......बाय बाय थिम्पू :( |
थिम्पू -पारो रोड का एक दृश्य |
ये खंडहर कभी ताज महल था क्या ? :) |
वांगचु नदी का पुल |
दान्तक कैन्टीन के पास एक दृश्य |
प्रार्थना स्थल. |
कानपूर से घर की ओर सफ़र की शुरुआत...अन्वेषा और सुयश |
3927 km. यादों की दूरी |
6 टिप्पणियां:
Mazaa aa gya mam 😊
dhanywad :)
प्रकृति और अपनों के साथ यादगार लम्हे, और क्या चाहिए दिल को सुकून के लिए ?
प्रकृति और अपनों के साथ यादगार लम्हे, और क्या चाहिए दिल को सुकून के लिए ?
स्वर्ग यही तो होता है :)....हार्दिक धन्यवाद निरंजन जी
बेहतरीन शब्दों में यात्रा वृतांत आनंद आ गया...
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