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शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

फिर से

शंख फिर से फूंक दो ,दो प्रेरणा इस देश में,
ज्ञान का प्रकाश दो ,दो सभ्यता इस देश में..
संसार में हम ढूंढते हैं आज ऐसा आदमी ,
इंसान खुद को कह सके; मिलता नही वो आदमी..
मर्यादा का पाठ भूले,राम के इस देश में...

असुर तांडव कर रहे हैं ,मानवों के वेश में ...
तो शंख फिर से फूंक दो ,दो प्रेरणा इस देश में,
ज्ञान का प्रकाश दो ,दो सभ्यता इस देश में..

 डॉ मधूलिका

वापसी

लो लौट ही आए,फिर
ख्यालों की दुनिया में हम।
हकीकतों के,
मुखौटे भी,
यहाँ चेहरों से ,
ज्यादा स्याह हैं ।।
(डॉ.मधूलिका)

संवेदना

"संवेदना तुम कहाँ हो?
स्थितियां कहती है,
तुम नहीं रही.
क्या यही एक सत्य है....
तुम विदीर्ण हुई??
तुम विलुप्त हुई????
देखा था,
मानवता में तुम्हारा वास था,
मर्यादा तुम्हारा लिबास था.
हर सांस में वेदना का साथ था ..
जुबां पर "दया-करुणा" का वास था ।
हमें यकीन है ;तुम अशेष हो,
बिन चुके ,बिना रीते,
जीवंत हो, लौट आओ।।
वेदना को,
तुम्हारी तलाश है,
मर्यादा को ,
तुम्हारे लौट आने की आस है ,
दया-करुणा,
तुम बिन उदास हैं...
मानवता को ,
तुमसे ही जीवन की आस है.......
संवेदना "तुम कहाँ हो"?
(डॉ. मधूलिका)

विप्लव गान

कवि तुम विप्लव गान लिखो,
उत्सव नही आह्वान लिखो।
अधरों पर तुम रस ना लिखना,
वीरों के यश गान लिखो।
बसंत पर्व पर प्रणय ना लिखना,
साहस, शौर्य ,बलिदान लिखो।
प्रणयी की मनुहार ना लिखना,
मातृभू पे उत्सर्गों के प्रमाण लिखो।
कवि तुम विप्लव गान लिखो,
उत्सव नही ,आह्वान लिखो।।

(नमन माँ भारती और उनके उन पुत्रों को जो अपने प्राणों का उत्सर्ग कर ,हमें उत्सव मनाने के अवसर जुटाते हैं।जय हिंद की सेना)
(डॉ.मधूलिका)

अंदाज़

अधूरी ख्वाहिशों के सफ़र...
और धुंधले से कई ख्वाब।
जिंदगी मैंने देखे,
बस तेरे यही अंदाज़ ।।
शुभरात्रि
(डॉ. मधूलिका)

मुट्ठी भर आसमान

जीने दो मुझे,
कुछ मुट्ठी भर अरमान ,
पैरों के नीचे थोड़ी जमीन,
और सर पर ,
एक टुकड़ा आसमान ,
ना समझो मुझे तुम , ,
देवियों के समान ,
बस जीने दो मुझे,
अब बन कर इंसान ।।

(डॉ.मधूलिका)

तमाशा

रुसवा दिल ,तनहा ख्वाब,
नम सी आँखे ,
और शिकवे हज़ार...
पत्थरों के जंगल में ,
जज्बातों का बाज़ार... 
मुहब्बतों का ये तमाशा.
हमसे ना हो सकेगा ...
मुहब्बतों का ये तमाशा.
हमसे ना हो सकेगा ...

(डॉ. मधूलिका )

आक्रोश

धुंधली दृष्टि,आंसुओं से।
उबलता खून ,धमनियों में।
अभी तरलता, कभी विरलता,
अभी डूबता,कभी उबरता।
अभी कठोर,कभी आक्रांत,
अभी कोलाहल,कभी एकांत।
अन्तस् ,अनंत सा।
विचार,शून्य सा।।
उंगलियों के पोरों से ,
छिटकते कई भाव।
प्रवाह है निरंतर,
हाँ पर रुके हैं ,
भावों के प्रमाद।।
(डॉ. मधूलिका)