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शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान



 तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान 



तुम्हारे इच्छित प्रेम का प्रतिदान , 
मैं ना कर सकूंगी...
प्रेम के पावन भावों को , 
बंधन ना कर सकूंगी ...

तुमने चाहा ,सिर्फ मेरा साथ पाना ...
और हमने ...आत्मसात हो जाना..

मेरे प्रेम में बसा ,
एक माँ सी स्निग्धता ,
बहन सा स्नेह,
दोस्त की सहजता ..
बेटी सी सुलभता ...

राधा सा समर्पित एहसास ..
मीरा का अटूट विश्वास...
सीता सी पावनता,,,
और सती सी सत्यता ...

एक सुरभि सी खुमारी ,
चंचल नदी की रवानी
सागर सी गंभीर ,
और पर्वत सी धीर .

हर रिश्ते का सत्व ,
मुझे एक सोच में समाना था .
पर तुमने तो बस ,
एक प्रेयसी ही माना था...

क्या जी सकेंगे एकरसता को स्वीकार कर ...?
सिर्फ देह से देह को अंगीकार कर ...?

स्नेह के असीम सागर को ,,
एक अंजुरी में ना भर सकूंगी...
अनंत को बस एक देह,
मैं ना कर सकूंगी ...
तुम्हारे इच्छित प्रेम का प्रतिदान ,
मैं ना कर सकूंगी......

1 टिप्पणी:

Sanjay Mishra Bhilai ने कहा…


बेहतरीन !!!!!!!!!! दिल को छूने वाली कविता ........