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रविवार, 26 नवंबर 2017



मैं रोज;मैं होने का,
स्वांग रचती हूँ। 

मैं जब मैं होती, खुद को जीती।
स्वांग में ढोती हूँ, कई अनचाहे सम्बन्ध।।


मैं जब मैं होती,होती एक उन्मुक्त सोच।
स्वांग रचते ही ,ढोने लगती कई कोढ़ सी कुरीतियां।।

मैं ,मैं होने पर जीती,एक स्वछन्द मन।
स्वांग में घुसते ही ,होती अनुगामित तन।।

मैं ,जब मैं होती,मुझमे छाता एक अनंत आसमान।
स्वांग जीते ही मुझे समेट लेती,कई अवांछनीय मर्यादाएं।।

मैं ,मुझ में होने पर खुशी से जीती ,कई कड़वे सच ।
स्वांग में ढककर , परोसने होते कई मीठे से झूठ।।

हाँ मैं ;मैं के स्वांग में ,
मैं होकर भी संतुष्ट नही होती।
क्योंकि मुझे ;नही भाते ,
उपमाओं के अलंकार।।

मैं होना चाहती,
निराभरण ,पारदर्शी ,
एक आत्मा सी।

मैं ,मैं में तब होउंगी संतृप्त,
जब तुम बाध्य ना करोगे,
मेरे स्वांग को सराहा कर,
मुझे सिर्फ मैं में ही स्वीकार कर।।

अन्यथा मेरा "मैं " तत्पर ,
उद्द्यत रहेगा ।
खुद में सर्वांग होने को,
मैं के आत्म बोध में ,
"मैं" का मुक्तिबोध जीने को।।

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