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रविवार, 26 नवंबर 2017

स्त्री गंध / या प्रेम की ग्रंथि

मैं जब जब प्रेम बोलती,
तुम तन क्यों चुनते हो??
मेरे भावों की भाषा में,
भोगों के संवाद क्यों बुनते हो???
मन के असीम धरातल को,
तुम बांधते रहे सदा ,
कुछ दैहिक ज्यामितीय रचनाओं में।
मैं जब बनना चाही,
तुम्हारी रात का अंत ,
होकर सुबह की अतिशा,
तुमने मुझे चाँद में बांध दिया।
जब भी रुकना चाही ,
तुम्हारी अलसाईं सुबह में ,
ओस की ताजगी बनकर ,
तुमने मुझे अख़बार बना दिया।
शाम ,जब मैं तुममे ढलना चाहती थी,
तुम्हारे टूटनों को ,
खुमारी में गढ़ना चाहती थी।
तुमने फिर ढूंढना ,
शुरू कर दिया,
मेरी स्त्री गंध का स्रोत ।
क्या तुम नहीं जान पाते,
मेरे प्रेम का आधार मन है।
तन जल्द ही रीत जाता है,
इन सांसारिक खेलों के ,
दैनिक क्रमों से।
क्यों ना ये होता की ,
तुम ढूंढ लेते मुझमे ,
प्रेम की ग्रंथि।
मन जब तुम बांध लेते,
तन भी उस संग,
बन जाता बंधुआ तुम्हारा।
मन मेरा आकाश है,
जो तुममे छाना चाहता है।
तन जब रीत जाए,
तब तुम्हें अपनाना ,
चाहता है,
मेरा तन ,प्रत्याशा में ,
मेरे मन को,
चुने जाने की स्थिति में।
बोलो अब तुम ,
क्या चुनना चाहोगे???
तुम ही चुनो अब,
स्त्री गंध /
या प्रेम की ग्रंथि ।।

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