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सोमवार, 30 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -5)

6 मार्च सुबह 11 बजे हम फ़ुएन्त्शोलिन्ग से रवाना  हो चुके थे.थिम्पू की ठण्ड के बारे में होटल स्टाफ हमें पहले ही आगाह कर  चुका था ,तो हमने गर्म-ऊनी कपड़ों का बैग सुविधाजनक तरीके से गाड़ी में व्यवस्थित कर लिया था ताकि जरूरत पड़ने पर तुरंत निकाल सकें. यहाँ से निकलते ही अगले 5 किलोमीटर पर चेक पोस्ट पर परमिट चेक किया गया.अब हम  छोटे छोटे पहाड़ों के सर्पिलाकार रास्तों से आगे बढ़ रहे थे. "बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन " निश्चित ही इसके लिए बधाई का पात्र है की उसने इन दुर्गम पहाड़ों पर आवागमन को बेहद सुगम /सहज बना दिया है.धीरे -धीरे पहाड़ों की ऊँचाई बढ़ रही थी.और वनस्पति का घनत्व बढ़ता ही चला जा रहा था .पेड़ तो आसमान छूने की जिद में दिख रहे थे.सड़क के एक ओर सर उठाए पहाड़ और दूसरी ओर पाताल सा आभास देती हुई खाई . ये देखकर मैं  सोच में थी की  पहाड़ों के रहवासी वाकई बहुत  मेहनती और साहसी होते हैं....जो इन दुर्गम और बेहद ठन्डे  स्थानों में जीवनयापन करते हैं.
      फ़ुएन्त्शोलिन्ग के बाद पसाखा होते हुए हम गेडू की ओर बढ़ रहे थे.मैं मंत्रमुग्ध सी इन पहाड़ों में ही खोई हुई थी पहाड़ों को काफी हद तक बादलों ने ढका हुआ था, ऐसा लग रहा था .. सूरज  की आमद को अनदेखा कर  कुहासे की रजाई ओढ़;  रात भर की जगी उनीदी सी नायिका की तरह बादलों में अटखेलियाँ करते हुए क्षण भर को सजग   और अचानक फिर आलस में डूब जा रहे हैं. ठण्ड ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था . हमने कार  रोक कर गर्म कपडे पहने और आगे चले ..पर अचानक ये क्या हुआ..... हमारा रास्ता किसने रोक दिया.. ओह ये  पहाड़ों पर उतरे बादल ही हैं... खास प्राकृतिक भू भाग पर बादलों को निकलने का उचित स्थान नही मिला था ..परिणामत : " zero visibility"  ... हमें अपनी गाड़ी के शीशे के आगे कुछ भी नज़र नही आ रहा था . बादलों ने हमारी नज़रों और रास्ते की बीच एक पर्दा बना दिया था . आगे हमें रास्ते में घुमावदार मोड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी ,इस स्थिति में सिर्फ अनुमान से आगे बढ़ना किसी खतरे को दावत देने जैसा था..बिटिया आराम से गोद में नींद ले रही थी...इसलिए मैं चाह कर भी इस धुंध में खुद  को खोकर ढूँढने से वंचित रह गई. खैर सुयश ने किसी लोकल गाड़ी को फॉलो करते हुए आगे बढ़ना उचित समझा ,क्योंकि उन्हें रास्ते की स्थिति की ताज़ा जानकारी होती है.हमने इंतज़ार किया और फिर एक ट्रक के सहारे उस महीन किन्तु द्रष्टि के लिए अभेद्य बादल वाले रास्ते को पार किया . डर के साथ पहली बार उत्साह का रोमांच भी महसूस हुआ . ऐसा लगा शायद स्वर्ग यहीं है.. और हम उस तक पहुँचने के लिए कठिनतम मार्ग से आगे बढ़ रहे हैं .... ठण्ड और रोमांच ने शरीर और दिमाग में एक सिहरन सी पैदा कर दी  थी.
       इस सफ़र पर  अब  गेडू होते हुए हम "दन्तक" कैंटीन पहुंचे जो की   खाने के लिए हमारा पड़ाव था ,इसे   
 "बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन " ही संचालित करता है . वहां पर कुछ भारतीय कर्मचारियों ने बेहद गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया .शायद हमारे चेहरे और बोली उन्हें अपने देश की मिटटी से जोड़ रहे थे. परदेश में अपने देश का कोई भी इन्सान कितना अपना लगता है उनके व्यवहार से साफ़ झलक रहा था. उन्होंने हमारे मूल स्थान के बारे में पुछा और स्नेह वश बिटिया को चोकलेट दी . जो की बाद में हमने उदरस्थ की :) , यहाँ हमने मेदुवडा और डोसा खाया . और बिटिया...दूध -टोस्ट  :D.
          यहाँ से आगे बढ़ते हुए चुक्का घाटी के पुल के पास से ही चुक्का पॉवर हाउस की झलक भी देखने को मिली , साथ ही डैम व्यू पॉइंट से आप खूबसूरत नज़ारा ले सकते हैं.यहाँ हर पहाड़ दुसरे पहाड़ से ऊँचाई और वनस्पति घनत्व में होड़ लगाते हुए से प्रतीत होते हैं .एक की चोटी  से तलहट तक पहुंचना..फिर तलहट से दुसरे की चोटी तक..अनवरत क्रम .. आगे फिर एक ऊंचा पहाड़ हमारे रास्ते में था जिससे होते हुए चापचा पहुंचे . यहाँ भी चेक पोस्ट पर परमिट दिखाया . पहाड़ की तली पर बने इस चेक-पोस्ट पर एक अद्भुत सी शांति और सुकून था ,जैसा एक माँ की गोद में छुपे हुए बच्चे को महसूस होता है..कुछ वैसा ही. हरियाली और छोटे छोटे झरने ..प्रकृति ने मुक्त हस्त से इस क्षेत्र को संवारा है . इसके लिए तो मुझे सिर्फ एक ही शब्द सटीक लगा " RAW AND UNTOUCHED BEAUTY " .
चापचा चेक पोस्ट से आगे पहाड़ की ऊँचाई पर बढ़ते  ही  स्वर्णिम आभा से युक्त हिम आच्छादित  पहाड़ की हलकी सी झलक मिली . घुमावदार रास्ते पर वो दृश्य छुपा-छिपी के खेल की तरह आ और जा रहे थे. मैंने जिंदगी में पहली बार अपनी आँखों से बर्फ से ढके पहाड़ों को देखा; जादुई और सम्मोहक एहसास . बीच बीच में छुपना और फिर नज़र आना ऐसा एहसास दे रहे थे, जैसे कोई नई -नवेली कमसिन सी दुल्हन कौतूहल से घूंघट उठा कर देखती हो...और फिर संकोच-लज्जा से वापस घूंघट खीच लेती हो. और मैं उसी नई नवेली दुलहन की झलक पाने के लिए बाल -सुलभ उत्साह से लबरेज ... यह बर्फ से आच्छादित पहाड़ों से मेरा पहला साक्षात्कार था . मेरे लिए यह अविस्मरनीय था ..ताउम्र इस एहसास को याद करना मुझे पहाड़ों की ताजगी और हिम  की शीतलता से सराबोर कर देगा .
इन मनोहारी दृश्यों को कैमरे और स्मृतियों में संजोते हुए देवदार /पाइनस के वृक्षों की छाँव में हम आगे बढ़ रहे थे. हिमाच्छादित पहाड़ अब हमारे हमसफ़र बन चुके थे .किन्तु रास्ता अब  अपेक्षाकृत संकरा हो चला था और सड़क से जुडी खाई भी गहरी होती चली जा रही थीं , किन्तु इस दुर्गम रास्ते में  भी वहां के वहां चालकों का धैर्य और आपसी सामंजस्य तारीफ के काबिल था....ना ही हॉर्न का शोर ,ना ही आगे निकलने की होड़. चढ़ाई पर जा रही गाड़ियों के लिए रुक कर रास्ता देना ..वाकई  सभ्यता  और  असीम धैर्य का परिचय दिया वहां के वहां चालकों ने .
    चापचा के बाद दामछु होते हुए हम चुज़ोम  चेक पोस्ट 
पहुंचे   . इसके बाद रास्ता अपेक्षाकृत चौड़ा हो गया था ..साथ ही रास्ते के साथ चलती हुई नदी की चपलता हममे भी उत्साह भर रही थी . पानी बिलकुल साफ़ दिख रहा था .जिसके कारण नदी की तलहटी के पत्थरों का रंग स्पष्ट देख जा सकता था .नदी के छिछले किनारों पर फैले पठार बेहद आकर्षक लग रहे थे . जो उस पानी पर अटखेलियाँ करने के लिए ललचा रहे थे.  चुजोम पर ही पारो और थिम्पू नदी का संगम होता है और यही से बाईं  ओर एक अलग रास्ता पारो शहर  की ओर जाता है ..दाहिने ओर के रास्ते पर हम थिम्पू की ओर  चले . ठण्ड का असर और पहाड़ों की सघनता अब कुछ कम हो रही थी . और शाम 4 बजे थिम्पू सिटी के वेलकम गेट ने हमारा स्वागत किया . आज का हमारा गंतव्य ...... हम आगे बढ़े और पहले से जानकारी प्राप्त होटल के साथ अन्य होटल और शहर का जायजा लेने के लिए कुछ देर गाड़ी में ही चक्कर लगते रहे.. यहाँ पार्किंग स्थल  की थोड़ी तंगी है .रास्ते अधिकांशत : वन- वे हैं. शहर में संभावित होटल पर नज़र डाल हमने मुख्य मार्ग में hotel Le Meridien के ही समीप होटल GALINGKHA को  अपना पड़ाव बनाया . होटल के कमरे की खूबसूरती पर इस बात ने चार चाँद लगा दिए की सामने की ओर खुलने वाली विशाल खिड़की से  पर्दा  हटते ही सोने से चमकते हिम युक्त शिखर वाले पहाड़ मुस्कुरा रहे थे.  सच कहूं तो सदा- शिव के निवास की कल्पना वाकई में इन्हें देख कर साकार हो उठी थी. अब आज का सफ़र ख़त्म हो चूका था. अरे हाँ यह बताना तो भूल ही गई की बिना लिफ्ट के तीसरी मंजिल तक सामान और बिटिया के साथ चढ़ना बेहद दुष्कर लग रहा था. मुझे तो होटल स्टाफ की ये बात काबिलेतारीफ लगी की वो इस मंजिल और इससे ऊपर भी बने तल तक भारी भरकम सामान   पहुंचाते हैं :) .शाम होते ही कतारबद्ध -अनुशासित ट्रैफिक कमरे से ही नज़र आ रहा था ,साथ ही मुख्य बाज़ार की चहल -पहल भी .  आज की शाम आस पास घूमने,खाने पीने और आराम में गुजरी .कल थिम्पू के आस पास के व्यू पॉइंट जाने की तैय्यारी है.   
 (क्रमशः ) 
                                      
थिम्पू शहर का वेलकम गेट 


बादलों  से घिरे पहाड़ पर "zero visibility" 

चापचा में हिमाच्छादित पर्वत शिखर का एक दृश्य 


हिमाच्छादित पर्वत शिखर का एक अन्य दृश्य


बॉर्डर रोड आर्गेनाईजेशन द्वारा संचालित दन्तक कैन्टीन 

सर्पिलाकार रास्ते की एक झलक 

हिमाच्छादित पर्वत शिखर पर छाए मेघ 

हिमाच्छादित पर्वत शिखर

पाइनस वृक्ष से घिरे मार्ग 

स्थानीय विद्यालय के समीप गणवेश में घूमते बच्चे 

मेघाच्छादित पर्वत मार्ग 

मेघाच्छादित पर्वत मार्ग 

मेघाच्छादित पर्वत मार्ग "zero visibility"

ट्रक का अनुसरण कर आगे बढ़ते हुए 

पर्वतीय मार्ग-एक दृश्य 

चापचा चेक पोस्ट 

पर्वत श्रृंखलाएं

पर्वत श्रृंखलाएं

थिम्पू पूर्व पहुँच मार्ग 

मंगलवार, 24 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -4)

आज  दिनांक  4 मार्च सुबह साढ़े 10 बजे हम फिर आगे  के सफ़र के लिए मुजफ्फरपुर से निकल कर हाईवे पर थे.दरभंगा पार करने के बाद कोसी का महासेतु दिखाई दिया ,इसकी सेतु की लम्बाई लगभग 2 किलोमीटर थी..वहीँ सड़क से सामानांतर चले हुए इसके तटबंध ने लगभग 10 किलोमीटर तक हमारा साथ निभाया. इसे देखते ही ये अंदाजा तो हो ही गया की क्यों इस नदी को बिहार का शोक माना गया है??????.वाकई प्रकृति के तत्व अगर संतुलित हों तो जीवनदायी अन्यथा विनाशकारी हो सकते हैं..और काफी हद तक इन प्राकृतिक त्रासदियों के जिम्मेदार हम ही हैं. इसके बाद फोर्बेसगंज ,पूर्णिया होते हुए दोपहर 2.30 पर दालकोला पहुंचे जहाँ हाइवे पर ही होटल राजदरबार में खाना खाया...अब तो शायद आपको बताने की जरूरत भी नही होगी की खाने का आर्डर देते ही हम बिटिया को दूध- टोस्ट खिलाने में जुट गए . फटाफट खाना खाकर हमने  फिर गाड़ी का रुख सिलीगुड़ी की ओर किया जो की आज का हमारा संभावित गंतव्य था.तो किशनगंज होते हुए हम इस्लामपुर पहुंचे ,शहर के अन्दर से गुजरते हुए नए ई -रिक्शे भारी तादात में दिखाई  दिए और इनका जुगाड़ मॉडल ;जिसमे पीछे  की रिक्शे की जगह ठेलेनुमा गाड़ी जुडी थी ; भी दिखाई दिए...आखिर आवश्यकता अविष्कार की जननी है :) . इस्लामपुर के बाद बागडोगरा ( विमान पत्तन ) पहुंचे. यहाँ तक पहुँचते हुए हमारा 4 लेन हाइवे टूलेन सड़क में बदल चुका  था. किन्तु सड़क की स्थिति काफी बेहतर थी..इसलिए कोई समस्या नही महसूस हुई.आगे बढ़ते हुए शाम सुनहरी चूनर बदल कर हल्के स्याह रंग में घुलने  लगी...सूरज डूबा ना था..और सड़क के दोनों किनारों पर "टी -प्लांटेशन "  बिना चाय पिए ही हममे ताजगी भर रहा था.. गहरी हरी रंग की ये पत्तियां भूपेन हज़ारिका जी के बोल अनायास ही दिमाग के किसी कोने में जीवंत कर रही थीं ..." एक कली दो पत्तियां.... " :) और फिर शाम साढ़े 5 बजे हम सिलीगुड़ी पहुँच चुके थे.यहाँ पर मुख्य सड़क पर ट्रैफिक बहुत ज्यादा था . किन्तु पुलिस मुस्तैदी से इसे नियंत्रित कर रही थी. आगे का सफ़र जारी रख सकते थे पर दिन ढलने के बाद रास्ते की खूबसूरती से अनजान नही रहना चाहते थे ,इसलिए थोड़ी बहुत छान बीन के बाद NH-31  पर ही  होटल लेकर ठहरने पर सहमती बनी . और हम लगभग साढ़े 6 बजे होटल अपोलो में थे .
                              बिटिया के खिलाने -पिलाने की फिर वही कवायद शुरू हुई ,उसे दूध बोर्नविटा पिलाकर हमने भी खाने का आर्डर किया और आज बिटिया के लिए उबले आलू और आटा ज्यादा -मैदा कम वाली मठरी(पूरी के बदले ) मिला कर खाना तैयार किया गया ... रात 12 बजे हम सब नींद के आगोश में जाने की तैय्यारी में थे.
5 मार्च .....सुबह बिटिया ने ही हमको जगाया . फटाफट नित्यकर्म से निपट कर करीब 8.30 पर होटल के डाइनिंग हॉल में नाश्ते के लिए पहुंचे, अन्वेषा (बिटिया ) को हमारे नाश्ते में ना कोई रूचि थी ना ही जरूरत (क्योंकि वो पहले ही अपना दूध-बोर्नविटा पी चुकी थी ).लिफ्ट से इस हॉल तक पहुँचने में उसने पूरे होटल में ये सन्देश दे दिया की कोई बच्चा यहाँ मौजूद है :p  ,दरअसल वो लिफ्ट से बहुत ज्यादा डरती है..उसने रो-रोकर अपना डर जाहिर किया. नाश्ता काफी स्वादिष्ट था. और होटल स्टाफ बेहद मिलनसार और नम्र था .हमारे अलावा वहां होटल के अन्य मेहमान भी मौजूद थे, स्टाफ सहित सबने अन्वेषा से दोस्ती करने का प्रयास किया पर शायद बिटिया रानी ने "बेबी डॉल मैं सोने दी " गाना कुछ ज्यादा गंभीरता से ले लिया था   ,तो उसने पीतल की दुनिया के  सभी रहवासियों को नकार दिया ;) .खैर रूम में वापस आकर हमने परिवार और आत्मीय जनों को होली की अग्रिम शुभकामना देने के लिए फ़ोन किया..क्योंकि आज हम भूटान सीमा में प्रवेश करने वाले थे  ,और हमारे मोबाइल का नेटवर्क वहां काम नही करता . आज हम थोड़े सुस्त हुए क्योंकि हमें आज ज्यादा दूरी तय नही करना था . तो बिटिया को नहलाकर दाल -चावल की खिचड़ी खिलाकर पैकिंग पूरी कर हम करीब 10.45 पर भूटान की ओर बढ़े .
सिलीगुड़ी से निकलते ही रास्ता थोडा सकरा महसूस होने लगा .क्योंकि यह  वाइल्डलाइफ सेंचुरी से होकर गुजरता है. सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ ऐसे लग रहे थे  जैसे आसमान को छूने की जिद में हों . हम जल्द ही सिवोक पहुंचे ;ये सिक्किम और बंगाल का बॉर्डर है और यहाँ तीस्ता नदी पर बना  पुल आवागमन और सैन्य सुरक्षा के दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है ,इसे कोरोनेशन (coronation ) ब्रिज के नाम भी जाना जाता है. इस पर सेना और BSF की टुकड़ी की मुस्दैत तैनादगी से महसूस हुआ की यह क्षेत्र कितना संवेदनशील है. इस पुल के ठीक पहले काली माता का सिद्ध मंदिर भी है जहाँ श्रृद्धालुओं की काफी भीड़ भी थी. पुल से गुजरते हुए  चंचलता के लिए मशहूर तीस्ता नदी की स्थिरता  मन को बाँध रही थी....और  नज़रों को भी  स्थिर कर रही  थी वो. सच में चंचलता जब गंभीरता के रूप में बदलती है तो प्रबल सम्मोहक हो जाती है...कुछ ऐसा ही यहाँ महसूस हुआ.  इस पूरे क्षेत्र में लाल मुह के  बंदरों का काफी जमावड़ा  था . सिलीगुड़ी से ही भूटान की काफी गाड़ियाँ (फोर व्हीलर ) दिखाई देने लगती हैं.क्योंकि  भूटान का ज्यादातर आयात निर्यात इन्हीं मार्गों पर निर्भर है . ब्रिज पार कर पतिदेव ने गाड़ी रोक कर कुछ तस्वीरें ली और हम आगे बढ़े. दुआर ,बन्निपारा ,हाशिमारा होते हुए जयगाँव पहुंचे . इसी रास्ते में हमें जलदापारा नेशनल पार्क भी पड़ा .पर हमारा उद्देश्य यहाँ रुकने का नही था . हाँ ये जरूर सोचा की बिटिया के बड़े होने के बाद उसे यहाँ जरूर लेकर आएँगे ताकि वो इन्हें समझ और महसूस कर सके . जयगांव भारत की सीमावर्ती शहर है ,इसके बाद ही भूटान की सीमा शुरू होती है .   बेहद व्यस्ततम और भीड़ -भाड़ वाले इस  शहर की सीमा   भूटान के फ़ुएन्त्शोलिन्ग (Phuentsholing)   में आकर मिली ,और सच कहूँ तो मैं अवाक रह गई. दो ऐसे शहर जो बस सिर्फ एक भव्य गेट की सीमा से अलग होते हैं इतने अलग कैसे हो सकते हैं!!!!!!!!!!!!!!!!!!
                         दोपहर 1 .45 पर हमने भूटान सीमा में प्रवेश किया. भूटान के इस शहर में प्रवेश के लिए किसी प्रकार के परमिट या अनुमति की जरूरत नही होती . हमने 
फ़ुएन्त्शोलिन्ग में रीजनल सिक्योरिटी एंड ट्रांसपोर्ट एथोरिटी के ऑफिस के नजदीक ही एक होटल लिया और सामन रूम में रख कर ऑफिस की ओर दौड़ लगाईं ,क्योंकि आगे जाने के लिए हमारा और गाड़ी का परमिट होना जरूरी था ,उसके बिना हमें आगे के शहरों की सीमा में प्रवेश नही मिलता .और यह काम हम आज ही निपटाना चाहते थे.
        पतिदेव ने यहाँ लगने वाले सभी दस्तावेजों और एप्लीकेशन फॉर्म की कई प्रतियाँ सफ़र पर निकलने से पूर्व ही करवा कर एक फाइल तैयार कर ली थी. बिटिया का पासपोर्ट की कॉपी भी रखी थी . लिहजा इस ऑफिस में हमारा काम आसान हो गया . सुयश (पतिदेव) ने हम तीनो का एप्लीकेशन फॉर्म और सभी डॉक्यूमेंट सम्बंधित कर्मचारी को दिए. और लगभग 40-45 मिनट में ऑनलाइन वेरिफिकेशन करके हमारा परमिट दे दिया गया . इस ऑफिस में महिला कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा लगी. अपने परंपरागत पहनावे में विनम्रता के साथ साथ काफी कार्यकुशल लगी . साथ ही फैशनेबल भी . एक खास बात यह दिखी की यहाँ काम करने वाला पूरा युवा वर्ग पूरे समय सोशल नेटवर्किंग में सक्रिय था . सेल्फी और वोइस चैट इनके कार्यकुशलता को जरा भी प्रभावित नही कर पा रहे थे . एक और विशेषता ...पान की गिलौरी दबाए  प्रौढ़ पुरुष  मुझे भारत के सरकारी दफ्तरों के टिपिकल बाबुओं की याद दिला गए :) .
यहाँ से निकलने के बाद हमने कार की परमिट के लिए एडिशनल आर.टी. ओ. के ऑफिस में हाजरी दी. इसके लिए भी अनिवार्य दस्तावेज सुयश ने पहले ही जूटा रखे थे . पर दुर्भाग्यवश हमारे पहुँचने से पहले 3 बजे ही बंद हो चुका था ,जिसकी जानकारी हमें  
एडिशनल आर.टी. ओ. महोदय ने ही दी . उन्होंने हमारा परिचय लेते हुए काम पूरा ना हों पाने के लिए खेद व्यक्त किया और दुसरे दिन सुबह लगभग 9 बजे आने की सलाह दी .
हम वापस होटल पहुंचे और  बिटिया इस दौड़ भाग में काफी थक चुकी थी तो उसे थोड़ी देर के लिए सुला दिया . और पतिदेव  कैमरा लेकर थोडा घूमने-फिरने के लिए निकल गए . आज अब हमें सिर्फ आराम ही करना था तो मैंने भी बिटिया के साथ नींद लेने का मन बनाया . हालाँकि की होली (धुरेड़ी ) की पूर्व संध्या थी ,पर सीमावर्ती होने के बावजूद भी यहाँ पर इसका कोई प्रभाव नही दिखा .
हमारे पूर्वानुमान और जानकारी  से अलग यहाँ अचानक थोड़ी देर के लिए हमारे मोबाइल को BSNL. का  नेटवर्क भी मिला,जिसका फायदा उठा कर  हमने घर पर अपनी स्थिति की जानकारी दी .
यहाँ आकर एक और खासियत ने मुझे प्रभावित किया वो है व्यवस्थित ट्रैफिक ने. भूटान की सीमा में आते ही हमने ये बात नोटिस की थी की यहाँ हॉर्न का प्रयोग लगभग ना के ही बराबर होता है..ना तो दूसरी गाड़ियों से आगे निकलने की होड़ थी. बेहद अनुशासित तरीके से गाड़ी चलाई जा रही थी यहाँ. पैदल चलने वालों की सुविधा का भी खास ध्यान और सड़क पार करने में तवज्जो दी  जा रही थी. सभ्यता और संस्कृति इन्हें विशेष बना रही थी. 
हम दोनों ही वहां की शांति और संस्थानों की  पारंपरिक सज्जा से काफी प्रभावित हुए. आधुनिक होते हुए भी वो अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं..ये देख कर सुकून भी मिला .  
शाम को उठने के बाद मैं अलसाई हुई थी इसलिए बिटिया के साथ रूम में ही रही और पतिदेव ने फिर बाजार की ओर रुख किया . वो जल्द ही वापस आकर  होटल के  
रेस्टोरेंट चले गए. मैंने रूम में ही अपने और बिटिया के लिए खाने का आर्डर किया . और कल सुबह जल्द उठने के लिए आज जल्द ही सोने की कोशिश की .
दुसरे दिन 6 मार्च की  सुबह करीब 7.45 पर मैंने सुयश को जगाया .चूँकि टाइम जोन में भूटान हमसे लगभग 1 /2 घंटे आगे है और गाड़ी के परमिट के लिए सुबह 9 बजे ऑफिस में उपस्थित होना था इसलिए सुयश फटाफट तैयार होकर हमें तैयार रहने की हिदायत देकर   
रीजनल सिक्योरिटी एंड ट्रांसपोर्ट एथोरिटी के ऑफिस चले गए. तब तक हमने भी बिटिया को जगाकर रोज की तरह का उपक्रम दोहराया और उसे खाना खिलाकर तैयार किया . सुबह 10 बजे सुयश कार के परमिट के साथ वापस आ चुके थे .कहना गलत ना होगा की भूटान के सरकारी ऑफिस के कर्मचारियों का रवैय्या हमारे देश के टरकाने /लटकाने के रवैय्ये से उलट चुस्त-दुरुस्त है. परमिट देते वक़्त सम्बंधित अधिकारी महोदय ने सुयश से भारत  में गाड़ियों की नंबर प्लेट पैटर्न  और विशेष (यूनिफार्म ) पारम्परिक पहनावे  और हमारी क्षेत्रीयता के सम्बन्ध में भी बातें की . साथ ही उन्होंने परमिट की प्रतियाँ करवाकर रखने की हिदायत भी दी ,क्योंकि आगे सफ़र में कई चेक- पोस्ट पर इनकी प्रतियाँ जमा करना होगा.
तो आज होली (6 मार्च ) को हमने सुबह 11 बजे होटल को अलविदा किया और अपने मुख्य गंतव्य "थिम्पू " की ओर रुख किया .  (क्रमशः ) 
कोरोनेशन ब्रिज , सिवोक 


नेशनल पार्क स्वागत गेट 


रॉयल किंगडम ऑफ़ भूटान ,प्रवेश द्वार ,फ़ुएन्त्शोलिन्ग

भूटान प्रवेश द्वार पूर्व दन्तक का स्वागत बोर्ड 

जलदापारा नेशनल पार्क मुख्य गेट .

बुधवार, 18 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -3 )

3 मार्च ,सुबह 10 बजे ; और हम इलाहाबाद के व्यस्ततम  मार्ग में आगे बढ़ रहे थे . दिशा...... अरे यह तो हम आपको बताना ही भूल गए की किसी भी यात्रा में निकलने के पूर्व पतिदेव मेन रूट प्लान (वैकल्पिक भी ), संभावित समय,उस  दिन के संभावित अंतिम गंतव्य ,स्थान विशेष में होटल के नाम  आदि का पूरा पेपर वर्क करते  (होम वर्क कहना उचित ही होगा )हैं. सभी यात्राओं में यह काफी उपयोगी /सहायक सिद्ध होता है; अरे हाँ तो हम यात्रा की दिशा पर बात कर रहे थे . पूर्व निर्धारित कार्यक्रम और समय के अनुसार हमारा उस दिन का पड़ाव पूर्णिया या दरभंगा होना था .
तो इलाहाबाद से निकलकर गंगा पुल पार करते हुए हम फाफामऊ पहुंचे .तब तक रोड की  ज्ञात स्थिति और बदहाल ट्रैफिक ने हमारा सारा उत्साह  ठंडा कर दिया था. प्रतापगढ़ पहुँचते पहुँचते ही हमें  दोपहर के 12 बज चुके थे. हमने इलाहाबाद से चलते वक़्त यह तय किया था की 12-1 के आस पास हम फ़ैजाबाद में होंगे तो बिटिया और स्वयं के खाने का कार्यक्रम यू. पी. पर्यटन विभाग के होटल में होगा ,जो की रास्ते में ही पड़ता. पर खस्ताहाल सडकों ने हमारे पूरे प्लान पर पानी फेर दिया :( , सच कहूं तो मुझे लगभग 13 साल पहले की मध्यप्रदेश के कांग्रेस शासनकाल की सड़कें याद आ गईं, जब सड़के सड़क ना होकर "जल   संग्रहण की  सामूहिक टंकी" नज़र आती थी. इस फेर में फंस कर बिटिया भूखी ही गोद में सो  गई . जैसे तैसे सड़कों से संघर्ष करते हमारी गाड़ी दोपहर 2.15 पर  राजा राम की नगरी अयोध्या / फ़ैजाबाद पहुंची ,हमने राहत की साँस ली और पूर्व निर्धारित होटल में पहुंचकर खाने का आर्डर दिया ,तब तक मैंने बिटिया को " खिचड़ी " खिलने की कसरत शुरू की, पर ये क्या ....उसने अपने शास्त्रीय संगीत ( रोने ) से पूरा होटल गूंजा दिया . डांट -डर -मान मनौअल कुछ काम नही आया ,उसको नहीं खाना था तो नहीं खाई :( , दरअसल वो अपने खाने पीने में समय की काफी पाबंद है ;और आज तो लगभग 2-3 घंटे की देर हो चुकी थी. होटल में खाने का आर्डर काफी देर से पूरा हुआ ;वो भी अधूरा .बेहद व्यस्ततम और शायद लोकप्रिय होटल लगा. खाने का स्वाद अच्छा था ,पर मेरे गले से निवाला नही उतर रहा था ,बिटिया के भूखे रहने का दुःख और उसके असहयोग ने मुझे काफी खीज दिला दी  थी. जैसे तैसे थोडा बहुत खाकर हमने सफ़र में आगे की ओर रुख किया . बिटिया के खाने की वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर हम पिछली सीट पर शिफ्ट हुए और उसे उसके पसंदीदा लेज के चिप्स पकडाए ,पर आज वो विद्रोह में उतारू थी. ना मतलब ना हुआ ... मेरा पारा सातवें आसमान में था...और मैंने ऐलान किया की अब इसे लेकर किसी भी लम्बे सफ़र पर नहीं जाऊंगी (इस सफ़र में यह जुमला पतिदेव को कई बार सुनने को मिला :p ) .
                              आख़िरकार मैंने हथियार डाल  दिए और उसे कुछ भी खिलाने की कोशिश बंद कर चुपचाप बैठ गई.थोड़ी देर तो बिटिया ने मोबाइल पर अपनी " राइम" देख कर मन बहलाया फिर उसने मेरी चुप्पी को नोटिस किया ,मुझे मानाने के प्रयास में कई बार अपने गाल पर मेरा हाँथ लगाने की कोशिश की और मैंने छुड़ा लिया. असफल होते ही उसने रोकर ब्रम्हास्त्र चलाया और हम ढेर. खैर इस पूरी जद्दोजहद के बाद उसने दूध टोस्ट ( रोज की निर्धारित मात्रा से कुछ ज्यादा ) आराम से खा लिया ,शायद उसे मुझे पर दया आ गई थी :D.
फ़ैजाबाद से आगे  पवित्र सरयू नदी पार की, जो ब्राह्मणों में विशेष विभाजन या सरयूपारीय विभाग के उद्गम  के लिए प्रमुख कारण बनी थी.इसके बाद बस्ती ,गोरखपुर ,कुशीनगर शहरों को बाइपास से ही हाय- बाय किया, पर पिक्चर अभी बाकी है......इन सब शहरों की बाइपास सुविधा से बचा वक़्त गोपालगंज ( यू. पी. - बिहार बॉर्डर ) ने डकार लिया...लगभग 20 किलोमीटर का ये रास्ता दुर्दान्त साबित हुआ . ढलता हुआ सूरज भी अनजाने रास्तों में एक मुसीबत ही लगता है..क्योंकि गाड़ी चलने वाले के लिए- द्रश्यता  सीमा /visibility बहुत कम हो जाती है . इस दौरान ये समझ आ गया की आज के निर्धारित गंतव्य तक पहुंचना असंभव है . शाम गहराते हुए रात में बदलने लगी ,मेरे सर पर फिर बिटिया के खाने की चिंता सवार होने लगी. सुबह ना सही ,रात को तो उसका पसंदीदा खाना सही समय पर मिलना चाहिए .  इसी दौरान पतिदेव ने डीज़ल लेते वक़्त फ्यूल स्टेशन के कर्मचारियों से नजदीक में होटल की सुविधा के बारे में जानकारी ली,पता चला चकिया नाम की जगह में खाने और रुकने की व्यवस्था हो जाएगी.
थोडा तसल्ली हुई पर ज्यादा देर मैं खुश ना रह सकी .चकिया  के होटल पहुँचते ही सबसे पहले मैंने बिटिया की आटा मैगी घर से लाए गए भगौने में पानी डालकर पकाने के लिए होटल की रसोई में पतिदेव के हाथ पहुंचवाया . उसके बाद कमरा देखने की बारी आई..... उफ़ ये क्या !!!!!!!!!!!!!!!!! यहाँ तो मैं अपनी बेटी को पैर भी ना रखने दूं ;कहकर मैं सीधे गाड़ी में आकर बैठ गई..बेहद तंग गलियारे से निकलने के बाद वो कमरा तो हवाप्रद लगा पर साफ सफाई का आलम देख कर मेरी नाक सिकुड़ चुकी थी. तब तक पतिदेव तैयार मैगी लेकर आए... ओह... ये क्या लगा की अपना सर पकड़ कर रो लूं.. तेज़ आंच में पकाई हुई कड़ी कड़ी मैगी ..बिटिया को नहीं खाना था..तो वो नहीं खाई.अब मेरा गुस्सा दुःख और करुणा में बदल चूका था . हमारे सफ़र में हमारी संतुष्टि में बिटिया तकलीफ झेले,इससे बुरा कुछ ना था . :'(
आख़िरकार पतिदेव और हमने बाकी खाने का आर्डर कैंसिल कर फटाफट कार रास्ते  में आगे बढाई . आगे हम कहाँ जाने वाले थे यह समय ही निश्चित करने वाला था .रात का 8 बज चूका था और हमने रुख किया मुजफ्फरपुर की ओर . अपनी बिटिया को लेकर मैं चिंतित थी और पतिदेव हम दोनों को लेकर. रास्ते में होलिका दहन के पूर्व के कार्यक्रम चल रहे the. एक थ्री व्हीलर में पटिये  बिहारी गाने पर नाचती हुई 
बिहार की"टिपिकल नचनिया " और नीचे मस्ती कर रहे होलियारों ने  हमारी कल्पना को रंग दे दिया . उस टेंशन के समय में भी इस दृश्य ने मेरे और पतिदेव के होंठों पर मुस्कान ला दी. थोड़ी आगे बढ़े तो एक बारात ...वाह जी वाह ..घोड़े, हांथी ,ऊँट से सजी बारात ,बैंड में  -"आज मेरे यार की शादी है " गा ता हुआ एक गायक ...ऐसा लगा की कोई शाही बारात है ,पूछने पर पता चला की नहीं ये आम आदमी (केजरीवाल की पार्टी वाला नही ) की ही बारात है. खैर हमारे सफ़र का तनाव कुछ कम हो चूका था. हाँ इस दौरान हम इन पलों को कैमरे में नही कैद कर पाए ...क्योंकि बिटिया हमारी गोद में पॉवर नैप ले रही थी..और वकील साहब मतलब पतिदेव गाड़ी ड्राइव कर रहे थे .
                   रात करीब 10.15 पर हमने मुजफ्फरपुर बाइपास पर गाड़ी रोकी ,और पतिदेव ने उतर कर होटल के बारे में पता किया . एक सज्जन ने बताया की "गोलाम्भर " के पास पूछने से आपको सही जानकारी मिल जाएगी . चौराहे के लिए ये स्थानीय शब्द हमें बहुत भाया ,पूरे सफ़र में अक्सर हम इसे प्रयोग करते रहे . होटल ढूँढने के प्रयास में एक कूल dude टाइप के बन्दे ने पतिदेव को "इमली चट्टी " नाम की जगह बताई ,जहाँ पहुँचते ही हमारी आज की यात्रा को विराम मिला ..लगभग एक साल पहले खुले एक होटल पर हमारी सहमती बनी ,कमरे में पहुँचते ही बिटिया की ख़ुशी ने हमारी सारी थकान उतार दी बेहद साफ-सुथरा ,अत्याधुनिक सज्जा और सुविधाओं से सज्जित उस हालनुमा कमरे में बिटिया ने दौड़ भाग कर हमें निश्चिंत कर दिया. मैंने फटाफट उस कड़ी मैगी को इलेक्ट्रिक केटल (ये भी घर से ही ले जाई  गई थी )में मक्खन और पानी दल कर उबाल दिलाई और फटाफट बिटिया को खिलाया .खुद भी खाने का आर्डर दे नेट सर्फिंग करने लग गए. लगभग 11 .30 पर खाना ख़त्म कर आरामदायक और साफ़ बिस्तर की गोद में समा गए...हाँ सोने से पहले पतिदेव ने हिदायत दी की कल कोई जल्दी नही करना और बिटिया को खाना खिला कर ही सफ़र पर निकलेंगे . पूरे दिन की दिमागी और शारीरिक थकान के कारण  बिटिया  को सुलाने बाद नींद ने मुझे कब आगोश में लिया पता ही ना चला ...दुसरे दिन सुबह सीधे 6.30 पर ही नींद खुली . बिटिया गहरी नींद में सोई हुई थी..अरे हाँ ये तो बताना भूल ही गई की यहाँ पर मच्छरों की फौज इतनी ज्यादा है की अगर आपने सिर्फ एक आल आउट या मोर्टिन लगाया तो शायद आप पूरी रात कव्वाली ही गाएँगे :) आज भी वही दैनिक क्रम....निपटते हुए बिटिया जाग गई थी...लगभग सवा आठ पर. हमने खुद के लिए आलू पराठे और बिटिया के लिए सादा दाल चावल आर्डर कर फटाफट बिटिया को नहलाने और सामान समेटने का काम शुरू किया.बिटिया को खिलाने के बाद मैं निश्चिंत हुई,और रास्ते के लिए दूध थर्मस में पैक कराया . 10.15 पर हमने होटल को बाय किया ,पर निकलते ही मोड़ पर पुलिस ने रोक लिया ...क्यों....?रास्ता -एकतरफा /oneway था... तो उसने हमें घूम कर जाने की सलाह डी..हालांकि वहां पर कोई बोर्ड नही था. सड़क कल रात को जितनी सुगम लगी आज भीड़ ने हमारा रास्ता  थोडा मुश्किल  कर दिया,खैर ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा और हम 10.30 पर वापस बाइपास पर थे ....तो आज 4 मार्च का हमारा सफ़र शुरू हो चूका था.... ये कैसा रहा....अगली कड़ी में पढ़िए :)
शानदार सवारी ...जानदार सवारी ................बिहार में :)


क्षेत्रीयता का असर- डाईभर्सन :) 

गोपालगंज में सड़क की स्थिति 


गोपालगंज में सड़क की स्थिति 



गोपालगंज में सड़क की स्थिति 
 

रविवार, 15 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार ( भाग -2)

लीजिये 2 मार्च आ पहुंचा.यात्रा के उत्साह और डर और कुछ चिंताओं  ने पूरी रात  मेरी आँखों से नींद उड़ा रखी थी . हम दोनों ने तय किया था की प्रातः यथासंभव जल्द निकलने की कोशिश की जाएगी..जैसे ही घडी ने 5.30 बजाए मैंने बिस्तर को अलविदा कहा और नित्य कर्म के बाद सुबह 7 बजे तक पूजा सहित घर के अन्य काम निपटा लिए.पतिदेव तब तक सामान की अंतिम पैकिंग का जायजा लेकर सामान हमारी कार में जमा चुके थे. थोडा बहुत सामान अभी भी बाकी था क्योंकि बिटिया रानी ने उस दिन जोरदार नींद लेने का मन बना लिया था.सामान्यत : वो मेरे बिस्तर छोड़ने के 15 -20 मिनट ही उठ जाती है..किन्तु पतिदेव की हिदायत थी की उसे बिलकुल परेशान ना किया जाए .पर  मेरा सब्र जवाब दे गया और साढ़े आठ बजे मैंने उसे उठा दिया .बोर्नविटा -दूध पिला कर उसे नहला कर तैयार कर दिया .खाने के मामले में अभी वो थोड़ी choosy ( नकचढ़ी  :p ) है ,इसलिए उसके लिए सुबह ही मैंने खिचड़ी बना कर केसरोल में रख लिया था ताकि उसके निर्धारित समय पर उसे खिलाया जा सके .कुछ छोटे किन्तु आवश्यक सामान हेंडी बैग में रख ; घर पर ससुर जी के लिए आवश्यक व्यवस्थाएं कर  और अपनी पड़ोस में रहने वाली आंटी को घर की एक एक्स्ट्रा चाबी पकड़ा कर अंततः 10 बजे हमने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया. अन्वेषा के दद्दू (दादा जी ) ने उत्साह किन्तु अनवू को इतने दिन के लिए खुद से दूर होने पर दुखी होकर हमें विदा किया .
                                  हमारा यात्रा की दिशा कटनी -रीवा -इलाहाबाद की ओर थी.12 बजे के आस पास कटनी बाई पास पर थे , भूख ने अभी लाल झंडी नही दी थी और बिटिया भी गोद में आराम से नींद ले रही थी तो हमने भोजन के लिए मैहर(माँ शारदा का भव्य -सिद्ध मंदिर ) का इंतज़ार किया , दोपहर एक के बाद मैहर फ्लाईओवर पर करते ही एक फैमिली रेस्टोरेंट पर हमने खाने का आर्डर किया और मैंने उसी दौरान बिटिया को खाना खिलाने की कसरत की :D , खाना खाने के बाद जल्द ही हमने रीवा की ओर रुख किया .3 बजे हमने रीवा बाईपास पर गाड़ी रोककर पिछली सीट का सामान आगे की सीट पर रख बिटिया का बिस्तर लगाया और उसके खिलौने भी निकाल  कर हम दोनों शिफ्ट हो गए. इस पूरे सफ़र में मोबाइल ने हमारा बड़ा साथ दिया ,क्योंकि बिटिया उसमे अपनी राइम देखने में व्यस्त हो जाती तो चलती गाड़ी में खड़े होना और मचलना जैसे कई खतरनाक स्टंट भूल जाती :) . वैसे वो मेरी गोद में 8 से 10 घंटे तक आराम से बैठ कर सफ़र करती है..पर बच्चे को बांध कर रखना उस पर एक अन्याय ही है.
                                          रीवा से इलाहाबाद रोड पर  कुछ आगे बढ़ते  ही हमारी "स्मूथ राइड " में एक बड़ा सा स्पीड ब्रेकर लगा .  मनगवां पार करते ही चाक घाट के काफी पहले ट्रक ,बस और गाड़ियों की कतार दिखाई दी .धीरे धीरे आगे सरकता  हुआ कारवां अचानक एक जगह पर रुक गया .काफी देर खड़े रहने के बाद एक स्थानीय ग्रामीण ने बताया की कल से जाम लगा है ,एक भी ट्रक या बस नही बढ़ सके ,आगे रस्ते में एक ट्रक के फंसने के कारन ये समस्या उत्पन्न हुई. दरअसल रीवा - इलाहाबाद रोड पर फोरलेन का काम चल रहा है,जिसके कारण किनारों पर पड़ी मिटटी पर पिछली रात को हुई बारिश के चलते ट्रक फंस गया . बाकी के भारी वाहन उस मिटटी में अपने वाहन उतारकर नयी मुसीबत मोल नहीं लेना चाहते थे . उनके लिए जाम साफ़ होने का इंतज़ार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नही था..
ये सब सुन कर मैंने फिर भाग्य को दोष देना शुरू कर दिया. जब आपके साथ बच्चे होते हैं तो उनकी सुविधा का ख्याल आते ही छोटी -साधारण समस्या भी विकराल लगती है....और यहाँ पर तो कई किलोमीटर का जाम था .जहाँ तक नज़रें जा रही थी सिर्फ और सिर्फ ट्रक बसों की कतार . मेरा दिल चिंता से बैठा जा रहा था.दिन डूबने के साथ समस्या और बढ़ जाती ,क्योंकि तब हमनें आस पास की सड़क की वास्तविक स्थिति का अनुमान लेना और मुश्किल होता . तभी किसी ने पतिदेव को कहा किनारे से निकल रही टैक्सी और लोकल गाड़ियों के साथ आगे बढ़े ,पतिदेव ने गाड़ी से उतर कर कुछ दूर तक जाकर स्थिति का जायजा लिया और धीरे धीरे जगह बनाती  हुई लोकल टैक्सी का 
अनुसरण कर कुछ अन्दर के गाँव से होते हुए रास्तों पर चलते हुए जाम के लगभग दुसरे सिरे पर निकले . इस दौरान जाम में फंसे हुए ट्रक वालों और स्थानीय लोगों ने निजी वाहनों और टैक्सी के लिए जगह बनाने में पूरा सहयोग दिया. इन् गाँवों से सूरज की रोशनी में ही गुजरना ठीक था ,क्योंकि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने इन्हें सुगम तो बना दिया था किन्तु दिशा सूचक ,निर्देशों और सामान्य सुविधाओं का नितांत अभाव था.....
खैर दुसरे सिरे पर निकलने के बाद भी इस छोर के जाम से हम लगभग सरकते हुए बाहर निकले . गाड़ी की अत्यन्त धीमी गति होने के कारण  मैंने बिटिया को निर्धारित समय कार की पिछली सीट  पर दूध और टोस्ट (घर से ही चूरा कर एक बड़े डिब्बे में रखा गया ) खिला दिया ;और कुछ समय के लिए निश्चिंत हुई... जैसे ही  हम जाम से बाहर  आए हमने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया ,और प्रशासन को इस अव्यवस्था के लिए जी भर कर कोसा . क्योंकि उस जाम में कई वहां पिछले दिन से यथास्थिति में फंसे थे. चाक घाट पार करते ही हमने चैन की सांस ली और पतिदेव ने गाड़ी की स्पीड थोड़ी बढाई.सामान्यत : वो दिन ढलने के बाद गाड़ी चलाना पसंद नहीं करते .किन्तु सुविधासंपन्न स्थान तक पहुंचना भी अनिवार्य था. इस जाम की खबर इलाहाबाद के भी निजी वहां यात्रियों को लग चुकी थी ,बीच रास्ते में एक सज्जन ने गाड़ी रोककर हमसे स्थिति का जायजा लिया,हमने उनके साथ महिलाओं और बच्चों को देखकर वही किसी अच्छे होटल में रुकने की सलाह डी..किन्तु उनका जवाब आया की आप लोग निकल आए ना....हम भी निकल जाएँगे :O , वो अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने को तैयार थे ,क्योंकि जिन आंतरिक मार्गों से हम  सूरज की रोशनी में होकर आए थे ,अँधेरे में वो किसी भूल भुलैय्या से कम ना थे .खैर सलाह हमारा काम था...अमल करना ना करना उनका विवेक . हम अपने आज के अंतिम गंतव्य इलाहाबाद की ओर बढ़े .रात्रि 8 बजे हम वहां पहुँच गए .सौभाग्य से गंगा नदी पर बने हन्डाई पुल पर कोई जाम नही मिला (वर्ष २०११ में आगरा भ्रमण के लिए जाने के दौरान इस पुल पर हम घंटों जाम में फंसे रहे ). कार का रुख सिविल लाइन एरिया की ओर किया और वहां पर पूर्वनिर्धारित होटलों को पतिदेव ने संपर्क किया , हमारी प्राथमिकता का होटल खली नही मिला .अन्य विकल्प में से हमने एक होटल चुना और वहां ठहरे .क्योंकि बिटिया भी थक चुकी थी और उसके भोजन का समय भी हो चूका था. होटल चेक इन करते ही उसका दूध -बोर्नविटा पिलाया और घर से ले जय गई इलेक्ट्रिक केटल में आटा नूडल बना कर उसे खिलाया . रात साढ़े 10 बजे हमने भी खाने का आर्डर कर खाना खाया और दुसरे दिन जल्दी उठने की कोशिश में 12 बजे खुद को बिस्तर पर ढेर कर दिया. नींद अच्छी नही रही पर शरीर कुछ स्वस्थ महसूस हुआ. अगली सुबह 6.30 पर पतिदेव और मैं उठ गए . होटल के माहौल और कई अपरिचित चेहरों को देख कर रात को बिटिया का रोना गाना उसे थका गया था ,इसलिए वो अभी नींद में थी. हमारे नित्यकर्म से निवृत होते ही वो भी उठ गई हमने चाय -दूध और बिटिया को रास्ते में खिलाने के लिए खिचड़ी का आर्डर देकर सभी तैयार हुए .बिटिया को नहला कर तैयार करने में लगभग 10 बज गए ,और फिर हमने इलाहाबाद को विदा डी और चल पड़े आज  3 मार्च ;
के अपने सफ़र पर ... (क्रमश :) 
रीवा -इलाहाबाद रोड पर जाम का एक दृश्य 



रीवा -इलाहाबाद रोड पर जाम का एक दृश्य (हमारे सीमित नज़रिए से )


जाम में वाहनों की कतार के बीच से निकलती छोटी -निजी गाड़ियाँ 

                                         रीवा -इलाहाबाद जाम के दौरान लिया गया आंतरिक सड़क मार्ग 

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

भूटान यात्रा संस्मरण- पहाड़ों से पहला साक्षात्कार

यात्रा संस्मरण...हाँ यह हमारा पहला मौका  है जब ये लिखने जा रही हूँ...प्रेरणा कैसे मिली ,,तो इसका जवाब है ..पतिदेव से.. वो अपनी सभी यात्राओं के अनुभव एक ट्रेवल ब्लॉग -BCMTouring में लिखते हैं...उस यात्रा का हर लम्हा शब्दों और तस्वीरों के रूप में सहेज लिया जाता है जो कभी आपने जिया होता है...बस हमने भी शुरुआत करने का सोचा... अपने ब्लॉग में लिखने का एक मकसद यह भी था की यह नितांत मेरे अनुभवों पर आधारित है...ट्रेवल ब्लॉग के तकनीकी पक्षों से अलग .पतिदेव से मंशा जाहिर की तो उन्होंने कहा की बिलकुल लिखो..अपने नज़रिए और अपनी सहज भाषा में..तो आज शुरुआत कर ही दी :)
                                          मेरी शादी  तय होते ही भावी  पतिदेव के पर्यटन और ड्राइविंग  की रूचि के बारे  में पता चला..."लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड " में उनका नाम दर्ज होने की सूचना ने मुझे उत्साह और गौरव से भी भर दिया था...सोचा था की उनकी इन  रुचियों में यथासंभव सहयोग करूंगी.शादी के बाद लम्बी और छोटी दूरी की कई यात्राएं  (
पर्यटन ) भी की .पहले हम फक्कड़ घुम्मकड़ थे .दुसरे शब्दों में रैपिड फायर घुमाई :p , पर बिटिया के  जिंदगी में आने के बाद हमें इसमें अल्पविराम लगाना पड़ा ...फिर भी आगे बढ़ना ही था...
उसके साथ पहली लम्बी यात्रा इंदौर, अजमेर और पुष्कर की हुई.आनुवंशिकता ने असर दिखाया ,बिटिया यात्रा के दौरान बेहद सहज और उत्साहित होती थी...उसके साथ दूसरी पर्यटन यात्रा (लम्बी दूरी ) पिछले साल फरवरी 2012 में हुई ,शिर्डी - गोआ की हुई . इस यात्रा में हमें कुछ दैवीय विपदाओं का सामना करना पड़ा ,मुझे गोआ पहुँचते ही चिकेन पॉक्स, और पतिदेव को लिगामेंट रप्चर हुआ.जिसके दाग और दर्द आज भी हम दोनों के साथ बने हुए हैं. इसमें अच्छी बात यह रही की बिटिया पूर्णत : सुरक्षित और स्वस्थ रही.
पिछले वर्ष के कटु अनुभव ने  यात्राओं को जारी रखने की मेरी हिम्मत तोड़ दी .पतिदेव की कई बार की समझाइश और प्रोत्साहन के बाद आख़िरकार इस वर्ष की उनके ट्रेवल प्लान पर राजी हो सकी. पर अभी भी डर था की कहीं वो दुखद पीड़ा दायक अध्याय दोहराया ना जाए... :O
फिर भी पति का साथ देने का वचन जी लिया था... :p तो कमर कस लिए और तैय्यारियाँ शुरू किये. बिटिया का मेडिकल चेकअप ;क्योंकि निर्धारित तिथि के कुछ दिन पूर्व ही उसे ब्रोंकाइटिस हुआ :( , जरूरी दवाइयां, सफ़र के दौरान खाने -पीने का समान , गर्म कपड़े ....सब सहेजने में दो दिन लग गए .
मेरे मानसिक रोध की वजह से यात्रा की तिथि एक दिन आगे बढाई  गई..क्योंकि पिछले वर्ष 28 फरवरी को ही शुरुआत की थी;  और उस अनुभव का डर मेरे दिमाग में और छाप मेरे चेहरे पर है .
यहाँ पर बता देना चाहती हूँ की हमारे प्लान में नार्थ ईस्ट, गुजरात और भूटान के आप्शन थे ,पतिदेव के उत्साह को देखते हुए मैंने भूटान पर हामी भरी. ये सफ़र हमारे लिए पुराने अनुभवों से उबरने के लिए एक चुनौती की तरह था. एक खास बात और हमारी ज्यादातर पर्यटन यात्राएं फरवरी- मार्च में होती है . क्योंकि ज्यादातर विद्यार्थी वर्ग परीक्षा में व्यस्त होता है और ऑफिस में फ़ाइनेन्शिअल क्लोजिंग के कारण  भीड़ कम होती है.होटल भी  ऑफ सीजन के  चलते 
लगभग खाली ही होते हैं.और हाँ मौसम का मिजाज़ भी अच्छा रहता है.....ना बेहद गर्म ,ना बेहद ठंडा . :D ,तो हमारी प्राथमिकताओं में यही वक़्त होता है.
लीजिये हमारे सफर की  शुरुआत हुई 2 मार्च को .........( क्रमशः )   


सुयश त्रिपाठी जी का लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड का सर्टिफिकेट